टीम डायरी
दुनियाभर में 10 सितम्बर को ‘आत्महत्या रोकथाम दिवस’ मनाया गया। इस दौरान आत्महत्या के जिन तमाम कारणों का उल्लेख किया गया, उनमें काम के लगातार बढ़ते घंटों के कारण बढ़ने वाला तनाव, अवसाद भी एक कारण था। बहुत से लोग, कम्पनियाँ, और यहाँ तक कि चीन जैसी सोच रखने वाली कई सरकारें भी इस दलील की पक्षधर हैं कि कर्मचारियों को अधिक से अधिक समय अपने कार्यस्थल पर देना चाहिए। और लोग जान के ज़ोख़िम पर भी इस दलील को मानने के लिए मज़बूर हैं क्योंकि उन्हें आधुनिक जीवनशैली की विभिन्न आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए अधिक से अधिक पैसों की ज़रूरत है। लिहाज़ा, इससे जुड़े कुछ उदाहरण देखिए, पढ़िए और सोचिए कि वाक़ई ज़रूरी क्या है? पैसा, सुविधाएँ या सन्तुष्ट और सुखी जीवन?
पहला उदाहरण। कर्नाटक सरकार ने अभी जुलाई में ही एक संशोधित कानून को मंज़ूरी दी थी। इसमें सूचना-प्रौद्योगिकी (आईटी) क्षेत्र की कम्पनियों को यह अनुमति देने का प्रावधान था कि वे कर्मचारियों से रोज़ 14 घंटे तक काम ले सकती हैं। हालाँकि विरोध के बाद संशोधित कानून रोक लिया गया।
दूसरा उदाहरण- कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में दुनिया में सबसे बड़ी कहलाने जाने वाली कम्पनी ‘एनवीडिया’ में सप्ताह के सातों दिन 14 से 16 घंटे तक कर्मचारियों से काम लिया जाता है। ऐसा इस कम्पनी के ही कुछ पूर्व कर्मचारियों ने बताया है। कम्पनी के मालिक ताईवानी मूल के अमेरिकी नागरिक जेनसेन हुआंग ने भी ख़ुद स्वीकार किया है कि उन्हें “अपने कर्मचारियों को यातना देना पसन्द है”।
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एनवीडिया के सभी कर्मचारी करोड़पति, लेकिन सुख के मामले में ‘रोडपति’!
तीसरा उदाहरण मुम्बई के एक युवा उद्यमी का। कृतार्थ बंसल नाम है इनका। सिर्फ़ 25 साल के हैं अभी। अलबत्ता, इस उम्र में ही उन्हें नर्वस ब्रेकडाउन हो जाने की वज़ा से अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। और इसका कारण? बीते कुछ सालों से कृतार्थ लगातार काम, काम, और बस, काम ही कर रहे थे। सेहत, खान-पान, पूरी नींद, आदि के बारे में कृतार्थ ने कुछ सोचा नहीं। क्योंकि वे इस घटना से पहले तक इस सबको वक़्त की बर्बादी मानते थे। हालाँकि अब उनकी यह सोच दुरुस्त हो गई और सेहत भी ठीक है।
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‘भभ्भड़ संस्कृति’ ने कृतार्थ को अस्पताल पहुँचा दिया, अब उनसे ही सुनिए क्या कहते हैं!
लेकिन चीन के झेजियांग प्रान्त में एक निजी कम्पनी में काम करने वाले 30 वर्षीय अबाओ इतने भाग्यशाली नहीं निकले। अपनी कम्पनी के साथ किए गए अनुबन्ध का पालन करते हुए अबाओ बीते 104 दिनों से लगातार काम कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने बस, एक दिन की छुट्टी ली। काम की इस अति के कारण अबाओ का शरीर उनका साथ छोड़ता गया। बताते हैं कि रोग प्रतिरोधक क्षमता घट जाने की वज़ा से उनके शरीर के सभी अंगों ने एक-एक कर काम करना बन्द कर दिया और उनका निधन हो गया।
यहाँ अफ़सोस-नाक पहलू पर ग़ौर कीजिए कि अबाओ को काम करते रहने के दौरान यह समझने का मौका तक नहीं मिला कि उनका शरीर उनका साथ छोड़ता जा रहा है। वह जीवन को बेहतर बनाने के लिए लगातार काम करते रहे और उसी काम ने उनका ज़िन्दगी छीन ली।
कहने को तो अबाओ का निधन सामान्य भी कह सकते हैं। लेकिन क्या यह एक तरह की आत्महत्या ही नहीं है या फिर हत्या, जो बाज़ार के दबाव और काम के बोझ तले हुई? ध्यान दीजिए, ऐसी आत्महत्या या हत्या के जाल में उलझने वाले अबाओ कोई इक़लौते नहीं। हममें से अधिकांश कामकाज़ी लोग इस जाल में उलझे हैं। लेकिन अब इस जाल को, जितनी जल्दी हो, काटने की ज़रूरत है।
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