Mayavi Amba-48

‘मायावी अम्बा और शैतान’ : डायनें भी मरा करती हैं, पता है तुम्हें

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

जल्द ही अंबा के सामने जोतसोमा का अथाह घना जंगल था और पीछे भयानक पंजों, दाँतों वाला कोई शिकारी जानवर था शायद, क्रूर मौत की तरह। अंबा का दिल इतनी जोर से धड़क रहा था कि उसकी आवाज बाहर तक सुनी जा सकती थी। रगों में खून इतना तेज बह रहा था कि उसके कारण नाड़ी की टिक-टिक भी बाहर सुनाई देती थी। लेकिन उसने इन आवाजों को अनसुना करते हुए आगे बढ़ने का हौसला किया। उसने अपने पीछे लगे शिकारी जानवर की मौजूदगी को भी दिमाग से हटाने की कोशिश की और आगे बढ़ चली। लेकिन इतना पर्याप्त नहीं था मानो। पहाड़ी में कदम-कदम पर खतरा था। ऊपर-नीचे रेंगते विशाल जंतु, बिलों से बाहर निकले भयंकर कीड़े-मकोड़े, घने पेड़ों पर बैठे अनदेखे जीव, सब के सब रात के अँधेरे में मानो उस पर झपटने को तैयार थे।

बड़े-बड़े पेड़ों की मोटी-मोटी टहनियाँ-लताएँ कदम-कदम पर रास्ता रोकती थीं। ये टहनियाँ-लताएँ इतनी मोटी थीं, जैसे किसी भारी-भरकम इंसान के हाथ-पैर हों। जहरीले साँपों की तरह ये लताएँ पेड़ों से बाहर लटकी थीं। इन सबके बीच से बचते-बचाते, लड़खड़ाते हुए वह पागल की तरह आगे बढ़ती जाती थी। साथ ही, अपनी बेवकूफी पर खुद को कोसती भी थी। चलते-चलते हर बार जब कोई सूखा पत्ता उसके पैर के नीचे आकर चरमराता तो वह सहम जाती। कँटीली झाड़ियों के काँटे उसकी गर्दन पर खरोंचों के निशान बनाते जाते थे। उसके बालों में रेंगने वाले तमाम छोटे-मोटे जीव-जंतु जमा हो गए थे। जैसे उन्होंने वहाँ अपना घर बना लिया हो।

उसके पाँव धीरे-धीरे जवाब देने लगे थे। ऐसे में, उसने एक बार तो उसी जानी-पहचानी दुनिया की सुरक्षा में लौटने का भी सोच लिया, जिसे वह पीछे छोड़ आई थी। मगर वहाँ लौटने के लिए भी देर हो चुकी थी। इतने में, अचानक तूफानी बारिश शुरू हो गई। हालात अब और बदतर हो गए। मूसलधार बारिश की बूँदें उसके शरीर पर यूँ पड़ीं, जैसे हजारों मधुमक्खियों ने एक साथ डंक मारे हों। उसकी आँखों के आगे एकदम अँधेरा सा छा गया। कुछ भी देख पाना मुश्किल हो गया। पानी में बह आई धूल, मिट्‌टी और पत्तों, आदि के कारण उसका शरीर गंदा हो गया। कँटीली झाड़ियों ने जहाँ-जहाँ उसके शरीर में जख्म दिए, वे भी बुरी तरह जलने लगे थे।

सामने छिपा हुआ बहते पानी का एक दलदल जैसा था। जब तक वह इस खतरे को भाँपती, देर हो चुकी थी। उसका पैर उस दलदल में पड़ गया। वह उसमें फँसकर डूबने ही वाली थी कि तभी उसने पूरी ताकत से उस पर पैर मारकर खुद को बाहर निकाल लिया। हालाँकि इस कोशिश में उसका पैर लहू-लुहान हो गया। त्वचा फट गई। तभी उसने देखा कि बहते पानी के उसी दलदली भँवर में एक लोमड़ी फँस गई है। बचने के लिए फड़फड़ा रही है। तेज आवाजें कर रही है। लेकिन वह बच नहीं पाई। भँवर में उलझकर उसने जान गँवा दी। उसका बेजान शरीर आगे बह गया। अंबा ऐसे किसी अंजाम की शिकार नहीं होना चाहती थी। इसलिए वह वहीं ठहर गई।

इस थोड़ी-सी सुरक्षित जगह को छोड़ने का उसका मन नहीं हुआ। खासकर तब तक, जब तक कि आसमान साफ न हो जाए, तूफानी हवाएँ थम न जाएँ, हर तरफ से बहता पानी कम न हो जाए। लेकिन उसे यह भी एहसास था कि यहाँ वह देर तक रुक नहीं सकती। अभी जिस लड़की का सहारा लिए खड़ी थी, वही जर्जर हो चुकी थी। उसे बहते पानी में दोबारा भयानक भंवर उठने का भी अंदेशा था। सो, उसने आगे बढ़ने का निश्चय किया और पीछे एक लकीर सी छोड़ते हुए उस भूलभुलैया के मुहाने की ओर बढ़ चली। बीच में, उसने नजर उठाकर देखा तो एक जगह जमीन से झाड़ियाँ हटी हुईं नजर आईं। हालाँकि तभी उसकी नजर अपने पैरों पर पड़ी। उसके जूते गायब थे। दलदल से बाहर आने की कोशिश के दौरान शायद वहीं गिर गए थे(

