Mayavi Amba-54

‘मायावी अम्बा और शैतान’ : जिनसे तू बचकर भागी है, वे यहाँ भी पहुँच गए है

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

वह घनी अँधेरी रात थी। इतनी अँधेरी कि साधारण आदमी तो एक-दूसरे को देख भी न सके। चलते वक्त एक-दूसरे से टकरा जाए। ऐसे माहौल में पटाला पिछली तीन रातों से अपने तलघर से बाहर नहीं आई थी। उसका वफादार साथी डोमोवई पूरी निष्ठा के साथ बाहर अपनी मालकिन की रखवाली कर रहा था। लेकिन दूसरी तरफ भोजन-पानी तेजी से कम भी हो रहा था। इसलिए, मजबूरन पटाला को ताजा माँस लाने के लिए डोमोवई और उसके साथी कुत्तों के साथ शिकार पर निकलना पड़ा। उनके जाते ही वहाँ भयानक सन्नाटा पसर गया।

उस काली अँधेरी रात में पसरे भयंकर सन्नाटे को अंबा अपने पोर-पोर में महसूस कर रही थी। किसी अनिष्ट की आशंका से वह सिहर उठी थी। डर की ठंडी लहर उसके दिल पर हावी हो गई थी। उसके शरीर के नीले होते जख्म मानो फिर हरे होने लगे। उन जख्मों से उठे दर्द को भी वह फिर महसूस करने लगी थी। किसी अनजान खतरे की पदचाप उसे चारों ओर से सुनाई देती थी। किसी को भी तोड़ देने वाली भावनात्मक शून्यता गोंद की तरह उस पर आकर चिपक गई थी। ऐसे हालात में जब-जब भी उसकी आँख लगती, तो हमेशा की तरह आने वाले बुरे सपने भी उसके साथ नहीं होते। शायद उस रात दु:स्वप्न भी उसके पास से गुजर गए थे, या उस रात वह उनके नक्शे से बाहर थी, या फिर वे अब उसकी हकीकत का हिस्सा बनने वाले थे।

आधी रात को वह अचानक हड़बड़ाकर उठ बैठी। उसकी साँसें जोर से ऊपर-नीचे हो रही थीं। वह शायद इसी वजह से उठी थी या फिर दूर किसी पक्षी की हिंसक चीत्कार सुनकर, उसे याद नहीं था। अलबत्ता, उस अनजान पक्षी की चीत्कार अब भी सुनाई देती थी। ऐसा लगता था मानो वह किसी से बदला लेने को आतुर हो। अंबा के कमरे के खिड़की खुली थी, जिससे होकर घना कोहरा उसके कमरे में घुस आया था। बाहर बूँदाबाँदी शुरू हो गई थी। लिहाजा उसने खिड़की बंद करने की कोशिश की, लेकिन उसके पल्ले फँस गए। चंद मिनटों में ही बारिश ने भयंकर रूप ले लिया। इतना भयानक कि हवा भी बूँदों के साथ मिलकर धुंध बन गई। ऐसे में, उसे अपने कदम पीछे खींचने को मजबूर होना पड़ा।

अभी वह इन हालात से दो-चार ही थी कि उसे तलघर की तरफ से अजीब सी आवाजें सुनाई दी। किसी गड़बड़ी की आशंका में वह तेजी से तहखाने की ओर लपकी। तहखाने की छत पर पुरानी विशालकाय लोहे की चिमनी पहले जैसी ही किसी दानव की तरह सीधी खड़ी थी। उसके दोनों ओर उतने ही विशालकाय झरोखों की छायाएँ नीचे बड़ी भारी भट्‌टी तक पसरी हुई थीं। भट्‌टी की लकड़ियों में आग अब भी जल रही थी। खाना पकाने के लिए बड़े-बड़े लोहे बरतन भी वहाँ रखे थे। लेकिन अंबा की यह जानने में कतई दिलचस्पी नहीं थी कि उन बरतनों में क्या पकाया गया है। वह जैसे-जैसे नीचे उतरती गई, भट्‌टी से उठने वाली राख और कोयले के कण उसके चेहरे, बालों तथा आँखों से टकराने लगे। पूरे माहौल में जलने की बू और खारेपन की गंध फैली हुई थी। मगर वह सधे हुए कदमों से आगे बढ़ती रही।

अचानक उसे किसी सुराख में से सरसराहट की आवाज सुनाई दी। ऐसा लगा जैसे कोई छोटा जीव एक से दूसरी तरफ भागा हो। लिहाजा उसने थोड़ी देर ठिठककर अंदाज करने की कोशिश कि कहाँ से कौन सा जीव निकलकर भागा है। लेकिन उसके हाथ कुछ नहीं लगा तो वह आगे बढ़ चली। तहखाने में इतनी नमी थी कि गरमी के दिनों में भी वहाँ हमेशा मशालें जलाकर रखी जाती थीँ। मगर बीते कुछ दिनों से, न जाने क्यों, पटाला ने मशालें जलाई नहीं थीं। इसीलिए वे दीवारों के पत्थरों की तरह ठंडी हो चुकी थीं।

अंबा को अब तक कुछ हाथ नहीं लगा था। सो वह वहाँ से लौटने लगी। लेकिन जैसे ही पलटी उसे पीछे से एक दबी सी आवाज फिर सुनाई दी। फिर कपड़ों की सरसराहट और दबे पाँव किसी के चलने की आहट।

“कौन? कौन है वहाँ?”

