ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
अचानक बिना किसी पूर्व चेतावनी के पटाला ने अंबा के चेहरे पर पीले पराग कण छिड़क दिए। ये पराग कण इतने शक्तिशाली थे कि जहाँ भी गिरे, वहाँ फूल खिल गए। पराग कणों के चेहरे पर पड़ते ही अंबा के कानों में ऐसी गूँज सुनाई देने लगी, मानो भँवरे भनभना रहे हों। जैसे कि सिर में हजारों मधुमक्खियों ने छत्ता बना लिया हो। उसकी छाती में दर्द होने लगा तो उसने उस जगह की खोखली और सख्त हडि्डयों को हाथों से दबाया ताकि कुछ राहत मिले। इसी बीच, जैसे ही उसने एक जड़ी बूटी को हाथ से पकड़ा तो उसे अपने भीतर अलग ही किस्म का एहसास होने लगा। जैसे किसी अलौकिक चीज से नया तालमेल बैठ रहा हो।
शुरू में उसने अपनी आँखों में कई रंगों के प्रति संवेदनशीलता को महसूस किया। वह अब गर्म हवा को ऊपर उठते देख सकती थी। उसे बादलों में बिखरते हुए देख सकती थी। धरती पर खिंची हुई चुंबकीय रेखाओं और उनके बल का भी उसे अंदाजा हुआ था।
उसकी गहरी काली पुतलियों पर पड़ रही रोशनी इतनी सटीक थी कि वह बेहद स्पष्टता से सब देख पा रही थी। जबकि सामान्य दृष्टि से धुँधले रूप में भी यह देख पाना संभव नहीं था। यह देखकर वह अभिभूत थी। उसके भीतर की पारलौकिक शक्तियाँ भी सब देख रही थीं। रंग भरने वाली किताब में तीव्र उत्सुकता के साथ तरह-तरह के रंग भरकर खुश हो रहे किसी जिज्ञासु बच्चे की तरह।
अलबत्ता, कुछ ही देर में अंबा को महसूस हुआ जैसे उसकी वह अंतर्दृष्टि अचानक कहीं लुप्त हो गई। यह वैसा ही था, जैसे किसी ने उससे उसका सब छीन लिया हो। उसने सब गँवा दिया हो। उसका जी घबराने लगा। शरीर में कुछ चिपचिपाहट सी महसूस होने लगी। ज़ुबान मोटी हो गई।
वह एकदम खाली हो गई थी।
हर तरफ रिक्तता ने घेर लिया था उसे।
“इस आंतरिक ज्ञान को प्राप्त करने के लिए तुम्हें मेहनत करनी होगी। नहीं तो यह ऐसे ही विलुप्त हो जाएगा। उसी तरह जैसे किसी उपहार को ग्रहण न किया जाए, उसका सम्मान न किया जाए, तो वह नष्ट हो जाता है।” पटाला की इस नसीहत ने अंबा की तंद्रा तोड़ी। उसने कहा, “दैवीय और राक्षसी शक्तियों के बारे में तुम्हें पता चलेगा। माँ कहा करती थी कि यह तुम्हारे ऊपर होता है कि तुम किसे चुनते हो। अच्छे या बुरे को। दैवीय या राक्षसी शक्ति को। किससे बात करना पसंद करते हो। मैंने आत्माओं की दुनिया के बारे में बहुत कुछ खुद से ही सीखा है। मेरी माँ जितना चाहती थी, उससे भी अधिक। पारलौकिक शक्तियों में कुछ वाकई बहुत अच्छी होती हैं, लेकिन कोई-कोई बहुत दुष्ट भी।”
पटाला और अंबा की माताएँ, पहले इस इलाके की जानी-मानी ओझा होती थीं। होरी के निवासियों की विश्वस्त और मुख्य चिकित्सक। उनका ज्ञान अद्भुत था। जिन बीमारियों को लाइलाज बताकर मरीजों को लौटा दिया जाता था, वे उनका भी शर्तिया इलाज कर देती थीं। मर्ज कैसा भी हो – शरीर का कोई गहरा जख्म, फोड़े-फुंसी, हड्डियों के टूटने या दिमागी अस्थिरता का – ये महिला ओझा सब ठीक कर देती थीं। हाँ, थोड़ा समय जरूर लगता था और इलाज की प्रक्रिया मे कष्ट भी होता था। लेकिन ठीक होने की गारंटी थी।
