समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश
न्यूनतम उद्यम और बड़े जुमले और क्रियान्वयन के लिए बड़ा अमला बनाना किसी भी सरकारी योजना की खास शर्त है। इसमें कई रोजगार और अवसर पैदा होते है जो ऐसे निर्णयाें को आगे ठेलने में उपयोगी होते है। फिर इसमें कॉरपोरेट हित जुड़ जाए तो क्या कहने। ऐसा ही मामला है कुपोषण से निजात पाने की भारत सरकार की नई योजना का।
देश में बढ़ते कुपोषण से जब अफसरान की रातों की नींद काफूर हुई तो कुपोषण से निजात पाने के लिए चावल, आटा, दूध जैसे खाद्य पदार्थों को जरूरी विटामिन व बारीक पोषक तत्त्वों से फोर्टिफाइड यानि परिभावित करने के रास्ते सुझाए गए। भारत सरकार ने वर्ष 2021 चावल को परिभावित करने की योजना को हरी झंडी दिखाई। इसके लिए कुछ क्षेत्रों में प्रायोगिक परीक्षण किए गए। लेकिन पत्रकार संगठन ‘रिपोटर्स कलेक्टिव’ ने कार्यरत सहसम्पादक श्रीगिरीश जलियल ने इन परीक्षणों की वैधता और विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े किए हैं। ‘रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ वर्तमान भारत सरकार की नीतियों का विरोधी एक प्रभावशाली पत्रकारों का संघ है।
क्या है फोर्टिफाइड चावल
फोर्टिफाइड चावल वह है, जिसके तहत चावल के आटे में रासायनिक या औद्योगिक विटामिन मिलाकर उससे पुन: ‘कृत्रिम चावल’ बनाया जाता है। यह अतिरिक्त विटामिन, पोषण तत्वयुक्त चावल को प्राकृतिक चावल में (औसतन एक प्रति सौ नग चावल) में मिलाया जाता है। सरकार पीडीएस के माध्यम से इस परिभावित चावल को गरीबों के आहार का हिस्सा बनाने जा रही है। गरीब, जो अनाज मुफ्त या सस्ते में पाते हैं। हालाँकि इस निर्णय में उनकी कोई पूछ नहीं है। सरकार उनके भले के लिए ही तो यह कर रही है। पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग जो बाजार से ब्रांडेड चावल खरीद रहा है, वह इससे खुद को अप्रभावित मानता है। जबकि उसे अंदाज ही नहीं कि इस शुरूआत का अन्त नहीं है।
क्या फोर्टिफिकेशन निर्दोष और वाजिब है
सामान्य विवेक ज्ञान के आधार पर एक आम आदमी बता सकता है कि कुपोषण को दूर करने के तरीके सरल, सहज, पर्यावरण के अनुकूल और प्राकृतिक और हर तरह के दुष्प्रभावों से मुक्त हैं। जैसे –
– मिट्टी का स्वास्थ्य सुधार कर खाद्य उपज का पोषण बढ़ाया जा सकता है।
– आहार में समुचित वैविध्य और स्वास्थ्यकर भोजन पकाने के तरीकों को अपनाकर यह लक्ष्य पाया जा सकता है।
– स्वास्थ्यकर, श्रमकारक जीवन शैली, जो आहारादि से शरीर में उचित पोषक तत्वों के अवशोषण में सहायक हो, को अपनाकर यह काम हो सकता है।
– साथ ही, कुपोषण के विशिष्ट मामले वैयक्तिक स्तर पर औषधि से ठीक किए जा सकते है।
