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क्या वेद और यज्ञ-विज्ञान का अभाव ही वर्तमान में धर्म की सोचनीय दशा का कारण है?

समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश

सनातन धर्म के नाम पर आजकल अनगनित मनमुखी विचार प्रचलित और प्रचारित हो रहे हैं। इन्हें आधुनिक उदारता के नाम पर राजाश्रय मिला हुआ है। साथ ही, चमक-दमक भोगादि लोकरंजकता के चलते अपार जनसमर्थन भी प्राप्त है। धर्म की इस सोचनीय दशा का कारण क्या है? यह हमें किस दिशा में ले जाएंगे? यह हम सब कमोबेश जानते ही है। प्रस्तुत आलेख में आज इसी पर गौर करेंगे।

विगत भाग में हमने नास्तिक सम्प्रदायों के विकास और प्रभाव को देखा। सनातन धर्म के नाम पर वर्तमान में जो क्रियाकलाप प्रचलित हैं, वह स्मार्त और तंत्र मतान्तर्गत उपासनात्मक या कामनापूर्तिपरक उपचार हैं। इन उपचारों में प्रधानत: पौराणिक, कभी-कभार लौकिक और अत्यल्प प्रमाण में श्रुति आख्यान और कर्मकांड का प्रयोग होता है। नास्तिकों के अतिरिक्त कई अवान्तर मत-सम्प्रदाय ऐसे भी रहे हैं, जिनके वैदिक दर्शन से गौण भेद-विभेद रहे और जो बाद में अपनी विशिष्टता के साथ वैष्णव, शैव, गाणपत्य, सौर, शाक्त, योग, तंत्र के अंतर्गत के कई समप्रदायों के आश्रय से स्वयं को वैदिक परमपरा का भाग मानकर उपस्थित है। इन मध्यवर्ती मत-सम्प्रदायों ने अपने दर्शन के प्राधान्य हेतु आस्तिक और नास्तिक दोनों मतों से विचार ग्रहण किए हैं। इस मध्यममार्गीपन में वैदिक सनातनी विचार के साथ वे संकीर्ण विचार भी स्थान पा गए जो सरल, भोगयुक्त और मोटी बुद्धिवालों के लिए तार्किक रूप से सहज होते हैं।

पुराण वेदों का उपबृंहण है। वैदिक आख्यानों के नक्षत्रादि की गतियाँ, उनके दैविक और आध्यात्मिक कथानक मानवीकरण आदि प्रक्रिया के तहत पुराणों में यत्र-तत्र बिखरे मिलते हैं। ज्ञान का साक्षात्कार कराने वाले महावाक्यों की प्रतिध्वनि पुराणों में सुनाई देती है, तो यह संयोग मात्र नहीं है। पुराणों के कथन-श्रवण की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और किसी दृष्टि से निन्दनीय नहीं। ब्राह्मण आरण्यक से लेकर इतिहास पुराणों में प्राचीन यज्ञों में पुराण कथा सत्र के संन्दर्भ बहुतायत से मिलते हैं। श्रौत यज्ञ संस्था आज लुप्तप्राय है किन्तु उसका एक अंग पुराण कथा श्रवण आज भी उपलब्ध है। जब पौराणिक या तांत्रिक परम्परा वैदिक श्रुति परम्परा के और विशेष रूप से यज्ञ विज्ञान से दूर हो जाती है, तब व्यवहारिक ज्ञान के अभाव में कथाकारों द्वारा संकीर्ण मानवी कथा भर रह जाती है। संभव है, उसमें कुछ नैतिक तत्व, रस-भावों की निष्पत्ति का आभास भी मिले, किन्तु उस अपूर्णता का दोष यथावत् रहता है। इसे हम मिथकीकरण कह सकते हैं। उस प्रवृत्ति प्रधान सनातन धर्म के ह्रास का कारण वैदिक यज्ञ विज्ञान का तिरस्कार था।

