ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
“तुम मेरे साथ यहाँ क्यों नहीं छिप सकती? यहाँ हम दोनों सुरक्षित रह सकते हैं।” पटाला उसे उस गोपनीय जगह पर छोड़कर जाने लगी तो अंबा ने पूछा।
“मैं कहाँ भागूँगी? और क्यों? वे मुझे कभी नहीं मार सकते। उनको पता चलने दो, मेरे भीतर क्या है। पता चल ही जाने दो उन्हें।”
उसकी आवाज बुझी हुई थी। जुबान लड़खड़ा रही थी। बोलने का अंदाज नीरस था। वह अपने जीवन पर छा चुकी गहरी धुंध को महसूस कर पा रही थी। शायद इसीलिए उसने अंबा की प्रतिक्रिया को भी अनसुना कर दिया और अगले ही क्षण बाहर से दरवाजा बंद कर वहाँ से निकल गई। अंबा के शब्द वहीं हवा में गुम हो गए। वहाँ गहन अंधकार था। जगह बेहद सीमित थी। इसलिए अंबा को करीब-करीब रेंगते हुए चलना पड़ रहा था। भीतर की हवा में फैली अजीब सी गंध बता रही थी कि वह जगह बहुत समय से उजाड़, वीरान पड़ी थी। गंध लगातार बढ़ती जा रही थी। भीतर की नमी के कारण लकड़ियाँ फूल चुकी थीं। उन्हें इधर से उधर करना भी मुश्किल था। फिर भी उसने पूरा जोर लगाकर दरवाजे में वह जगह ढूँढ निकाली जहाँ ताला खोलने के लिए चाबी लगाई जाती थी। उस छेद को उसने एक दूसरी लकड़ी डालकर किसी तरह साफ किया और उसमें से झाँककर बाहर का जाइजा लेने की कोशिश की। बाहर का नजारा बेहद डरावना था। इतना डरावना कि उसने तुरंत उस गोपनीय जगह से बाहर निकलने का इरादा छोड़ दिया। वह बेहद डरी हुई थी।
उन लोगों ने बहुत तेजी से हमला किया था।
इतनी तीव्रता और सटीकता से कि मानो बिजली कौंधी हो।
पलक झपकते ही कई संगीनें पटाला की छाती के पार हो गईं।
नहीं…… नहीं……
अंबा ने मुँह पर हाथ रखकर बड़ी मुश्किल से अपनी चीख को दबाया। बाहर का दृश्य देखकर उसका सिर घूम गया। आँखों से गरम आँसुओं का सैलाब बह चला। पटाला का विलाप बेहद डरावना था और असहनीय भी।
यह नहीं होना था –
लेकिन उसके हताशा भरे विचारों से सच्चाई नहीं बदलने वाली थी। उसके देखते-देखते ही उसे एक और झटका लगा। पटाला तेज आवाज के साथ जमीन पर गिर गई। यह देख अंबा को अपनी एक और चीख मुँह के भीतर ही घोंट देनी पड़ी। फर्श पर फिसलकर गिरते समय पटाला के मुँह से आखिरी बार भद्दी सी आवाज निकली और फिर वह हमेशा के लिए शांत हो गई। अब वह बेसुध, बेतरतीब, अस्त-व्यस्त पड़ी थी। इधर अंबा के नथुनों में विचित्र सी गंध फिर समा गई। लेकिन वह तो अभी चाकुओं के उन हमलों को याद कर-कर के सिसक रही थी, जो पटाला के शरीर पर हुए थे। उसकी सिसकियाँ धीरे-धीरे तेज होने लगीं। खुलकर बाहर आने लगीं। वह फिर से अपने खून में बार-बार उतार-चढ़ाव महसूस करने लगी।
ऐसे ही कुछ वक्त बीता। इसके बाद अंबा जब उस गोपनीय ठिकाने से बाहर निकली, तब तक दिन काफी चढ़ चुका था। उसका मुँह कसैला हो गया था। वह खुद को कोस रही थी कि उसने समय रहते सतर्कता क्यों नहीं बरती। बाहर आकर उसने देखा कि घर में काफी तोड़-फोड़ हुई है। भारी लूटपाट मचाई गई है। वे लोग जो कुछ लेकर नहीं जा सके, उसे उन्होंने तहस-नहस कर दिया था। वे जगह-जगह पेशाब कर गए थे। दीवारों पर उसके निशान अब तक बने थे, बू आ रही थी। ताजा हिंसा की गंध भी अब तक कायम थी।
यह देखकर तूफान की गर्जना जैसा एक अजीब और रहस्यमयी विलाप पूरे वातावरण में गूँज गया। ऐसा लगा जैसे कि वह विलाम पूरे ब्रह्मांड को अपने में समेट लेना चाहता हो। इस समय धीरज उसका साथ छोड़ रहा था। अंबा चेतनाशून्य सी हो रही थी कि तभी वह एक शरीर से टकराकर लड़खड़ा गई। वह पटाला का शव था, जिसे देखते ही वह उससे लिपट गई। गुस्से से भरा डोमोवई वहीं था। खूँख्वार तरीके से गुर्रा रहा था। अपने मुँह से बार-बार धक्का देकर मालकिन को उठाने की कोशिश कर रहा था। लेकिन पटाला तो पत्थर सी हो चुकी थी। डोमोवई की दर्दभरी गुर्राहट भी अंबा का सीना चीर रही थी। उसी वक्त उसने देखा कि डोमोवई की डरावनी आँखें भीतर की ओर धँस गईं हैं। उसने अपना सिर पीछे खींचा और आसमान की ओर मुँह करके जीभ निकालकर कर्कश आवाज की। उसकी प्रतिक्रियास्वरूप घने अँधेरे जंगल से वैसी ही एक अन्य आवाज सुनाई दी। इसके तुरंत बाद डोमोवई ने अपने विशाल जबड़ों में बहुत धीरे से लेकिन उतनी ही मजबूती से अपनी मालकिन को दबाकर उठा लिया और वहाँ से सरपट भाग निकला। पटाला को लेकर वह कहाँ गया, पता नहीं चला क्योंकि साथी जानवरों के साथ जंगल के अँधेरे में वह ऐसे गायब हुआ, जैसे कोई प्रेत हो।