जबकि आहार का औद्योगिक स्तर पर फोर्टिफिकेशन इस तरह की मूलभूत बातों को पूरी तरह नजरअंदाज करता है। और सरकारें भी रासायनिक खादों के उपयोग से उपज बढ़ाने पर जोर देती हैं। स्वास्थ्यकर वैविध्यपूर्ण खाद्यपदार्थ की जगह औद्योगिक विधियों से उपजी कुछ फसलों पर और पारम्परिक तथा स्वास्थ्यकर भोजन पकाने की विधियों की जगह औद्योगिक व्यवसायिक रूप से बनाए उत्पादों को प्राथमिकता देती हैं।
यह सब इसलिए ताकि आर्थिक विकास की बटेर हाथ लग सके। जबकि यह भोग-लोभ आधारित अर्थतंत्र मानव, पर्यावरण औेर प्रकृति के पक्ष में हर प्रयास और विधायी निर्णय को बिगाड़कर पैसा बनाने का जरिया बना देता है। इसी कारण खाने-पीने की वस्तुओं का फोर्टिफिकेशन दोषपूर्ण है। इस परिदृश्य में किसी सकारात्मक पहल की संभावना भी नहीं है क्योंकि आधुनिक अर्थतंत्र में सरकारें कट्टर भोगवाद की कृत्रिम जीवनशैली के अनुरूप नीतियाँ बना रही है। और इसका कारण यह है कि प्राकृतिक नैतिक जीवन शैली न तो पापरूपी धन का पहाड़ खड़ा कर सकती है न भोगवादी लोगों के वोट दिला सकती है।
हर शख्स आश्वस्त है, लेकिन बचेगा कोई नहीं
वैयक्तिक स्तर पर हर शख्स आश्वस्त है कि इन सब परिस्थितियों में भी वह बच जाएगा। प्रदूषणजनित कैंसर, मनोरोग, अवसाद, आत्महत्याओं जैसी तमाम मानव निर्मित आपदाओं से पीड़ित मित्र-परिजनों को सड़ते-मरते देखकर भी हम सब इन दुष्प्रभावों से बचे रहने को लेकर आश्वस्त है। लेकिन बचेगा कोई नहीं, क्योंकि हम अगली पीढ़ियाँ को जो जीवन मूल्य और शैली दे रहे हैं, वह कृत्रिमता और नीतिविहीन भोगवाद की है।
अगर फोर्टिफाइड चावल की ही बात करें तो इकॉनामीज ऑफ स्केल यानी बड़े पैमाने की लागत से यह फोर्टिफाइड चावल धीरे-धीरे आम प्रचलन का हिस्सा बनेगा। साथ ही यह दूसरे अनाज, आटा, दूध आदि पदार्थों के फोर्टिफिकेशन का दावा मजबूत करेगा। दूसरा तथ्य यह है कि खाद्य श्रृंखला में जो चीज एक बार घुस जाती है, उस पर नियंत्रण आसान नहीं होता। तो यह सब बातें देर-सवेर सबको प्रभावित करेंगी। वास्तव में यह हमारी मूलभूत आवश्यकताएँ जैसे आहार, कृषि, पर्यावरण जैसे प्रकृति प्रदत्त अवदानों के औद्योगिकरण का प्रयास है। सरकार और बाजार ऐसे तमाम उत्पादों के विज्ञानसम्मत, लाभप्रद, सस्ता, मानवता के लिए उपयोगी और बेहतर होने का दावा करेंगे। और जैसा कि होता आया है ऐसे दावे अर्धसत्य और मिथ्या-प्रस्तुतिकरण होने से अन्त में विनाशकारी ही साबित होंगे।
संस्थागत बन नीति नियंता बन रही, भोग-लालचवृत्ति
सरकारी नीति निर्धारण का मामला जितना बड़ा है उतना ही उलझा हुआ भी है। यह सरल-सहज और लोकरंजक नीतियाें की कुछ ऐसी मूलभूत त्रुटियों का परिणाम है जो गलत हैं, किन्तु वर्तमान परिदृश्य में उपयोगी और आवश्यक लगती है। सरकार के एक नीतिगत निर्णय से अरबों रुपए के व्यावसायिक अवसर पैदा कर देते हैं तो कई दूसरे विकल्प वाले प्रतिद्वंद्वियों का नुकसान भी होता है। राष्ट्रों की नीतियाँ धनपिपासुओं का अखाड़ा बनकर रह गई है। प्रकृति पर्यावरण और उसके सामंजस्य में जीने की संस्कृति का कोई मोल इसलिए नहीं क्योंकि वह संसाधनों को पैसे में बदलती। नदियाँ, पहाड़, पशु-पक्षी, वनस्पति जंगल को हम धन के रूप में नहीं देखते, बल्कि उनका खनन, कटाई, दोहन शोषण कर पैदा किए जाने वाली मुद्रा को धन मानते हैं।
