संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 4/12/2021
भीड़भरे शहरों में अक्सर रहा हूँ, जहाँ ट्रैफिक सिग्नल को देखते-समझते ही उम्र के दशक गुजरते जाते हैं। हम भीड़ में फँसे हों और सामने की गाड़ियाँ सरक रही हों, तो दस बार लाल-हरी बत्ती को देखते-देखते अधीरता भी ख़त्म होने लगती है। एक उकताहट सी होने लगती है। अन्त में जब हमारा नम्बर आता है तो अक्सर हमें लाल और हरे के बीच पीले वाले समय मे क्रॉस करना पड़ता है। जीवन इसी का नाम है, ख़तरों और सुरक्षित घेरे के बीच से निकलकर पार हो जाना।
यह सब दर्जनों बार होता है, बल्कि असंख्य बार पर कोई भी लम्हा याद नहीं रहता। हम भूलते हैं, उस मुस्कान को, जो उस ठहरे हुए ट्रैफिक में दिखी थी। उन चमकती आँखों को, चौराहे पर कार का शीशा बजाते बच्चों को, नंगे-भूखे शिशु को गोद मे लिए करुणा का स्वाँग भरती स्त्री को, लकड़ी की गाड़ी को घसीटते अपाहिज बूढ़े को, पसीना पोछती भीड़ को, ट्रैफिक हवलदार को और सिग्नल पर गुटरगूँ कर रहे कबूतरों को या किसी मूर्ति पर बैठे कौवों को या ज़ेब्रा क्रॉसिंग से सहमती हुई भीड़ को। यह सब भूलकर हम आगे निकल आते हैं। इसलिए नहीं कि हम जानबूझकर भूलना चाहते हैं, बल्कि इसलिए कि हमारा उनसे कोई सरोकार नहीं है। याद रहता है तो सिर्फ दर्द और वहाँ बिताए पलों का इन्तज़ार। जीवन इसी सबको याद रखने और भूलने के बीच का समागम है। यदि हर चौराहे की एक मुस्कान भी अपने साथ समेट पाएँ तो इन्तज़ार के वो दंश सान्द्र नही होंगे और स्मृतियों में बेहद हल्के होकर घुल जाएँगे।
सब कुछ क्षणिक है, छिछला और पारदर्शी है। स्थाई, गूढ़, गम्भीर हमने बना लिया है क्योंकि हमारा सारा प्रशिक्षण इसी को पारंगत करने में तो हुआ है। सारी प्रक्रियाएँ इतनी ही सरल हैं कि एक फूल खिल जाए सुबह को और शाम होते-होते ख़त्म हो जाए। किसी भी ग्रन्थ, कविता या कहानी में इन खिले-मुरझाए और विलोपित हो गए फूलों का ज़िक्र नहीं होगा। बहुत कम पढ़ा है पर यह आजतक नज़रों के सामने से नहीं गुज़रा और इन संख्याओं को कोई दर्ज़ कर भी लेगा तो क्या होगा? कुछ नहीं, पर एक क्षण भी जी लिए तो सब कुछ मिल जाएगा, तृप्ति और संसार। लेकिन हम देख-समझ नही पाते और दौड़ते रहते हैं। भिन्नाते रहते हैं। सिग्नल को देखते हुए आसपास के दुखों और मुस्कानों को अनदेखा कर देते हैं।
मैं एक क्षण का ही जीवन चाहता था, यह कहने में कोई गुरेज़ नही कि मुझे एक नहीं हजारों क्षण मिले, जिनसे तृप्ति मिली। नज़रिया और सीख भी। अपने आसपास नजर गडा़ए रखी मैंने और हर पल का भरपूर मज़ा लिया। हर बार पीले समय में भागते-दौड़ते अनगिनत चौराहों को पार भी किया पर आज जब सारे सिग्नल हरे हो गए है, सड़कों पर भीड़ नहीं है, ज़्रेब्रा क्रॉसिंग खाली पड़े हैं और रास्ते सूने हैं, तो लगता है मेरी झोली में वो सब है जो मैंने बरसों-बरस समेटा और संजोकर रखा।
सब कुछ पार कर सुरक्षित रह जाने के लिए बहुत कुछ में धँस जाना या फँसना बेहद जरूरी है।
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 38वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ ये रहीं :
37. जीवन में हमें ग़लत साबित करने वाले बहुत मिलेंगे, पर हम हमेशा ग़लत नहीं होते
36 : ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं
35.: स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 : पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें!
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!