संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 18/12/2021
आसमान में एक लम्बी सफ़ेद धुएँ की लकीर रह गई है। मानो कोई बहुत तेजी से गुजरा हो अपने पीछे पूरा ग़ुबार छोड़कर। इस सबके साथ सफ़ेद बादलों का झुंड, घर लौटते पक्षियों के समूह जिनका रंग साफ़ नज़र नहीं आता। ऊँचे टॉवर, उनसे ऊँचे पेड़ और क्षितिज की तलाश में सूरज का पीछा करते जाना और अन्त में जहाँ से मैं देख रहा हूँ, डूब जाना। क्या यही हश्र रह गया है जीवन का?
एक लम्बी पगडंडी याद आती है जो इतने भीतर ले जाती थी कि फिर बाहर निकलना बहुत मुश्किल था। पर उस अन्दर के भाग में सब था। शान्ति, साफ़ दृष्टि, पावनता, और लम्बी उम्मीदें। साथ में था कलरव, रंग और अनन्त आकाश, जो पृथ्वी के हर कोने पर यूँ बिखर जाता, मानो जीवन के हर पल में साँसों का सफ़र।
बाहर कुछ नहीं था। आवाज़ें थीं। शोर और आँखों के पोर में धँस जाने वाली वो धूल, जो सब कुछ मिटा दे और जुम्बिश करते लोग, जो आपका मतिभ्रम कर दें। एक अनन्त ज्वार था, जो उछालें मारता था और जब भी शान्त होता, सब कुछ समेट कर अपने संग ले जाता था। इतना तोड़ देता था कि आँसू डपटने पर भी फटकते नहीं थे।
इस सबमें क्षण-क्षण लाशों के अम्बार बढ़ रहे हैं। हर पल एक ख़ौफ़ है, जो इतना सताता है कि लगता है मौत आगे से आकर अपने आग़ोश में जकड़ ले और संत्रास में रखे। हम ख़ुद ही समिधा बन जाएँ। समर्पित कर दें अपने आपको इस धधकते तांडव में और हर पल तारी रहने वाले डर को सदैव के लिए हरा दें।
सुख भले ही एक-एक कर क्षण भर के लिए आते हों पर विपत्तियों की कोई मिसाल नहीं। वे कुनबे को साथ लेकर जीवन में स्थाई निवास करने आती हैं। ध्वंस के साम्राज्य को स्थापित करके ही रहती हैं। खासकर उस समय, जब आप अति निर्बल होकर सब कुछ हारकर ऐसे चौराहे पर खड़े होते हैं, जहाँ हर रास्ता विनाश को जाता है। ठीक उसी जगह विपत्तियों का किसी विमान से उतरकर आपके संग साथ हो जाना आपको अधिक व्यग्र कर देता है।
कभी लगता है कि जीवन को हल्के में लें और कभी लगता है कि हर सांस जो अन्दर जा रही है, उसे इतना बुहार दें कि किसी कलुषता की संभावना ही न रहे। इसके बीच एक और रास्ता था जो अहर्निश था। उसे चुनकर भी अन्त में लगा कि शेष कुछ रहता नहीं है। अन्त में हम सब अकेले हैं और इस घनीभूत पीड़ा को महसूस करने के लिए जीवन से, अपनों से या परिवेश से जो अपेक्षा हम रखते हैं, वह कभी पूरी नही हो सकती। अपनी लड़ाई की हार जीत हमें ही स्वर्ण अक्षरों में लिखनी है।
गिलास में छूटी हुई शराब के आखिरी घूँट की तरह है ज़िन्दगी। इसको पीने से न नशा कम होगा और न बढ़ेगा। पर हम हैं कि जैसे सिगरेट के गोल्डन कश को होंठ जलने तक पीते हैं, ठीक वैसे ही उस घूँट को काँपते हाथों से उठाते हैं, मुंह से लगाते हैं और फिर गिलास फेंक देते हैं इस कसम के साथ कि अब कभी नशा नहीं करेंगे।
जीवन ना ही मिलता तो क्या हो जाता? यह सब भोगने से न होना बेहतर नहीं, यह निर्णय लेने के लिए एक लम्बा जीवन जीने की ज़रूरत नहीं किसी को। सिर्फ़ एक बार खुलकर हँसकर देखना ही सबक सिखा देगा कि मायूस त्रासदियों और मोम की लाशों के बीच सन्नाटा भंग करने की सज़ा क्या है।
मैं जीवन के न होने का पक्षधर हूँ और जो है उसे ख़त्म कर देने की पैरवी करने का हिमायती। लम्बित अनिर्णय भी एक मौत ही है।
क्या अब भी ज़िन्दा रहने के दुःस्वप्नों का ज़खीरा है हमारे पास?
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 40वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ ये रहीं :
39. हम सब बेहद तकलीफ में है ज़रूर, पर रास्ते खुल रहे हैं
38 जीवन इसी का नाम है, ख़तरों और सुरक्षित घेरे के बीच से निकलकर पार हो जाना
37. जीवन में हमें ग़लत साबित करने वाले बहुत मिलेंगे, पर हम हमेशा ग़लत नहीं होते
36 : ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं
35.: स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 : पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें!
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!