ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
“तुमने तो हमें डरा ही दिया था। क्या लगा था तुम्हें? इतनी रात को जोतसोमा के घने जंगलों में तुम कहाँ तक पहुँच पाती? ऐसी बेवकूफी तो कभी मैं भी नहीं करती।”
पटाला ने उसका सिर पकड़कर थोड़ा पीछे किया और टिंचर की मीठी दवा अंबा के हलक में उतार दी। उसके भीतर दर्द की लहर सी उठी और फिर शान्त हो गई। वह बुखार से काँप रही थी। घंटों बीत चुके थे। उसका शरीर काला सा हो गए था। पीठ पर तमाम जख्म थे। इस सबका असर था शायद कि कुछ पलों के लिए वह अचेत सी हो गई। किसी ऐसे जंगल के ख्वाब में डूब गई, जहाँ की मखमली जमीन उसकी जख्मी त्वचा को राहत पहुँचा सके।
जंगल में हवा बहुत तीखी थी। नश्तर की तरह चुभ रही थी। हवा की हर छुअन उसके जख्मों पर मानो नमक छिड़क रही थी। इससे उसके जख्मों में जलन होने लगती। दर्द बढ़ जाता तो वह कराह उठती। इस तकलीफ से गुजरते हुए आखिर उसने अपनी आँखें बंद कर लीं।
लेकिन तभी हल्की आहट से उसकी आँखें खुलीं तो उसने एक करामात देखी। जलता दीपक लिए सामने पटाला थी। जैसे ही वह नजदीक आई, उसका चेहरा रोशनी से चमक उठा। उसने मोम से सीलबंद एक छोटा जार लिया। उसके भीतर भरे द्रव्य को अँगुलियों से छुआ और धीमे स्वर में कुछ बुदबुदाते हुए अंबा के चेहरे पर उसे मल दिया। इससे अंबा को थोड़ी देर के लिए त्वचा में खुजली और झनझनाहट महसूस हुई। इसके बाद जब उसने गाल पर अँगुलियाँ फेरीं तो त्वचा पहले की तरह चिकनी महसूस हुई। जख्म गायब हो गए थे।
“अभी जब तुमने मेरी त्वचा को ठीक किया, तो धीरे-धीरे क्या बुदबुदाया था?”
“ज्ञान के दो शब्द थे वे।”
“क्या तुम मुझे सिखाओगी?”
“ऐसा ज्ञान उपहार में मिलता है। उसे सिखाया नहीं जा सकता। उसे या तो तुम खुद हासिल करते हो या नहीं।”
अंबा की निगाहें उसके हाथों पर जमी थीं। धीरे-धीरे उसे राहत महसूस होती जाती थी। आँखों से भी साफ दिखने लगा था। हालाँकि पटाला ने जब उसके हाथों और पैरों पर अँगुलियाँ फेरीं, तब वहाँ उसे दर्द महसूस हुआ। लेकिन पटाला का स्पर्श नाजुक था। उसे एहसास था कि वह त्वचा को छू रही है, किसी चमड़े को नहीं।
“जरा सी मात्रा ज्यादा हो जाए, तो दवा जहर बन जाती है। सही मात्रा की समझ पहली कुंजी है।” पटाला ने समझाया। हवा में गंधक, फॉस्फोरस और बिना बुझे चूने की गंध भर गई थी। अंबा की कोशिश थी कि वह उसकी घुटन से किसी तरह बची रहे। तभी पटाला ने कुछ अनजाने तत्त्वों से बनी मीठी शराब अपने मुँह में उड़ेल ली। उसके हलक से नीचे जाते ही उसे ऐसा जोर का झटका लगा कि वह एकदम चैतन्य हो गई।
“लो, थोड़ी तुम भी।”
अंबा घबराकर थोड़ा पीछे हो गई।
“डरो मत। थोड़ी गले से नीचे उतारकर देखो। मैंने भी तो ली है अभी।”
“मैं तुम्हारी तरह नहीं हूँ। डायन नहीं हूँ मैं।” अंबा ने कहा।
“तो मैं भी कौन सी डायन हूँ!”
ऐसा कहते हुए पटाला ने जोर का ठहाका लगाया। इससे वहाँ मौजूद परिंदे चौंक कर पंख फड़फड़ाने लगे।
“कैसी डरपोक डायन हो तुम – और ऊपर से खुद को लड़ाका भी मानती हो – क्या मजाक है!” पटाला ने फिर ताना मारा, “अपने भीतर की डायन को स्वीकार करो।”
“तुम मानो, कि तुम डायन हो।”
अंबा गुस्से से तमतमा गई।
“माना कि संसार में तरह-तरह की ताकतें हैं, पर वे मेरे माथे ही क्यों पड़ें? उन्हें खोजने की जिम्मेदारी मेरे जैसा कोई इंसान ही क्यों उठाए?”