पीछे कुछ देर तक अंबा ठगी सी खड़ी रही। तभी अचानक झाड़ियों में हुई हलचल ने उसे चौकन्ना कर दिया। उसने अंदाज लगाया कि जो भी आया है, वह बड़ी तेजी में आया है। ऐसे में उसके पास गँवाने के लिए समय बिलकुल नहीं था। उसके पीछ़े-पीछे उसे तलाशते हुए यहाँ तक आ पहुँचे लोग रुकने वाले नहीं थे। उसका समय बीत रहा था कि तभी उसे अंत समय में दिया गया पटाला का मशवरा याद आ गया। उसने उसे सचेत करते हुए तुरंत गाँव लौट जाने को कहा था। अंबा अब वही करने वाली थी।
आसमान में निकल आए चाँद ने अंबा के माथे में लगे घाव पर मानो चाँदनी का मरहम रख दिया था। पटाला का दिया हुआ ताबीज अब भी उसके गले में लटका था।
उसने उस ताबीज को थोड़ा सुधारकर लटकाया और अपनी खुशकिस्मती की दुआ करते हुए उसे हाथ में लेकर चूम लिया। उसका ढीला-ढाला जैकेट कंधों से उतर सा रहा था। कंधों पर पुरानी और भारी बंदूक भी नीचे तक लटकी थी। आगे बढ़ते हुए जब-जब अंबा के जूतों की एड़ी जमीन से टकराती तो बंदूक की बट (पिछला हिस्सा) भी नीचे टकरा जाती। लेकिन इस वक्त जंगल उसका मददगार हो गया था। इस जंगल का चप्पा-चप्पा उसका छाना हुआ था। इसी का फायदा उठाकर वह जल्दी ही हमलावरों की पहुँच से सुरक्षित दूरी पर निकल गई।
हालाँकि जिस दिशा में वह आगे बढ़ी, वहाँ कुछ दूरी पर ही एक पहाड़ी नदी ने उसका रास्ता रोक लिया। इस वक्त उसकी जो हालत थी, उसमें वह नदी पार कर इस दिशा में बहुत दूर तक नहीं जा सकती थी। इसलिए उसने दिशा बदल ली। जंगल के दूसरे रास्ते पर उसने अपना ध्यान केंद्रित किया। अलबत्ता, उस तरफ से भी आने वाली हवा की गंध बता रही थी कि जल्द ही भयंकर बर्फीला तूफान आने वाला है। उस हवा में उसे साँस लेने में भी मुश्किल हो रही थी। लेकिन वह आगे बढ़ती रही। यह पहाड़ी रास्ता इतना दुर्गम था कि रेजीमेंट की तमाम कोशिशों के बावजूद अब तक इस पर कोई भी स्थायी निर्माण मुमकिन नहीं हो पाया था। इस रास्ते के बड़े हिस्से में जमीन दलदली थी। बस, दोनों तरफ अभेद्य घने जंगल के बीच किसी गुफा के जैसा संकरा रास्ता था। वहीं से होकर गुजरना पड़ता था।
अंबा उसी रास्ते से होते हुए सफलतापूर्वक पहाड़ की चोटी पर जा पहुँची। लेकिन अभी उसने वहाँ पहुँचकर ठीक से साँस भी नहीं ली थी कि अचानक कोई चीज बड़ी तेजी से झन्नाटे के साथ उसके चेहरे के बहुत पास से गुजरी। इतने पास से कि अगर वह फुर्ती से पीछे नहीं हटती, तो निशाना बन जाती।
#MayaviAmbaAurShaitan
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ
54 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : जिनसे तू बचकर भागी है, वे यहाँ भी पहुँच गए है
53 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : तुम कोई भगवान नहीं हो, जो…
52 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मात्रा, ज़हर को औषधि, औषधि को ज़हर बना देती है
51 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : न जाने यह उपहार उससे क्या कीमत वसूलने वाला है!
50 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसे लगा, जैसे किसी ने उससे सब छीन लिया हो
49 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मात्रा ज्यादा हो जाए, तो दवा जहर बन जाती है
48 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : डायनें भी मरा करती हैं, पता है तुम्हें
47 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह खुद अपना अंत देख सकेगी… और मैं भी!
46 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसने बंदरों के लिए खासी रकम दी थी, सबसे ज्यादा
45 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : हाय हैंडसम, सुना है तू मुझे ढूँढ रहा था!