टीम डायरी
राजस्थान के उदयपुर में एक जगह है गोगुन्दा। वहाँ के जंगलों में अभी एक-दो दिन पहले पुलिस के जवानों और पेशेवर निशानेबाज़ों ने मिलकर चार साल के एक तेन्दुए को मार गिराया। इसके बाद अब यह साबित किया जा रहा है कि यह तेन्दुआ वही है, जो ‘आदमख़ोर’ हो चुका था। जो बीते एक महीने में लगभग आठ लोगों की जान ले चुका था। यानि सज़ा देने के बाद उसे अपराधी साबित करने की क़वायद की जा रही है। जैसा कि पुलिस अमूमन फ़र्ज़ी मुठभेड़ों के मामले में करती है। हालाँकि, लोगों की कथित तौर जान लेने वाले तेन्दुए को मारने के आदेश वन विभाग ने जारी किया था। जबकि उसे पकड़ा भी जा सकता था। पकड़कर कहीं किसी चिड़ियाघर में सुरक्षित ले जाकर रखा जा सकता है। मगर उसे मार देना शायद ज़्यादा आसान लगा होगा। सो, मार दिया।
वैसे, शुरुआती पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में मारे गए तेन्दुए के पेट में इन्सानी माँस के अंश नहीं मिले हैं। इसलिए आगे की जाँच कराई जा रही है। अब चूँकि उसे मार दिया गया है। उसके शव के साथ ‘बहादुरों’ ने तस्वीरें, वग़ैरा भी खिंचा ली हैं। तो, साबित कर ही दिया जाएगा कि वह वही ‘आदमख़ोर’ है, जिसकी तलाश में 150 लोगों का दल लगा हुआ था। इन्सानी बस्तियों में न्याय ऐसे ही हुआ करता है, क्या किया जाए?
अलबत्ता, सवाल यहाँ ये भी है कि मारा गया तेन्दुआ अगर इन्सानों पर हमला कर भी रहा था तो क्यों? क्योंकि धरती में सम्भवत: ऐसा कोई जीव नहीं, जिसकी खाद्य-श्रृंखला में प्राकृतिक रूप से इन्सान का माँस शामिल हो। मतलब कोई भी जानवर प्राकृतिक रूप से या फिर आदतन ‘आदमख़ोर’ हुआ, यह कहना सरासर ग़लत है। हाँ, इन्सान ज़रूर, मानव-सभ्यता की शुरुआत से ही ‘जानवरख़ोर’ रहा है। उसकी खाद्य-श्रृंखला में तमाम जानवर आज भी शामिल हैं। जबकि वह आधुनिकता के विभिन्न मापदंडों पर ख़ुद को काफी विकसित मानता है।
तो इसी तथ्य को ध्यान रखकर आगे दी गई जानकारियों में जवाब ढूँढिए कि आख़िर तेन्दुआ इन्सानों पर हमला करने के लिए विवश क्यों हुआ? इसमें एक जानकारी तो यही है कि गोगुन्दा और आस-पास के जंगलों में ‘जानवरख़ोर इन्सानों’ ने माँसाहारी जानवरों का भोजन यानि शाकाहारी जानवरों को ही मारकर खा लिया है। इससे वहाँ शाकाहारी जानवरों की संख्या तेजी से कम हुई है। एक अख़बार ने ज़मीनी हालात का जाइज़ा लेने के बाद ख़ुलासा किया कि तेन्दुए ने जिन-जिन जगहों पर लोगों को मारा, उन घटनास्थलों के लगभग तीन-तीन किलोमीटर के दायरे में कोई भी शाकाहारी जानवर नहीं मिला। इसकी पुष्टि तेन्दुए को गोली मारने के लिए निकली टीमों के सदस्यों ने की है।
तो अब बताइए, बेचारे जानवर करें भी तो क्या? और हालत सिर्फ़ एक गोगुन्दा की ऐसी है, यह भी कोई बात नहीं। ख़बरों में ही बताया गया है कि मध्य प्रदेश के रातापानी जंगल के बाहरी इलाक़े में राष्ट्रीय राजमार्ग-45 के दोनों ओर 60 से ज़्यादा पत्थरों की अवैध ख़दानें चल रही हैं। जबकि इस जंगल में 40 के लगभग बाघ घूम रहे हैं। इसी आधार पर इसे ‘बाघ संरक्षित क्षेत्र’ बनाए जाने की क़ोशिशें भी चल रही हैं। तेन्दुए भी हैं, 150 के क़रीब। अब ये जानवर अपने इलाक़ों में घुस आए इन्सानों पर हमला कर दें, तो क्या वे ‘आदमख़ोर’ बता दिए जाएँगे?
एक और मिसाल देखिए, मध्य प्रदेश-राजस्थान के लगे कूनो के जंगल की। यह वही जंगल है, जो विदेश से लाए गए चीतों को बसाए जाने के कारण दुनियाभर में सुर्ख़ियों में हैं। बताते हैं कि कूनो के इसी संवेदनशील जंगल से महज़ 15 किलोमीटर की दूरी पर अगले छह महीने के भीतर एक विशेष परियोजना के लिए 450 हेक्टेयर का जंगल साफ हो जाने वाला है। लगभग सवा लाख पेड़ काट जाने हैं। अब बताइए, ऐसा हुआ तो यहाँ रहने वाले चीते, तेन्दुए, आदि जानवर क्या करेंगे? क्या वे बौखलाकर अपने प्राकृतिक व्यवहार से इतर व्यवहार नहीं करेंगे?
सोचिए, इन्सानों की ऐसी ‘जानवरख़ोर’ हरक़तों के बाद भी कोई अगर जानवरों को ‘आदमख़ोर’ कहे, तो भला ये उचित हुआ क्या?