“मैं भी पहले कुछ नहीं जानती थी।” पटाला ने बताया, “जैसे अग्नि के बारे में इतना पता था कि वह जलाता है, रोशनी देता है। लेकिन मेरी माँ ने बड़े धैर्य के साथ मुझे इससे जुड़े सभी पहलुओं के बारे में बताया, सिखाया। उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने समझाया कि आग कैसे-कैसे पैदा की जा सकती है। उसका उपयोग कहाँ, कैसे किया जा सकता है। कैसे कई बार बिना रोशनी के तपिश पैदा की जा सकती है। ऐसे ही बिना तपिश के रोशनी भी। कैसे आग किसी भी चीज का स्वरूप और रंग बदल सकती है। किसी को पिघला सकती है तो कुछ को ठोस रूप में बदल देती है। कैसे वह हर चीज को खा सकती है, भस्म कर सकती है। उन्हें राख और धुएँ में बदल सकती है। और इस प्रक्रिया के अन्त में उन्होंने मुझे सिखाया कि कैसे इसी राख को काँच में बदला जा सकता है। मुझे राख को काँच में बदलने की प्रक्रिया उतनी ही अद्भुत और आकर्षक लगी, जितनी प्रकृति में होने वाले अन्य बदलाव लगते हैं।” यह सब बताते हुए उसके चेहरे पर भी खुशी दिखती थी।
हालाँकि अपनी माँ के बारे में सोचकर पटाला थोड़ी देर के लिए उदास हो गई। तब लगा जैसे आगे वह कुछ नहीं बोल पाएगी। लेकिन उसने जल्द ही खुद को सँभाल लिया। अब वह पहले से अधिक दृढ़ता से बताने लगी।
“अग्नि के बाद उन्होंने मुझे विशेष तौर पर पृथ्वी के बारे में बताया। बताया कि किस तरह पृथ्वी का दूसरे ग्रहों के साथ तालमेल रहता है। खासकर चंद्रमा के साथ। चंद्रमा की बदलती स्थितियाँ किस तरह पृथ्वी पर मौजूद हवा-पानी में बदलाव लाती हैं। समुद्र में ज्वार-भाटा, आदि का कारण बनती हैं। बताया कि पृथ्वी पर पानी और हवा का प्रवाह पूरब से पश्चिम की ओर होता है। उन्होंने दिखाया कि किस तरह पृथ्वी पर पर्वत, समुद्र, झरने और नदियाँ प्राकृतिक रूप से बने। कैसे खदानों में विभिन्न धातुएँ पैदा हुईं। कैसे धरती पर विभिन्न वनस्पतियाँ स्वाभविक रूप से उग आईं। किस तरह पृथ्वी की अन्य तमाम संरचनाओं ने ऐसे ही खुद-ब-खुद आकार लिया। फिर आकाश, ग्रह-नक्षत्रों आदि के बारे में भी उन्होंने ऐसे ही विस्तार से बताया। बहुत सारी अन्य खोजों के बारे में बताया। वह कितना कुछ जानती थीं! वह बहुत कुछ और भी बतातीं मुझे, लेकिन ——”
पटाला कुछ देर ठहरी तो अंबा अपनी उत्सुकता को रोक नहीं सकी। वह पूछ बैठी, “क्या हुआ था उन्हें?”
#MayaviAmbaAurShaitan
—-
(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
—-
पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ
49 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मात्रा ज्यादा हो जाए, तो दवा जहर बन जाती है
48 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : डायनें भी मरा करती हैं, पता है तुम्हें
47 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह खुद अपना अंत देख सकेगी… और मैं भी!
46 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसने बंदरों के लिए खासी रकम दी थी, सबसे ज्यादा
45 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : हाय हैंडसम, सुना है तू मुझे ढूँढ रहा था!
44 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : “मुझे डायन कहना बंद करो”, अंबा फट पड़ना चाहती थी
43 – मायावी अम्बा और शैतान : केवल डायन नहीं, तुम तो लड़ाकू डायन हो
42 – मायावी अम्बा और शैतान : भाई को वह मौत से बचा लाई, पर निराशावादी जीवन से….
41 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : अनुपयोगी, असहाय, ऐसी जिंदगी भी किस काम की?
40 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : खून से लथपथ ठोस बर्फीले गोले में तब्दील हो गई वह