नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश
क़िताब की यह कहानी शुरू होती है, दिसम्बर-2022 से। उस महीने में मैंने फेसबुक पर एक क़िताब से सम्बन्धित सूचना देखी। शीर्षक था, ‘प्रहर : द सिंगिंग क्लॉक’। यह क़िताब साल 2023 के शुरुआत में प्रकाशित होने वाली थी। क़िताब देश के जाने-माने बाँसुरी वादक श्री प्रवीण गोडखिंडी जी ने मूल रूप से पहले कन्नड़ भाषा में लिखी, फिर उन्होंने ही अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया। वही क़िताब अब मेरे द्वारा हिन्दी में अनूदित होकर 2 फरवरी की शाम को ‘भोपाल साहित्य उत्सव’ के दौरान लोकार्पित होने वाली है। हिन्दी में इसका शीर्षक है, ‘प्रहर : कहानी 8 प्रहर का राग संगीत गाने वाली घड़ी की।’
तो जब इस पुस्तक के अंग्रेजी संस्करण के प्रकाशन की सूचना मेरी नज़र में आई तो मैंने अपने कुछ साथियों से इसके बारे में बात की। उसी दिसम्बर के महीने में हम कुछ 4-5 लोग आपस में यह विचार-विमर्श करने के लिए ऑनलाइन इकट्ठे हुए थे कि हम भाषा, साहित्य, जैसे रचनात्मक क्षेत्रों में अपना योगदान बढ़ाने के लिए और क्या-कुछ कर सकते हैं। ज़ाहिर तौर पर ऐसी बैठकों के दौरान सभी के अपने-अपने सुझाव होते हैं। कुछ तो बहुत ही ‘क्रान्तिकारी’ क़िस्म के विचार होते हैं, जिनके बारे में पहली नज़र में सुनकर यूँ लगता है कि बस, अब अगले एकाध महीने में पृथ्वी की धुरी ही खिसक जाने वाली है।
हाँ, मतलब ऐसा लगता है कि पता नहीं क्या-क्या ही कर दिया जाने वाला है, हो जाने वाला है। ‘आग लगा देंगे’, ‘बादलों में छेद कर देंगे’…कुछ ऐसे विचार होते हैं। दुनिया के दूसरे देशों की बैठकों में भी ऐसा होता है, ये मुझे नहीं पता क्योंकि कभी कहीं गया नहीं। लेकिन देश के भीतर कुछ राज्यों में अलग-अलग लोगों के बीच काम करने का अनुभव ज़रूर है। लगभग सभी जगहों पर ऐसी ‘विचारोत्तेजक’ बैठकों में मुझे ‘क्रान्तिकारी’ सुझाव देने वाले लोग अनिवार्य रूप से मिले हैं। उस बैठक में हमारे बीच भी थे। अलबत्ता, इस श्रेणी वाले लोग जितने ‘क्रान्तिकारी’ विचार देते हैं, उतने ही ‘शान्तिकारी’ तरीक़े से किनारे हो लेते हैं।
यानि जब उन्हीं के सुझाए विचारों पर अमल करने की बारी आती है, तो तमाम बहाने बताने लगते हैं। भले पहली मर्तबा जोश-जोश में उसके अमल की ज़िम्मेदारी उन्होंने ख़ुद अपने ऊपर ही क्यों न ली हो! उस बैठक में भी यही हुआ था। हम सबने अपने विचार रखे और उन्हें मूर्त रूप देने की ज़िम्मेदारी भी अपने ऊपर ली। मैंने अपनी क्षमता को ध्यान में रखते हुए अनुवाद के लिए दो क़िताबों को लाने का ज़िम्मा अपने पर लिया। इनमें एक क़िताब थी, ‘प्रहर, द सिंगिंग क्लॉक’ और दूसरी अभिलाष खांडेकर जी की ‘सिन्धिया डायनेस्टी’। इसमें ख़ास बात ये थी कि दोनों क़िताबों के लेखकों से तब तक मेरा परिचय भी नहीं था।
इनमें से चूँकि अभिलाष जी भोपाल में ही थे। लिहाज़ा, सबसे पहले मैंने उनसे सम्पर्क किया। कुछ स्वाभाविक संशय उनके मन में थे कि पता नहीं मैं कैसा काम करूँगा। कर भी पाऊँगा या नहीं। इसलिए उन्होंने मुझसे मेरे लेखन के कुछ नमूने माँगे और थोड़ा आश्वस्त होने पर अपनी क़िताब के अनुवाद का काम मुझे सौंप दिया। हालाँकि उसका प्रकाशन अभी होना बाकी है। लेकिन गुजरत समय के साथ अभिलाष जी को मेरा काम समझ में आया और उनका मुझ पर थोड़ा भरोसा भी बना। इसके नतीज़े में अब वह अपनी कुछ अन्य क़िताबों पर भी काम करने के लिए मुझे अपने साथ जोड़ने का मन बना चुके हैं।
