अनुज राज पाठक, दिल्ली
हाल में हुए ‘पर्यावरण दिवस’ पर जोर-शोर से ‘पेड़ लगाओ अभियान’ चला। सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर भी। लेकिन मुझे समझ नहीं आया कि इतनी भीषण गर्मी में जब इंसान का जीना ही कठिन है, तब 5 जून को पेड़ लगाने का औचित्य क्या है? और इस तरह सोचने वाला मैं अकेला नहीं हूँ।
मेरे कई मित्रों के दिमाग में भी ऐसा ही सवाल आया। उनमें से एक ने कहा भी, “जब हमारे पास इतने सारे अपने दिवस हैं तो ‘पर्यावरण दिवस’ पश्चिम की तर्ज पर जून में क्यों मनाना? पश्चिम में जून महीने का मौसम पौधारोपण के अनुकूल होता होगा। लेकिन हमारे यहाँ तो इसके लिए जुलाई, अगस्त अधिक अनुकूल होते हैं।”
सच ही है। हमारे यहाँ प्राय: बारिश जुलाई, अगस्त के महीनों में ही होती है। तो हम ‘पर्यावरण दिवस’ जुलाई में क्यों न मनाएँ? क्योंकि ऐसे अवसरों पर पौधे लगाना भर पर्याप्त नहीं है। पौधों की सुरक्षा, उनकी बढ़त, उनका स्थायित्व भी सुनिश्चित होना चाहिए। पौधे लगाने के बाद वे बच ही न पाएँ, तो लगाने का क्या लाभ?
जबकि अभी यही होता है। सरकारी, गैर-सरकारी स्तर पर ‘पर्यावरण दिवस’ के दिन भारी मात्रा में किया गया पौधारोपण अधिकांशत: निरर्थक सिद्ध होता है। इस अवसर पर लगाए जाने वाले पौधे भी ‘सजावटी’ अधिक होते हैं। यह भी पश्चिम की ही नकल है। क्योंकि हमारे यहाँ तो नीम, पीपल, वट आदि के वृक्षों का रोपण अधिक अच्छा और उपयोगी माना गया है। पौधारोपण कार्यक्रमों में इन्हें वरीयता मिलनी चाहिए लेकिन नहीं दी जाती।
इसके बावजूद कि इन प्रजातियों के पौधों का रोपण करने पर न्यूनतम देखभाल में भी ये वृक्ष के रूप विकसित हो जाते हैं। साथ ही पर्यावरण के लिए तुलनात्मक रूप से अधिक लाभकारी भी सिद्ध होते हैं। जबकि अभी ‘पर्यावरण दिवस’ मनाने से लेकर पौधे लगाने तक की पूरी कवायद दिखावटी, बनावटी ही होती है।
ऐसे में, मेरा मानना है कि अगर हमें सच में पर्यावरण की चिन्ता है और अगली पीढ़ी के लिए कुछ बेहतर छोड़ जाने की मंशा है, तो हमें ऐसे कार्यों को निश्चित परिणाम प्राप्त करने के लक्ष्य से करना चाहिए। अन्यथा निरर्थक प्रयासों का कोई मतलब नहीं है। सोचिए, अगर कोई मतलब होता तो भला हम अब तक पर्यावरण से जुड़ी इतनी भीषण समस्याओं का सामना क्यों कर रहे होते? ‘पर्यावरण दिवस’ तो हम दशकों से मना रहे हैं, अब तक उससे सम्बन्धित प्रयासों का कोई बेहतर नतीजा दिखाई देने लगता न? या कम से उसकी झलक ही मिल जाती?
लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। बल्कि होता तो ये है कि ‘पर्यावरण दिवस’ जैसे अवसरों पर हम हर साल जो पौधे लगाते हैं, वे कुछ ही दिनों सूख जाते हैं। और आने वाले वर्ष के लिए खाली जगह छोड़ देते हैं। तो क्या हमें अन्धानुकरण के बजाय तार्किक बुद्धि से दिवस मनाने का निर्णय नहीं लेना चाहिए? तकि अपेक्षित परिणाम मिलें?
सोचिएगा!
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)