हालाँकि अभी वह जहाँ थी, वहाँ भी खतरा मानो इंतिजार में ही था। उसके पैर के नीचे की जमीन अचानक धँस गई और वह फिसलते हुए बहते पानी के उसी काले गंदे दलदल में जा गिरी, जिससे वह बचकर निकली थी। इस बार वह भँवर के बीच फँस गई। उसमें चकरघिन्नी की तरह घूमने लगी। वहाँ से बचना नामुमकिन था।

अंबा का शरीर तार की तरह सीधा हो गया। किसी भी वक्त टूटने को तैयार। उसने हाथ-पैर मारे। झटका दिया। अनेक जतन किए कि वह सिर को पानी के ऊपर रख सके। लेकिन उस दलदली भँवर ने जैसे उसे अपने जबड़े में जकड़ ही लिया था। वह उसे छोड़ने को अब तैयार नहीं था। सो, कुछ ही समय में वह निढाल हो गई। गले से घुटी हुई चीख निकलने लगी। लेकिन तभी उसे लगा, जैसे कोई उसे बाहर खींचने की कोशिश कर रहा हो।

वह डोमोवई था।

वह जानवर उसकी ओर झुका, और झुकता गया।

उसने अपनी गर्दन को बहुत आगे तक खींचा, जितना खींच सकता था। अपना जबड़ा भी खोला। लेकिन वह अंबा तक नहीं पहुँच सका। इसी बीच, वह थोड़ा लड़खड़ाया मगर जल्द ही सँभलकर खड़ा हो गया। मानो कोई नई तरकीब लगा रहा हो। फिर अचानक उसने कोबरा साँप की तरह अपना एक पाँव झटके से आगे बढ़ाया। उसके पाँव की लंबाई लगभग उतनी ही थी, जितनी दूरी पर अंबा फँसी थी। उसकी यह तरकीब काम कर गई। उसकी पिंडली भी शेर की तरह थी। इसके बलबूते उसने अपने पंजे से अंबा के कपड़ों पर पकड़ बना ली। उसकी पकड़ मजबूत थी। उसके पंजे, उसके दाँत एक झटके में किसी को भी चीरकर टुकड़े-टुकड़े कर सकते थे। उसकी ताकत को अंबा ने भी महसूस किया, जो अब पूरी तरह हथियार डाल चुकी थी। वह नहीं जानती थी कि आगे क्या होने वाला है। हालाँकि अंत में, वह इसके लिए शुक्रगुजार थी कि वह जिंदा है।

“डायनें भी मरा करती हैं, पता है तुम्हें?” पटाला ने उसे जोर से डाँटा।

“वह तो शुक्र है डोमोवई का, जिसने तुम्हें बचा लिया। उसका शुक्र मनाना चाहिए तुम्हें।” अपना नाम सुनकर डोमोवई धीरे से गुर्राया।

पटाला के उस ठिकाने पर लौटकर अंबा खुद को बेवकूफ जैसा महसूस कर रही थी। लेकिन बात यह भी थी कि वह अभी-अभी एक बड़े मुश्किल दौर से जैसे-तैसे बचकर आई थी। उसने हाथ से उस घाव को छूकर देखा, जो उसकी जाँघ पर हो गया था। डोमोवई वहीं से पकड़कर उसे आगे खींचकर लाया था। करीब आधा इंच लंबा और गहरा जख्म था वह। वहाँ से अब भी खून बह रहा था। इसलिए उसने अपनी अँगुलियों से उसे तब तक जोर से दबाया, जब तक कि खून बहना बंद नहीं हो गया। 

#MayaviAmbaAurShaitan
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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ 

47 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह खुद अपना अंत देख सकेगी… और मैं भी!
46 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसने बंदरों के लिए खासी रकम दी थी, सबसे ज्यादा
45 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : हाय हैंडसम, सुना है तू मुझे ढूँढ रहा था!
44 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : “मुझे डायन कहना बंद करो”, अंबा फट पड़ना चाहती थी
43 – मायावी अम्बा और शैतान : केवल डायन नहीं, तुम तो लड़ाकू डायन हो
42 – मायावी अम्बा और शैतान : भाई को वह मौत से बचा लाई, पर निराशावादी जीवन से…. 
41 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : अनुपयोगी, असहाय, ऐसी जिंदगी भी किस काम की?
40 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : खून से लथपथ ठोस बर्फीले गोले में तब्दील हो गई वह
39 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह कुछ और सोच पाता कि उसका भेजा उड़ गया
38- मायावी अम्बा और शैतान : वे तो मारने ही आए थे, बात करने नहीं

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