अनुज राज पाठक, दिल्ली
दुनियाभर में हर साल 10 सितम्बर को ‘आत्महत्या रोकथाम दिवस’ मनाते हैं। इस बार भी मनाया जा रहा है। इस तरह के आयोजनों का मक़सद ये होता है कि विषय या सम्बन्धित मुद्दे के बारे में अधिक से अधिक लोगों को जागरुक किया जाए। कार्यक्रम का जो उद्देश्य है, उसे हासिल किया जाए। जैसे- आत्महत्या रोकथाम का ही मसला लें तो इस आयोजन का मक़सद है कि लोगों को जागरुक कर आत्महत्याओं की घटनाओं को रोकने की क़ोशिश की जाए। लेकिन हो क्या रहा है? आत्महत्याएँ साल-दर-साल बढ़ती जा रही हैं।
इस बाबत अभी 29 अगस्त को ही #अपनीडिजिटलडायरी ने एक जानकारी प्रकाशित की थी। उसमें राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के हवाले से यह जानकारी दी गई थी कि बीते 10 साल के भीतर देश में छात्र-छात्राओं की आत्महत्याओं के मामले दोगुने हो चुके हैं। बीते दशक में देश में सब तरह की आत्महत्याओं के मामलों में 2 प्रतिशत की सालाना बढ़त हुई। जबकि छात्र-छात्राओं की आत्महत्या के मामले 4 फ़ीसदी बढ़े।
विस्तारित लेख यह रहा, पढ़ सकते हैं :
अपने बच्चों को बचा लीजिए, 10 साल में उनकी आत्महत्याएँ दोगुनी हो गई हैं!
एनसीआरबी के ही आँकड़ों से पता चलता कि साल 2022 में भारत में 1.71 लाख लोगों ने आत्महत्या की थी। यह बीते सालों की तुलना में सबसे बड़ा आँकड़ा था। इनमें भी बड़ी चिन्ता की बात यह सामने आई कि आत्महत्या करने वालों में पुरुषों की संख्या सबसे अधिक है।
ऐसे में सवाल हो सकता है कि आख़िर क्या कारण हैं कि लोग अपना जीवन यूँ ख़त्म कर दे रहे हैं? इसके ज़वाब में मोटे तौर पर तीन कारण गिनाए जाते हैं। पहला – वित्तीय दबाव, दूसरा – नाते-रिश्तों में कड़वाहट, तीसरा – जीवन में किसी मक़सद को हासिल करने में सफलता न मिलना। हालाँकि यहाँ इस ज़वाब पर भी सवाल है कि क्या ये तीनों कारण इससे पहले नहीं थे? उत्तर है – थे, पहले भी थे। असफलताएँ, जीवन का हिस्सा हैं। ये बड़े-बड़े धुरन्धरों को भी मिलती रही हैं। धन की कमी धनकुबेरों के पास भी अक्सर होती है। और रिश्तों में उतार-चढ़ाव, खटास-मिठास हर किसी के अनुभव में आती ही है। तो अब ऐसा क्या हो गया कि लोगों की जीवन से उम्मीद ख़त्म हो रही है?
इसका सही उत्तर भी #अपनीडिजिटलडायरी के ही एक लेख में इसी 23 जून को दिया गया था। पढ़िएगा, नीचे लेख का शीर्षक उसकी लिंक के साथ दिया गया है।
अपना आउटलेट खुला रखिए, ताकि बाँध फूटने से बचा रहे
दरअस्ल, हर तरह के मानसिक दबाव, तनाव का वास्तविक कारण यही है। हमारे पास अपनी भावनाओं को, विचारों को व्यक्त करने के साधन ख़त्म हो गए हैं। हमारे पास सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों में हजारों की तादाद में दोस्त होते हैं। लेकिन अस्ल जीवन में दो मित्र भी ऐसे नहीं होते, जिनके साथ बैठकर हम गप्पें हाँक सकें। थोड़ा सा फुर्सत का समय बिता सकें। मन हल्का कर सकें। संयुक्त परिवार रहे नहीं। पहले हमारा समाज एकल परिवारों में बँटा और अब सूक्ष्म परिवार नज़र आने लगे हैं। उनमें पति-पत्नी और उनके एक या अधिक से अधिक दो बच्चों के लिए जगह होती है। बुज़ुर्ग माता-पिता के लिए भी अब उनमें अधिक गुंजाइश नहीं बची है।
शहरों में ख़ास तौर पर, पति-पत्नी अक़्सर दोनों कामकाज़ी होते हैं, क्योंकि हर किसी को अधिक से अधिक पैसा कमाना है। जीवन में सुख मिले, न मिले लेकिन बहुत सारी सुविधाएँ ज़रूर इकट्ठी करनी हैं। विदेश घूमना है। दूसरों को दिखाने के लिए एक रुतबा बनाना है, उसे बरक़रार रखना है। इस सबके लिए अधिक से अधिक पैसा चाहिए। सो, पैसों के लिए दिन-रात काम करना है। इस कारण बच्चों को अच्छी परवरिश देना तो दूर की बात, उनके लिए पर्याप्त समय तक नहीं है। अब इससे हर छोटे, बड़े, बुज़ुर्ग को तनाव, अवसाद न हो तो क्या हो?
