statue of liberty

क्या उदारवाद के स्वयंभू ठेकेदार अब खुद अपने ही जाल में फँस रहे हैं?

समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश

आईवी लीग यूनिवर्सिंटीज (अमेरिका के आठ निजी विश्वविद्यालयों का समूह) से शुरू हुए यहूदी विरोध और फलिस्तीन समर्थकों के प्रदर्शन ने अब अमेरिका के शिक्षा जगत को अपनी आगोश में ले लिया है। अमेरिकी शिक्षा जगत के लिए यह अपनी तरह का पहला अनुभव है। इससे पहले वियतनाम युद्ध के समय अमेरिका में ऐसे प्रदर्शन उठे थे। किन्तु उस मामले में अमेरिका खुद दबंग पक्ष था और लोग किसी नैतिकता के तकाजे पर विरोध में थे। जबकि यहाँ पूरी बात नस्ल, मजहब और सभ्यताई स्तर की है और अमेरिका का इस घटनाक्रम पर सीधा प्रभाव भी नहीं है!

वैसे, यह कोई मामूली घटनाक्रम नहीं है। हम इसे जल्द ही पूरी पश्विमी शिक्षाजगत में फैलते देखेंगे। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों और मानव सभ्यता पर इसके व्यापक परिणाम होने वाले हैं। जैसा कि #अपनीडिजिटलडायरी के इन्हीं पन्नों पर पहले कुछ लेखों में आगाह किया जा चुका है कि यह सब घटनाएँ वैश्विक सत्ता तंत्र में बदलाव के चिह्न हैं।

फिलहाल अभी आईवी लीग यूनिवर्सिंटीज की बात करें तो उनमें एकेडमिक लक्ष्य, परिकल्पना, गुणवत्ता, नैतिकता, आन्तरिक मतभेद जैसे तमाम मुद्दे उठ रहे हैं। इन मुद्दों की जिम्मेदार वो नीतियाँ हैं, जो आज अपनी उपयोगिता खो चुकी है। लिब्रलिज्म (उदारवाद) के स्वयंभू ठेकेदार खुद अपने जाल में फँस चुके हैं। दुनिया में बौद्धिकता, आविष्कार और खोज के शीर्ष पर आसीन हार्वर्ड, कोलंबिया, ऐमोरी, एमआईटी, कैलिफोर्निया जैसी अमेरिका की टॉप यूनिवर्सिंटीज में जबरदस्त संभ्रम की स्थिति है। यह स्थिति दुनिया को प्रभावित कर रही है।

समय जब उनसे अप्रत्याशित रूपान्तरण की अपेक्षा कर रहा है, तब यहाँ का नेतृत्त्व करने वाला तबका वैचारिक स्तर पर थका, सुस्त और खाया-अघाया दिखता है। उसे बदलाव की कोई जरूरत महसूस नहीं हो रही। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में फलिस्तीन समर्थक प्रदर्शन में कुछ भारतीय छात्रों ने “ले के रहेंगे आजादी” जैसे नारे लगाकर वामपंथी-अतिवादी इस्लामी सम्बन्धों को फिर एक बार बेनकाब किया। लेकिन अब ऐसे मामलों में पीछा छुड़ाना आसान नहीं रहा है। यहाँ ऐसे छात्रों का न केवल शैक्षणिक भविष्य खतरे में है, बल्कि उन्हें अमेरिकी कानून से भी रूबरू होना पड़ सकता है।

उदाहरण के लिए प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में भारतीय मूल की एक छात्रा अचिंत्या शिवलिंगम को इजराइल विरोधी प्रदर्शन के दौरान गिरफ्तार कर प्रतिबन्धित कर दिया गया है। पिछले महीने ही फलिस्तीन समर्थन कर रही रिद्धी पटेल नामक एक भारतवंशी महिला को भी सिटी काउंसिल की बैठक में हत्या की धमकी देने के आरोप में जेल भेजा जा चुका है। यानी एक तरह से शुरुआत हो चुकी है।