आज स्थिति यह है कि विश्व के सबसे धनवान लोग आहार, कृषि, वैक्सीन-औषधि निर्माण में उतर रहे हैं। इसके लिए वे बड़ी-बड़ी परोपकारी लोकहितैषी संस्थाएँ बना रहे हैं। वे दुनियाभर के देशों में लोककल्याण के लिए शोध, नीति निर्माण और क्रियान्वयन पर काम करती हैं। इसी रूप में वे सरकारों के साथ साझेदारी करती है उसके साथ बैठकर नीति निर्धारण कर रही है। इतना भर नहीं, ये लोग धन और सत्ता बल से न केवल मीडिया को अपने पक्ष में करने का सामर्थ्य रखते हैं, यह उनको अपने हितों के अनुरूप आख्यान गढ़ने के लिए उपयोग भी करते है। सोचिए, लोकतंत्र के प्रहरी को ही अगर अफीम के नशे की लत लग जाए तो नागरिकों को सजग कौन रख सकता है। ये संस्थान सरकारी बजट के बड़े हिस्से से अपनी आय और धन में भी वृद्धि कर रही हैं। परोपकार के नाम पर दुनियाभर में टैक्स पर छूट हासिल करती हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे संस्थानों में भी घुसपैठ कर रणनीतिक और कूटनीतिक षड्यंत्र तक करने लगी है। इस तंत्र का पर्दाफाश जानी-मानी पर्यवरण विशेषज्ञ वंदना शिवा अपनी पुस्तक ‘फिलेंथ्रोकैपेटलिज्म एंड इरोजन ऑफ डेमोक्रेसी: ए ग्लोबल सिटीजन्स रिपोर्ट ऑन द कॉरपोरेट कंट्रोल ऑफ टैक्नालॉजी, हेल्थ एंड एग्रीकल्चर’ में कर चुकी हैं।
ऐसे में, आशा के स्रोत सिर्फ हम-आप हैं
यकीनन स्थिति आशाजनक नहीं कही जा सकती। इस स्थिति में परिस्थितियों पर मात देने के लिए अगर हम-आप किसी सरकार, संस्था या मसीहा की प्रतीक्षा कर रहे हैं तो निश्चित ही हम भोंदू बौद्धिक सिद्ध होंगे। ध्यान रखिए, इसके खिलाफ जो समूह, संस्था या अभियान उठेगा, उसे तंत्र अपना सहयोगी बना लेगा या नेस्तनाबूद कर देगा। ऐसे में, हम-आप खुद एक बड़ी क्रान्ति के सूत्रधार बन सकते हैं। बशर्ते, इसी तंत्र का हिस्सा रह कर जमीनी स्तर पर हम अपने मूल्यों में सही बदलाव ले आए। हम अपने जीवन को प्राकृतिक, सीमित जरूरतों वाला और नैतिकतापरक बनाना शुरू कर दें तो बदलाव आरम्भ हो जाएगा।
अगर हम डिब्बाबन्द पदार्थ, विज्ञापन द्वारा बेचे जाने वाली सामग्री, कृत्रिम मनोरंजन का निषेध कर दें और प्राकृतिक जीवन को अपनाएँ तो हमारी नैतिक जरूरतों के अनुरूप प्राकृतिक जैविक पदार्थ उपलब्ध करवाने वाला तंत्र बनना शुरू होगा। इसे खड़ा करने वाला नेतृत्व आसमान से नहीं टपकेगा। नैतिक विचारधारा और जीवनशैली से ही हम अपने बीच से ही ऐसे नेता उभार लेंगे। इसीलिए माैजूदा परिस्थिति में आशा के स्रोत सिर्फ हम-आप हैं।
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(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना के समय से ही जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं।)