पहले लोग डायरी लिखा करते थे। उसमें अपना मन खोलकर रख देते थे। हल्के हो जाते थे। अच्छा संगीत सुनते थे। मन को सुकून मिल जाता था। घरों में बाग़बानी करते थे। पेड़-पौधों के साथ समय बिताते थे। उससे तनाव, थकान, आदि दूर भाग जाता था। लेकिन अब इस सबके लिए किसी के पास समय नहीं है। जबकि आत्महत्या जैसी गम्भीर होती समस्या के समाधान की राह इन्हीं विकल्पों के नज़दीक जाकर मिलने वाली है।
इसके कुछ प्रमाण देखिए। साल 2018 की बात है। कोलकाता के एक अस्पताल में संगीता दास नाम की एक महिला काफी समय से कॉमा में थी। दवाओं से उसकी सेहत में सुधार नहीं हुआ तो चिकित्सकों ने उस पर संगीत चिकित्सा आज़माई। उसे भारतीय शास्त्रीय संगीत की मशहूर वॉयलिन वादक एन राजम का राग ‘दरबारी कानड़ा’ सुनवाया। और कुछ ही दिनों में संगीता दास कॉमा से बाहर आ गई। जयपुर के भी एक अस्पताल में 2021 में इसी तरह एक बच्चे को संगीत चिकित्सा के ज़रिए कॉमा से बाहर लाने में सफलता मिली थी।
अभी एक-दो दिन पहले ही इंग्लैंड का एक मामला सामने आया। वहाँ सरकार के सहयोग से लोगों के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा एक बड़ा प्रयोग हुआ। तमाम तरह की मानसिक परेशानियों से जूझ रहे लगभग 8,000 लोगों को इस प्रयोग में शामिल किया गया। इन लोगों को जंगलों की सैर कराई गई। बागबानी कराई गई। पौधारोपण कराया गया। जंगल के ही तालाबों में उनसे तैराक़ी कराई गई। बताते हैं कि इस तरह के क़रीब सात पायलट प्रोजेक्ट चले। इनमें हर व्यक्ति पर सिर्फ़ औसतन 55,000 रुपए ख़र्च हुए। और इसका नतीज़ा? इन लोगों में ख़ुशी का स्तर, जो पहले 5.3 अंक था, वह बढ़कर 7.9 हो गया। जबकि चिन्ता का स्तर 4.8 से घटकर 3.0 तक आ गया।
तो, ऐसी ही सकारात्मक प्रयासों की श्रृंखला में एक कड़ी #अपनीडिजिटलडायरी भी बनी है। उन सबके लिए अभिव्यक्ति का उभरता माध्यम, जो सकारात्मक चीज़ों की तलाश में हैं। सकारात्मकता से जुड़ना चाहते हैं। कुछ अच्छा लिखना, पढ़ना, बोलना या देखना चाहते हैं। उन सबके लिए है #अपनीडिजिटलडायरी।
कारण कि मीडिया के विभिन्न माध्यमों में तो ऐसी चीज़ों के लिए बहुत ज़्यादा जगह रही नहीं। जबकि सोशल मीडिया के लगभग सभी माध्यम नकारात्मक, दुष्प्रचार से भरी और भ्रामक सामग्री को ही आगे धकेलने, फैलाने में लगे हैं। इसके कारण व्यावसायिक ही हैं क्योंकि ऐसी चीज़ें अधिक लोगों को अपनी तरफ़ खींचती हैं। इस तरह ज़्यादा लोगों के जुड़ने से, जुड़े रहने से, अधिक पैसा बनाया जा सकता है, जो बनाया जा रहा है।
अलबत्ता, #अपनीडिजिटलडायरी उन चुनिन्दा माध्यमों में शुमार है, जो इस चूहादौड़ से ख़ुद को अब तक अलग रखे हुए हैं। लगातार चार वर्षों से #डायरी कुछ सुनिश्चित सरोकारों से जुड़कर चल रही है। और इन्हीं सरोकारों में एक यह भी है कि हर आयुवर्ग के लोगों को उनकी अभिव्यक्ति का एक ‘आउटलेट’ मुहैया कराने का माध्यम बना जाए। ताकि लोग ख़ुश रहें, तनावमुक़्त हो सकें, और उनमें सकारात्मकता का आरोपण हो सके।
ख़ुशी की बात है कि #अपनीडिजिटलडायरी को अपने जैसे ही सरोकारों वाले कुछ अन्य संगठनों का सहयोग भी मिला है। इनमें से कुछ नाम हैं- दिल्ली का ‘पुष्पांजलि मेडिकल सेंटर’, ‘स्थिर : द माइंड्स क्लीनिक’, और ग़ैरसरकारी संगठन ‘राही’। ये सब मिलकर 10 सितम्बर, ‘आत्महत्या रोकथाम दिवस’ के मौक़े पर दिल्ली में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के मुख्यालय के डॉक्टर एकेएन सिन्हा सभागार में एक कार्यक्रम कर रहे हैं। इसमें आत्महत्या की रोकथाम के मसले पर बात होगी। विमर्श होगा। समाधान सामने रखने की कोशिश की जाएगी।
जो आना चाहें और आ सकें, वे सब आमंत्रित हैं।
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