“तुम क्यों नहीं? मुझे बताओ – तुम क्यों नहीं? अरे, ये तुम्हें मिला उपहार है। तुम्हें इसे स्वीकार करना ही होगा। नहीं तो यह बेकार बरबाद हो जाएगा। या फिर और बुरा हुआ तो काबू से बाहर होकर जानलेवा अभिशाप बन जाएगा। तुम न, शक बहुत करती हो। अभी यह सबसे बड़ा अभिशाप है तुम्हारे लिए।”
“समझो, ये उपहार है। इसे सिखाया-पढ़ाया नहीं जा सकता। इसे आप खुद हासिल करते हैं। या नहीं करते हैं।”
अंबा अब सोचने लगी। उसे तुरंत ही याद आया कि जब भी वह किसी चीज को छूती थी तो उसके सिर में कैसी मधुमक्खी जैसी भिनभिनाहट होती थी। क्या यही वह चमत्कारिक ज्ञान है, जिसने उसे शुरू से अब तक जीवन में रास्ता दिखाया था? और अभी जिसकी बात पटाला कर रही है?
अंबा ने अपने हाथों की ओर देखा।
“अगर तुम्हारे पास वह ज्ञान है, तो उसका अभ्यास करो। या फिर मत करो और उसे गँवा दो। कोई जल्दबाजी नहीं है। इस तरह के अपने उपहार को स्वीकार करना, एक नई चेतना से जुड़ने जैसा है। उसके साथ शरीर को तालमेल बिठाने में समय लगता है।” पटाला कह रही थी।
अंबा ने एक गहरी साँस ली और उस मेज पर जा बैठी, जिस पर बैठकर पटाला अपनी बनाई औषधियों के नियम-नुस्खे एक पुस्तिका में लिखती जाती थी। वह उसे गौर से देखने लगी। पटाला बीच-बीच में कभी खुद पर झुँझला जाती कि उसने अनुभवजन्य नुस्खों का आपस में घालमेल कैसे कर दिया! इसी दौरान उसने बैगनी रंग की कलियों को उनके तनों के साथ तोड़कर उन्हें अपनी दोनों हथेलियों के बीच मसल दिया। उन कलियों के तनों पर छोटे-छोटे काँटे भी थे, जो उसकी हथेलियों में चुभ गए। खून निकल आया। लेकिन उसने इस पर ध्यान नहीं दिया। कलियों का रस उसके खून से मिल गया। पटाला ने अपनी उन दागदार हथेलियों को खोलकर एक बार देखा और फिर उन्हें बंद कर लिया। अब उसकी आँखें भी बंद हो गईं। साथ ही, वह हथेलियों को बार-बार खोलने और बंद करने लगी। और फिर एक बार जब उसने हथेलियाँ खोलीं, तो उनसे खून गायब था।
“मैं यह सब नहीं कर सकती। मैं कुछ भी नहीं जानती।” अंबा ने कहा।
“अरे, जादू-टोना कोई दुष्ट आत्मा या शैतान को बुलाना थोड़े ही है! यह ओक के पौधे को लाल लीची में बदल देना भी नहीं है… या किसी मुरझाए फूल को फिर जीवित कर देना… या बिना मौसम के ही चेरी को खिला देना… या आग का रंग हरा कर देना… ऐसा कुछ नहीं है। हाँ, लेकिन तुम्हारा जादू-टोना, तुम्हारी ताकतें तुम्हारा अपना मसला हैं। उसे कब, कहाँ, कैसे काम में लेना है, यह तुम्हें ही देखना होता है।” पटाला ने कहा।
#MayaviAmbaAurShaitan
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ
48 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : डायनें भी मरा करती हैं, पता है तुम्हें
47 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह खुद अपना अंत देख सकेगी… और मैं भी!
46 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसने बंदरों के लिए खासी रकम दी थी, सबसे ज्यादा
45 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : हाय हैंडसम, सुना है तू मुझे ढूँढ रहा था!
44 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : “मुझे डायन कहना बंद करो”, अंबा फट पड़ना चाहती थी
43 – मायावी अम्बा और शैतान : केवल डायन नहीं, तुम तो लड़ाकू डायन हो
42 – मायावी अम्बा और शैतान : भाई को वह मौत से बचा लाई, पर निराशावादी जीवन से….
41 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : अनुपयोगी, असहाय, ऐसी जिंदगी भी किस काम की?
40 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : खून से लथपथ ठोस बर्फीले गोले में तब्दील हो गई वह
39 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह कुछ और सोच पाता कि उसका भेजा उड़ गया