ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 20/11/2021

एक मीना बाज़ार लगता था, हर वर्ष नवरात्रि में। उसमें घूमने जाने का मज़ा ही कुछ और होता था। बड़े-बड़े झूले उसकी पहचान थी। कई बार हिम्मत की कि किसी एक झूले में बैठूँ पर अन्दर का डर हमेशा हावी रहा। ऊँचाई, चक्राकार गति और कर्कश आवाज़ें नीचे से ही सुनकर भयभीत हो जाता था। रोपवे पर आज भी बड़ी हिम्मत के बाद बैठ पाता हूँ। नीचे देख नहीं पाता। ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं। जुगुप्सा रूपी भय दर्ज़ करती है, दिलो-दिमाग़ पर। इसलिए ऊँचाई कभी पसन्द नहीं आई। 

गौहाटी में ब्रह्मपुत्र में स्टीमर में घूमा। भोपाल के बड़े ताल में, तवा का तट हो, नर्मदा का, माही का या गोदावरी का। पानी कमज़ोरी ज़रूर है पर उतरना, तैरना और फिर डूबना एक सम्पूर्ण प्रक्रियानुमा लगता है। इसलिए कभी तैर नहीं पाया और डूबा भी नहीं। शायद यही वज़ह थी कि प्रेम को कभी गम्भीरता से महसूस ही नहीं कर पाया क्योंकि उसके लिए तो डूबना होता है। निष्ठुरता का बड़ा पाठ इससे सीखा और जाने-अनजाने निष्ठुर, निर्मोही भी इसलिए बन ही गया यहाँ तक आते-आते।

हवाई जहाजों में बहुत यात्राएँ कीं लेकिन अन्दर बैठने पर एक धुकधुकी हमेशा बनी रहती थी कि ये सफ़र आखिरी साबित होगा। चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान लिए हर कोई एक हल्के झटके से काँप जाता है। दूसरे को हौले से देखकर मुस्काता ज़रूर है। अन्त में उतरते वक़्त सबमें कृतज्ञता का भाव सबके लिए होता है। भले ही दर्प इसकी इजाज़त न दे कि उसे भद्दे रूप में प्रदर्शित करें। मग़र सीखा यही कि झटकों में जिन्होंने मुस्कुराकर, भले ही दूर से, सहयोग दिया, उनके प्रति सचेत रहकर अन्त में साधुवाद तो देना होगा न।

अब तक के जीवन में हिसाब लगाऊँ तो अनगिनत रास्ते और दूरियाँ तय की हैं। धूप, छाँह, बरसात में और कच्ची-पक्की पगडंडियों से लेकर चित्ताकर्षक 10-12 शाखाएँ फैलाए मज़बूत चमकते रास्तों पर चला हूँ। कई बार पाँवों में छाले पड़े, लहूलुहान हुआ, थक गया इतना कि आँखे मूंद गईं चलते-चलते। लेकिन उन सबका शुक्रगुज़ार हूँ, जिन्होंने तेज आवाज़ के उपकरणों और कर्कश स्वरों से मुझे दुर्घटनाओं से बचाए रखा, सावधान किया और अपनी चाल सुस्त रखने की तरफ़ आगाह किया। 

कई बार छोटी-मोटी टक्करें भी हुईं तो हाथ, पाँव या हड्डियाँ टूटीं। पर इससे सम्हलने का मौका मिला। पतली, कच्ची पगडंडियाँ साँप और बिच्छुओं से भरी हो सकती हैं। ख़रपतवारों से भरी भी और साफ़ लम्बे, मज़बूत रास्ते एक हल्की सी ठोकर मारकर जीवन की इहलीला समाप्त कर सकते हैं। मुस्तैद दोनों जगह रहना है ताकि जिस ओर चलने का उपक्रम किया है वहाँ भले न पहुँचें लेकिन कम से कम एक सन्तुलन देह, आत्मा और लक्ष्य का बना रहे। तालमेल और संयोजन महज मूल्य नहीं, वरन् अपनी हर साँस में घटते हुए इन्हें देखना है क्योंकि जीवन के रास्ते विचित्र हैं। 

डर हर जगह काबिज़ है। भीतर, बाहर, ऊपर, नीचे, स्थिरता में, गतिमान अवस्था में या कि नींद या जागृत अवस्था में। कबीर कहते हैं न, “जागते रहना, नहीं तो चोर आएगा”। वह चोर कोई और नहीं, अपने भीतर पसरे ये सब डर के प्रकार ही हैं, जो भिन्न-भिन्न आकार, प्रकार, विचार, व्यवहार और नवाचार लेकर आते हैं। 

संश्लिष्टता को अपने जीवन की पोटली में गाँठ बाँधकर तैयार हो जाएँ। सारी लड़ाईयाँ ख़ुद ही लड़नी हैं। हर लड़ाई में अपनी हार तय है, क्योंकि इन सबका अनन्तिम परिणाम इन डरों का सामूहिक आक्रमण ही है मन वाचा और कर्मों पर, जो अन्ततोगत्वा हमें ख़त्म ही कर देंगे और सारे दुस्साहस यहीं रह जाएँगे। 

अन्त को स्वीकारना एक सही कदम है।

(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 36वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  ये रहीं :  
35.स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 :  पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा 
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो 
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं 
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें! 
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा 
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा! 
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है? 
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ .. 
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है… 
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा 
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं 
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है 
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है! 
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता… 
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा… 
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे 
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो  
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा! 
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा 
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता! 
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो… 
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

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