पौराणिकों में विशेषत: वैष्णव सम्प्रदाय के अन्तर्गत जिस प्रकार की भक्ति की महत्ता प्रचारित होती है और भक्ति की श्रौत कर्मकांडादि विधान के भी ऊपर श्रेष्ठता प्रतिपादित होती है। वह भ्रान्त, अशास्त्रीय, अप्रामाणिक, आचार्यों के दर्शन के भी विरुद्ध होती है। इतना भर नहीं, कई भागवत कथाकार अपनी दाम्भिक करुणा को स्थापित करने के लिए उन पाखंडी सम्प्रदायों के कपटपूर्ण अनुवाद का सहारा लेते हैं, जो उपनिवेश काल में प्रतिक्रियात्मक रूप से उपजे थे। ऐसे कथाकार शास्त्र, आचार्य के वचनों प्रति हिंसा कर वेद और यज्ञ निन्दा कर लेते हैं। जिन महानुभवों को वैदिक यज्ञ में पशुओं के आलभन प्राकृत लौकिक हिंसाचार लगता है, वे उन भगवान के प्रति कितनी निष्ठा रख पाएँगे जिनकी निष्ठा वेद-यज्ञ की रक्षा रही है। 

तो कहना पड़ेगा कि जो सम्प्रदाय श्रीमद्भागवत महापुराण को श्रुतियों से भी ऊँचा दर्जा देते हैं, वे भ्रान्त और मनमुखी हैं। व्यास परम्परा की एक अन्य प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है वैदिक देवताओं को पुराणोक्त कथानक के अनुरूप गल्परूप से सुनाने की। कथाव्यास जिस भाव-वाणी से इन्द्रादि देवगण, स्वर्गादि लोक और क्रियाकलापों का वर्णन करते है, वह किसी से छिपी नहीं है और इस मनोवृत्ति पर भी विवेकपूर्ण आलोचनात्मक दृष्टि से विचार होना चाहिए। अत: वैदिक श्रौत ज्ञान के बिना पुराणों का ठीक-ठीक अनुशीलन सम्भव नहीं लगता। इस दृष्टि से पात्रता, अधिकार और ज्ञान की परीक्षा के बाद ही कथाकारों को पौराणिक कथाव्यास बनाने की बात कदापि असम्यक् नहीं लगती। सत्य तो यह है कि वेदों के बिना पुराणोक्त भक्तिमार्ग भी ठीक नहीं रह पाएगा। वेद के अभाव में सभी आस्तिक मत सम्प्रदाय आपस में ही एक दूसरे को खारिज ही करेंगे। 

कलिकाल में भूमि, यज्ञीय पदार्थ, मंत्रज्ञान, आचार्यों के अभाव में वैदिक कर्म सुदुष्कर हैं। जीवाें के लिए कलियुग में भक्ति ही राजमार्ग है और कलियुग में नाम संकीर्तन सर्वोपरि है। किन्तु क्या इससे हमें सनातन धर्म के मूल स्रोत के संरक्षण-संवर्धन कर्तव्यों के प्रति निष्किय रहना चाहिए? कर्म जिनकी सहज परिणति शुद्ध शरणागति या कैवल्यज्ञान में होती है। बिना कर्म के रहस्य को समझाए भक्ति और ज्ञान के मर्म की बात करना योग्य नहीं लगता। गीता में तमाम ज्ञान, दर्शन और भक्ति का उपदेश देकर भले भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध में ही लगाते हैं। किन्तु समस्या अनन्य रसिकों की है कि भला इस स्तर पर कैसे उतरें?

ऐसी ही स्थिति सनातन परम्परा के निवृत्ति मार्ग के सम्प्रदायों में भी दिखती है, जहाँ वैदिक परम्परा से सम्बन्ध क्षीण है। वे ज्ञान का बौद्धिकीकरण कर अद्वैतादि सिद्धान्त को ही धर्म का मर्म स्थापित करने का प्रयास करते हैं। यही कारण है कि उपनिवेशी विश्व-व्यवस्था के परिवेश से प्रभावित और मूल्य आत्मसात् किए लोगों ने धर्म-परम्परा में सुधारवाद के जो कार्य किए, वह धार्मिक मानस के लिए सांकर्यदोष कारक हुए है। ऐसे संकरित मानस ने विविध मनमुखी सम्प्रदायों को उत्पन्न किया, जो राजनीतिक रूप से प्रभावी हुए किन्तु सनातन सभ्यता, संस्कृति और धर्म परम्परा के लिए हानिकर रहे।