और लगभग उसी वक़्त मैंने संगीत जगत के अपने एक परिचित से प्रवीण जी का नम्बर लेकर उनसे भी सम्पर्क साधा। लेकिन उन्हें उनकी क़िताब को हिन्दी में लाने के लिए सहमत करने में मुझे लगभग 2 साल लग गए। आख़िर, सितम्बर 2024 में उन्होंने उनकी उपन्यास के हिन्दी अनुवाद का काम मुझे सौंपा, जो दिसम्बर में पूरा हुआ, और अब 2 फरवरी को उसी का ‘भोपाल साहित्य उत्सव’ में अनावरण होने वाला है। हालाँकि इस पुस्तक के ‘भोपाल साहित्य उत्सव’ में आने की यात्रा भी दिलचस्प रही। जैसा कि मैंने बताया कि बीतते समय के साथ अभिलाष जी के साथ मेरा उठना-बैठना कुछ नियमित सा हो गया था।
ऐसी ही एक बैठक के दौरान मैंने उनके सामने ‘भोपाल साहित्य उत्सव’ में ‘प्रहर’ को भी शामिल करने का प्रस्ताव रखा क्योंकि इस उत्सव की आयोजन समिति में वह प्रमुख सदस्य हैं। मैंने उन्हें बताया कि प्रवीण जी का उपन्यास रोचक है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की सबसे महत्त्वपूर्ण मगर जटिल और विवादित अवधारणा ‘राग-समय पद्धति’ का आधार लेकर इसमें एक काल्पनिक कहानी रची गई है। वह बहुत आसान, धाराप्रवाह और सुरुचिपूर्ण तरीक़े से लिखी गई है। इस पर अभिलाष जी ने यह क़िताब देखने की इच्छा जताई, जो उन्हें उपलब्ध कराई गई। उसे उन्होंने पढ़ा और तुरन्त ही अपनी सहमति भी दे दी।
मज़े की बात यह कि जब मैंने अभिलाष जी के सामने प्रस्ताव रखा, तब तक उनका भी प्रवीण जी से सीधा कोई परिचय नहीं था। मगर देखिए, नियति किस तरह आपकी कड़ियाँ कहीं से कहीं जोड़ती जाती है। क्योंकि सबसे बड़ी कहानीकार तो वही है। और यह नियति बनती कैसे है? हम जैसे काम करते जाते हैं, वैसी हमारी नियति बन जाती है। मतलब अगर हम परिणामविशेष की चिन्ता किए बिना एक अच्छा उद्देश्य लेकर निरन्तर अपना काम करते रहें, तो नियति हमें वहाँ ले आती है, जहाँ हमने सोचा भी नहीं होता। इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है, प्रवीण जी के उपन्यास ‘प्रहर’ की ‘भोपाल साहित्य उत्सव’ तक की यात्रा।
यद्यपि पुस्तक की इस यात्रा के बीच एक-दो मौक़े ऐसे भी आए, जब मेरे शुभेच्छु मित्रों ने मेरे प्रति अपने स्नेह के कारण कुछ चिन्ताएँ जताईं। जैसे- मुझे मेरी मेहनत का पर्याप्त पारिश्रमिक मिलेगा या नहीं? मेरा नाम पुस्तक में होगा या नहीं? मेरी पहचान उसके साथ जुड़ेगी या नहीं? उनकी चिन्ता स्वाभाविक थी, क्योंकि ‘बड़े नाम वालों के दर्शन अक़्सर छोटे’ ही होते हैं, यह अनुभवसिद्ध बात है। और तब तक मेरे पास अपने मित्रों के इन सवालों का कोई ज़वाब भी नहीं था। बस, ये पता था कि अच्छे साहित्य और संगीत के प्रति मेरा झुकाव है। लिहाज़ा उसके प्रसार में जो अपना छोटा-मोटा योगदान दे सकूँ, वह मुझे देना है।
और आज देखिए, परिणाम। मुझे न तो इस पुस्तक पर की गई मेहनत के एवज़ में मिले पारिश्रमिक से कोई शिक़ायत है, और न ही नाम, पहचान, प्रतिष्ठा सम्बन्धी कोई शिक़वा। बल्कि मेरी अपेक्षा से बेहतर प्रतिफल हर मामले में मुझे प्राप्त हुआ है। प्रवीण जी का संग-सहयोग भी ‘नाम बड़े और दर्शन बड़े’ वाला साबित हुआ है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह स्थितियाँ आगे भी बनी रहेंगी, बेहतर होंगी। बशर्ते, परिणामविशेष की चिन्ता किए बिना अपने सरोकारों पर, उत्कृष्ट उद्देश्यों पर पूरी प्रतिबद्धता बनाए रखते हुए निरन्तरता के साथ काम होता रहे। यही इस तरह के मामलों में सबसे पहली और ज़रूरी शर्त होती है।
और हाँ, एक आख़िरी बात, जिसके बिना क़िताब की यह कहानी पूरी नहीं होगी। दिसम्बर-2022 की जिस बैठक से यह कहानी शुरू हुई, उसमें ‘क्रान्तिकारी’ विचार पेश करने वाले मेरे कई साथियों के प्रस्ताव अब तक ‘शान्तिकारी’ गति को प्राप्त होकर, कहीं विश्राम कर रहे हैं। क्यों और कैसे? यह उन्हें सोचना है, अगर वे सोच सकें तो!!