अंबा ने अपनी पिस्तौल निकाल कर कड़क आवाज में पूछा। लेकिन तुरंत ही उसे लगा कि वह भी क्या बेवकूफ है, भला कोई जानवर भी क्या जवाब देगा! इस उत्तेजना में उसे यह एहसास तक नहीं हुआ कि भीतर की नमी और चिपचिपाहट भरे माहौल के कारण उसकी अँगुलियाँ सूजती जा रही हैं। वे मोटी होकर आपस में चिपक रही हैं। इसी बीच, जैसे ही वह मुड़ी उसका पैर काई से भरे पत्थर पर पड़ा और वह फिसल गई। धड़ाम से नीचे गिर गई। एक हाथ से उसने खुद को सँभालने की कोशिश की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उसकी कलाई पर घाव हो गया। वह दर्द से वह कराह उठी।

उसने खँखारकर गला साफ करने की कोशिश की। साँसों को संयत करने का प्रयास किया। उसकी दोनों बगलों में तेज और असहनीय दर्द उठ आया था। दूसरे हाथ से छूकर देखा तो कलाई पर गहरा घाव होने का एहसास हुआ, जिससे खून बहने लगा था। वह अभी इस दर्द से उबर भी नहीं पाई थी कि उसने फिर वही रहस्यमयी आवाज सुनी। वही सरसराहट, वैसे ही दबे पाँव चलने की आवाज। साथ में धीरे से कुछ बजाए जाने की आवाज भी। मानो कोई उसे कुछ संकेत दे रहा हो। अंबा के लिए जब इन आवाजों का अनसुलझा रहस्य बर्दाश्त से बाहर हो गया, तो उसने खुद उसकी तह तक जाने का फैसला किया। अपना दर्द भूलकर वह अँधेरे में आँखें फाड़कर हाथों से टोह लेती हुई आगे बढ़ने लगी।
अभी वह कुछ कदम ही आगे बढ़ी थी कि एक परछाई अचानक अँधेरे से निकलकर उसके सामने आ गई। उससे बचने के लिए वह कुछ पीछे हटी लेकिन उस परछाई ने उसका हाथ पकड़ लिया। अंबा के गले से घुटी हुई चीख निकल गई। लेकिन जल्द ही सच्चाई उसके सामने थी। वह पटाला थी।

“जल्दी से मेरे पीछे आ जा। वक्त नहीं है बिलकुल भी! जल्दी कर लड़की!”

पटाला ने इतनी धीरे से फुसफुसाकर कहा कि उसकी बात सुनने के लिए अंबा को अपनी श्रवणशक्ति का पूरा जोर लगा देना पड़ा। पर वह सवाल करने से खुद को रोक नहीं सकी।

“क्यों? यहाँ मुझे किससे छिपना है?”

“वे यहाँ तक आ गए हैं। जिससे तू बचकर भागी थी न, वे यहाँ आ पहुँच चुके है। लेकिन तू चिंता मत कर। मैं तुझे छिपने की ऐसी जगह बताऊँगी कि कोई भी तुझे ढूँढ नहीं पाएगा —”

अंबा को आगे कुछ और बताने की जरूरत नहीं थी। वह चुपचाप पटाला के पीछे-पीछे चल दी। तेज कदमों से आगे बढ़ते हुए वे दोनों जल्दी ही एक गंदगी से भरी लेकिन विचित्र सी मायावी दुनिया में पहुँच गईं। यह एक गोपनीय ठिकाना था, जिसे सूख चुकी विशालकाय व्हेल मछली के शरीर के भीतरी हिस्से में बनाया गया था। लोहे की चादरों, लकड़ी, टाइल्स, एसबेस्टस आदि के जरिए। वहाँ नीचे का फर्श पूरी तरह टूट चुका था। टूटी और उखड़ी हुई टाइलों के बीच-बीच से लकड़ी के टुकड़े ऐसे झाँकते थे, जैसे कब्रिस्तान में गड़े हुए क्रॉस के निशान हों। दीवारों से चिपचिपा पदार्थ टपक रहा था, मानो कीचड़ गिर रहा हो। लेकिन यह सब अनदेखा कर वे दोनों आगे बढ़ती जाती थीं। हालाँकि अंबा को ये अंदाजा लगाने में कुछ देर लगी कि वे आगे बढ़ रही हैं या नीचे जा रही हैं। बहरहाल, आगे बढ़ते हुए उसने देखा कि उस ठिकाने की दीवारें सड़ चुकी हैं। जगह-जगह उनमें गड्‌ढे जैसे बन गए हैं। वे ऐसे दिखते हैं, जैसे सदियों पहले मर चुके लोगों के चेहरे हों और अपनी-अपनी कहानी कह रहे हों। खुरदुरी, उखड़ी दीवारों पर और भी कई आकृतियाँ अपना आभास देती थीँ। कुछ तो घाटियों, पहाड़ों, नदियों से भरे मानचित्र जैसी दिखती थीं। स्पष्ट था कि ये दीवारें लंबे समय तक सीधी खड़ी नहीं रह सकतीं। 

#MayaviAmbaAurShaitan
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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ 

53 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : तुम कोई भगवान नहीं हो, जो…
52 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मात्रा, ज़हर को औषधि, औषधि को ज़हर बना देती है
51 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : न जाने यह उपहार उससे क्या कीमत वसूलने वाला है!
50 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसे लगा, जैसे किसी ने उससे सब छीन लिया हो
49 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मात्रा ज्यादा हो जाए, तो दवा जहर बन जाती है
48 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : डायनें भी मरा करती हैं, पता है तुम्हें
47 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह खुद अपना अंत देख सकेगी… और मैं भी!
46 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसने बंदरों के लिए खासी रकम दी थी, सबसे ज्यादा
45 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : हाय हैंडसम, सुना है तू मुझे ढूँढ रहा था!
44 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : “मुझे डायन कहना बंद करो”, अंबा फट पड़ना चाहती थी

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