संदीप नाइक, देवास, मध्य प्रदेश से, 17/1/2022
देवास का मल्हार स्मृति मन्दिर अनगिनत कलाकारों की प्रस्तुति का साक्षी रहा है। संगीत, वाद्य यंत्र, बैंड, नृत्य से लेकर तमाम कलाएँ यहाँ आकर धन्य हुईं और यहाँ के दर्शकों और श्रोताओं को तृप्ति दी।
यहीं छोटे से मंच पर संगतकारों के संग बिरजू महाराज को लगभग दो ढाई घण्टे थिरकते देखा है मैंने। शायद तीन बार से ज़्यादा और हर बार उनकी ऊर्जा चकित करती थी। उन्हें 1970 से देख रहा था। देवास, इन्दौर, भोपाल, मुम्बई, दिल्ली। वो आदमी थकता ही नहीं था। गाढ़ी लाली लगे होठों पर गज़ब की मुस्कान हमेशा चिपकी रहती थी।
हाल ही में रज़ा फाउंडेशन के कार्यक्रम की वीडियो क्लिप्स देख रहा था। वहाँ वे बैठे बातें कर रहे थे। कितने सहज और सौम्य लग रहे थे।
घुँघरू बँधे पाँव, साँसों का आरोह-अवरोह, जमुना के तट पर कृष्ण कन्हैया राधा के संग मुरली बजावे। नए प्रयोग, नित नूतन नवाचार और अपने शिष्यों संग पितृ-भाव वाले महाराज संसार का चक्कर लगा आए थे। कोई ही कोना छूटा हो शायद।
कल देर रात से तबीयत ठीक नहीं। छत पर घूम रहा था पर ठंड, धुंध से हालात और खराब हो गए। बेचैनी, छाती में दर्द, सर्दी खाँसी और धुंध में बनता बिखरता अस्तित्व। देर रात तीन बजे कमरे में आया तो तपस की पोस्ट देखकर जी धक से रह गया। समझ आया कि ये घबराहट क्यों है।
धरती स्थिर है। आवाज़ों का शोर थम गया है। साँसें रूक गई हैं। वह आदमी यहाँ से चला गया है जिसके होने से, जिसके घुँघरुओं की ताक़त से यह धरती घूमती थी। नृत्य करती थी और तबले के साथ जुगलबन्दी कर मदमस्त होकर थिरकती थी।
सुनो, आवाज़ें आना बन्द हो गई हैं। जो बूंदे नाचती थीं, जो पक्षी चहकते थे, हवा जिस थिर पर थम जाती थी। मयूर उदास है। सूरज की किरणें कही छुप गई है और लग रहा जैसे यह थमना ही अब शाश्वत सत्य है।
यह चलाचली की बेला है। कोई बताए कि इतनी सुबह किसने गा दी भैरवी। कि वो विराट महामना सो गया अतृप्त सा। अभी तो उसे फिर यहाँ आना था।
नमन हे शिखर पुरुष! तुमने ही पुरुषों को नृत्य विधा में पारंगत किया। यह मान्यता तोड़ी कि पुरुष इस विधा में काम नहीं कर सकते। यह सिद्ध किया कि नृत्य पर सबका समान अधिकार है।
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उन्होंने अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराया है।)