अब भारत की बात करें तो ग्लोबलाइजेशन (वैश्वीकरण) और लिब्रलाइजेशन के बाद यहाँ भी विदेशी पैसे, सम्बन्ध और सत्ता की मदद से बड़ी और भव्य निजी यूनिवर्सिटीज खोली जाने लगी हैं। इनकी खासियत वही पुरानी है। चौकाने वाली, अतार्किक और अजीबोगरीब स्थापनाओं को पूरी गम्भीरता से लच्छेदार मुहावरों और जुमलों से सिद्धान्तों के रूप में स्थापित करना। विदेशी यूनिवर्सिटीज के सिद्धान्तों को भारत जैसे ‘तरक्कीपसन्द’ विकासशील देशों के श्रेष्ठि वर्ग ने राजनैतिक और सामाजिक ताकत हासिल करने की सस्ती गली के तौर पर लिया है। देश की ऊँची अदालतों में बैठे न्यायाधीश हों या बड़े नौकरशाह, सब हार्वर्ड, कैनेडी स्कूल जैसे संस्थानों से जुड़ना गौरव की बात समझते है। स्मरण रहे ऐसी ही कुछ स्थिति स्वतंत्रतापूर्व के भारत में कैब्रिज और ऑक्सफोर्ड को लेकर थीं।

विज्ञापन और सम्बन्धों के बल पर यह संस्थान अंग्रेजी माध्यम के मीडिया में जोरशोर से प्रचारित होने लगे हैं। इनमें अशोका, जिन्दल, क्राइस्ट, शिव नाडर, सिंबायोसिस जैसी यूनिवर्सिटीज का नाम कुछ ज्यादा प्रचारित हुआ है। यहाँ कोई कंप्यूटर तकनीकी, गणित, कृषि विज्ञान, ऊर्जा जैसे कोई उपयोगी अध्ययन नहीं होता। लेकिन यहाँ रईस, रसूखदार लाेगों के बच्चे अंग्रेजी लिबरल आर्ट्स में मानव अधिकार, लैंगिक अध्ययन, फेमिनिज्म जैसे विषयों के माध्यम से उद्योग-संस्थान, सरकारी विभाग, अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों में अपना एजेंडा चलाते हैं। विदेशी यूनिवर्सिटीज के माध्यम से यही विचार आईआईटी सहित देश के सभी बड़े विश्वविद्यालयों में भी पैठ कर गया है। 

सो, अब अन्त में आते हैं देश की ही एक निजी यूनिवर्सिटी अशोका में घटे एक रोचक घटनाक्रम पर। मार्च 2024 के अन्त में से यहाँ का एक दलित छात्र संगठन ‘सोशल जस्टिस फोरम’ (एसजेएफ) ने धरना देकर परिसर के भीतर जाति जनगणना, उसके आधार पर आरक्षण का क्रियान्वयन, वार्षिक अंबेडकर स्मारक व्याख्यान और विलम्ब शुल्क भुगतान नीति में संशोधन की माँग की है। हालाँकि बात इतनी भर होती तो चल भी सकता था। लेकिन उनकी तर्कों पर सवाल करने वाले चाहे छात्र हो या मीडिया, उन्हें संघी, चड्ढी जैसे जुमलों से चुप कर देने की रणनीति भी ये लोग सफलता से प्रयोग में ला रहे हैं। उन्हें इसका प्रयोग सिखाया जा रहा है।

बकौल एक मीडिया रिपोर्ट, यहाँ के एक अध्यापक ही तीखे सवाल करने वाले अखबारी संवाददाता को चुप करने के लिए एससी एट्रोसिटी एक्ट में फँसाने की धमकी देने का गुर सिखाते पाए गए। यह संगठन सवर्ण रईस वर्ग के बच्चों के बीच दहशत फैलाने में कामयाब हो रहे हैं। नवधनाड्य आईएएस, उद्योगपति, डॉक्टर, वकीलों के बच्चे जब अपने पालकों को ब्राह्मण, बनिया की संतान होने के कारण मुर्दाबाद के नारे सुनने का अनुभव सुनाते होंगे, तो यह कुछ आत्मावलोकन तो पैदा करेगा ही। याद रखने लायक है कि सामाजिक प्रयोगों में ऐसी दुर्घटनाएँ हास्यास्पद तो होती हैं, पर असामान्य बिल्कुल नहीं होती। 
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(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी के शुरुआती और सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराया करते हैं।)

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