आधुनिक नव्य अनार्य वैदिक, वेदान्ती और कुछ अवान्तर आस्तिक सम्प्रदाय जिस सरलता से नास्तिक बौद्ध के कल्पित आख्यानों को आत्मसात् करते हुए स्वयं को वेद के सच्चे और एकमात्र उत्तराधिकारी होने का दावा करते हैं, वे नैतिकता को बुद्ध के चरित्र में और त्याग को महावीर के जीवन में खोजते हैं। अवतारों के पौराणिक आख्यानों (जो वस्तुत: वैदिक रहस्यों को समझाने के प्रयास भर ही है) के आधार पर धर्म और ऋत् को समझने की कल्पना करते हैं। चूँकि आम श्रोता को शंकराचार्यादि के मूल भाष्यों का अनुशीलन सम्भव नहीं, सो यह सब गड्‌डमड्‌ड चलता रहता है।

यथार्थ की सोचनीय स्थिति हमें दिखाई भी नहीं देती कि हमने सनातन धर्म के विषय में सर्वोच्च जिम्मेदारी निवृत्तिमार्ग के पथिक शंकराचार्य, वैष्णवाचार्य आदि लोगों को सौंपी, जो ज्ञान या भगवद्प्राप्ति के लिए समस्त संस्कारों का परित्याग कर चुके है। इससे गृहस्थोचित राजनीतिक-सामाजिक विषय जैसे हिन्दू कानून, गौरक्षा, मन्दिर रक्षण, शिक्षण कार्यों में साधु-सन्त व्यस्त हो गए हैं। स्वाभाविक ही इससे महात्माओं के पास ऐश्वर्य-बल आदि प्राप्त हो रहा है। उन्हें ऐसे विषयों पर श्रवण, मनन और कार्य करने पड़ रहे हैं जो उनके साधन मार्ग में विक्षेप है। वे कई बार सामाजिक राजनीतिक प्रपंच में मन लगाने से विकारों के भागी बन जाते हैं। वैसे, धर्माचार्यों के पास यह जिम्मेदारी इसीलिए भी गई कि भले ही निवृत्त रहे पर वे परम्परा से धर्म-शास्त्र को जानने वाले होते थे। प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थ राजनीतिक-ऐतिहासिकादि कारणों से धर्म तंत्र की सुरक्षा और संवर्धन के अनुरूप कर्मों में पीढ़ियों को नियोजित नहीं कर पाए।

इसी प्रकार भक्ति और ज्ञान के सामने कर्म के मार्ग को कम आँकना भी दोषपूर्ण हैं। वैदिक दृष्टि से कर्म एक बहुत ऊँची साधना है। यहाँ कर्म का जो तात्पर्य है उसमें मनुष्य पर भारी कर्त्तव्य है। कर्म का अर्थ आजीविका के लिए कहीं भी, कुछ भी नौकरी-चाकरी, उद्योग-व्यापार करना नहीं है। इसमें अपने वर्ण-धर्म-आश्रम के अनुरूप कर्म करने की जिम्मेदारी निहित है। नीति-शुचिता के साथ पवित्र धन से अपने पारिवारिक, सामाजिक ही नहीं समस्त चेतन-अचेतन के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन करना है। ऐसा सकाम भाव भी पवित्रता में कई एकांतिक निवृत्तिमार्ग के साधक से कम नहीं है

वैदिक परम्परा में जो समग्रता है, वही हमारा सबसे बड़ा बल रहा है। यज्ञ विज्ञान इसका मर्म है। इसमें धर्म को कर्त्तव्य कर्म के रूप में ही देखा गया है। यहाँ प्रवृत्ति मार्ग में जीवन कठोर अनुशासन और प्रबल कर्त्तव्य पुरुषार्थ के लिए है। इसी निष्ठा के चलते तत्कालीन काल में धार्मिक सभ्यता भोगवादी जनजातियों को श्रेष्ठ जीवन मूल्यों की ओर प्रेरित कर सकी। 

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(नोट : सनातन धर्म, संस्कृति और परम्परा पर समीर यह पहली श्रृंखला लेकर आए हैं। पाँच कड़ियों की यह श्रृंखला है। एक-एक कड़ी हर शनिवार को प्रकाशित होगी। #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना के समय से ही जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं।) 

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इस श्रृंखला की पिछड़ी कड़ियाँ 

5 – नास्तिक मत आखिर कितने सनातनी?
4 – वैदिक यज्ञ परम्परा में पशु यज्ञ का वास्तविक स्वरूप कैसा है?
3 – सनातन वैदिक धर्म में श्रौत परम्परा अपरिहार्य क्यों है?
2 – सनातन धर्म क्या है?
1 – सम्पदायों के भीड़तंत्र में आख़िर सनातन कहाँ है? 

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