राजा राममोहन रॉय के संगठन का शुरुआती नाम क्या था?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 21/9/2021

भारत में ब्रिटिश सरकार की गतिविधियाँ जाने-अनजाने ऐसे साधन मुहैया करा रही थीं, जिससे हिंदुत्व मजबूत हुआ और कुछ कम सही पर इसलाम भी। जैसे, सरकार ने बड़े पैमाने पर संस्कृत और अरबी साहित्य का अनुवाद कराया। ताकि वह इन धर्मों के नियम, क़ायदों, परंपराओं आदि को समझ सके। लेकिन अनुवाद की क़वायद का लाभ आम हिंदुओं, मुसलिमों को भी मिला। ईसाइयत और उसकी शिक्षा ने जो चुनौती पेश की, उसका भी हिंदु, मुसलमानों पर पर्याप्त असर दिखा। यह असर समाज सुधार आंदोलनों के रूप में सामने आया।

उस दौरान हिंदु समाज के सुधारकों ने अपने धर्म से कुरीतियाँ हटाकर उसमें नई जान फूँकने का बीड़ा उठाया हुआ था। वे हिंदुत्व की अवधारणा की तसदीक़ कर रहे थे। लेकिन चाहते थे कि उसमें आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तन हों। ऐसे लोगों में सबसे बड़ा नाम राजा राममोहन राय का था। उन्होंने हिंदु धर्म को अंधविश्वासों आदि से मुक्ति दिलाने की मंशा से इसलाम, बौद्ध, ईसाई आदि विभिन्न धर्मों की ओर देखा। मग़र उनमें से किसी धार्मिक आस्था को स्वीकार नहीं किया। मूर्तिपूजा उन्हें ख़ासकर नापसंद थी। उन्होंने उपनिषदों का बंगाली में अनुवाद किया। उनमें ईश्वर को विचार और वाणी की सीमा से बाहर पाया। इस बाबत उनके दृष्टिकोण की झलक उनकी पुस्तक, ‘द यूनिवर्सल रिलीजन : रिलीजस इंस्ट्रक्शन फाउंडेड ऑन सेक्रेड अथॉरिटीज़’ (1829) में मिलती है। राजा राममोहन ने जिस संगठन तले आंदोलन चलाया उसे पहले ‘ब्रह्म सभा’ कहा गया। फिर उसे ‘ब्रह्म समाज’ कहा जाने लगा। इसकी पहली बैठक 1828 में एक निजी मकान में हुई। मग़र 1830 में ही कलकत्ता में उसे अपनी इमारत मिल गई। समाज को कई धनी-मानी लोगों का समर्थन-सहयोग था। इनमें एक प्रमुख नाम द्वारकानाथ टैगोर का था।

‘ब्रह्म समाज’ के मंदिर में पूजा-पद्धति, आचार-व्यवहार के संबंध में राजा राममोहन रॉय के विचारों के अनुरूप एक दिशा-निर्देशिका तैयार की गई थी। इसमें लिखा गया, “मंदिर का इस्तेमाल सार्वजनिक सभाओं के लिए होगा। इनमें सभी तरह के रंग-रूप वाले लोग हिस्सा ले सकेंगे। बिना किसी भेद के शांतिपूर्ण तरीके से भक्ति भाव के साथ आराधना कर सकेंगे। आराधना उस अचिंतनीय, अडिग सत्ता की जो सृष्टि की रचयिता और संचालक है। लेकिन उसका अपना कोई नाम, पद या पहचान नहीं है। ख़ास तौर पर उस तरह की जिसे लोग या लोगों के समूह जानते और मानते हैं। इसीलिए उसकी कोई मूर्ति, चित्र इस इमारत में नहीं होगी।… इस इमारत या इसके परिसर में कभी कोई जीव-जानवर जीवन से वंचित नहीं किया जाएगा।… यहाँ आराधना करने के दौरान किसी सजीव या निर्जीव वस्तु को कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह पूजनीय नहीं मानेगा। यहाँ उपासना के दौरान कोई प्रार्थना नहीं होगी। उपदेश, प्रवचन आदि भी नहीं दिया जाएगा। यहाँ नैतिकता, परोपकार, साधुता, हितैषिता, जैसे गुणों के प्रोत्साहन और सभी संप्रदायों के बीच सद्भाव मज़बूत करने की कोशिश होगी।”  

इस तरह राजा राममोहन का झुकाव किसी की तरफ नहीं था। इसके बावज़ूद उन्होंने अपने धर्म से विद्रोह कर चुके और ईसाइयत से प्रभावित हिंदुओं को प्रोत्साहित किया कि वे ईसाई धर्म अपनाए बिना ही उसके लोकप्रिय विचारों को अपनाएँ। उनके प्रोत्साहन का असर भी हुआ। यह अपने आप में एक उपलब्धि थी। फिर भी राममोहन रॉय का आंदोलन 1843 तक किसी विशिष्ट वैचारिक प्रभाव से अछूता ही रहा।

हालाँकि जब द्वारकानाथ टैगोर के पुत्र देबेंद्रनाथ ने अपने संगठन का ‘ब्रह्म समाज’ में विलय किया तो उसका स्वरूप और उद्देश्य बदला। देबेंद्रनाथ 1838 में गहन आध्यात्मिक अनुभव से गुजरे थे। इसी के प्रभाव के कारण उन्होंने ‘तत्वबोधनी सभा’ की स्थापना की थी। इस सभा की साप्ताहिक बैठकों में सत्य और तत्व पर चर्चाएँ होती थीँ। वैसे, पिता के वारिस के तौर पर देबेंद्रनाथ उनकी पूरी संपत्ति और व्यवसाय के मालिक थे। लेकिन उनका मन हिंदु धर्म से जुड़ी जिज्ञासाओं की तरफ़ खिंच गया था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “मेरे पिता के बाद उनसे जुड़ी सभी ज़िम्मेदारियाँ मेरे कंधों पर आ गईं। पर मैं किसी व्यावसायिक मसले को ठीक से देख नहीं पा रहा था। ज़्यादातर काम अक्सर मेरे अधीनस्थ करते थे। मेरा ध्यान तो वेदों, वेदांत, धर्म, ईश्वर और जीवन के अंतिम लक्ष्य पर लगा था। मुझे घर पर रहते हुए भी शांति नहीं मिल रही थी। काम के दबाव के बीच संन्यास की भावना मेरे अंदर गहरी हो रही थी। इस अकूत संपत्ति का मालिक बनने में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी।”

बहरहाल देबेंद्रनाथ ने राजा राममोहन के काम को ही आगे बढ़ाया। उन्होंने हिंदु धर्म में प्रचलित मूर्तिपूजा का विरोध किया। साथ ही ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्मांतरण के प्रयासों की भी ख़िलाफ़त की। तब कलकत्ता में 1830 में एक स्कॉटिश मिशनरी आए थे, अलेक्ज़ेंडर डफ। उनके प्रभाव में बड़ी संख्या में हिंदु युवक मिशनरी विद्यालयों में पढ़ने गए और ईसाई धर्म की तरफ़ मुड़े। कारण कि इन विद्यालयों में ईसाई धर्मशास्त्रों के साथ पश्चिम के बौद्धिक, वैज्ञानिक विचारों की शिक्षा भी दी जाती थी। इससे हिंदु शिक्षार्थियों को भरोसा हो चला था कि उनके लिए दोनों शिक्षाएँ ज़रूरी हैँ। एक को छोड़कर वे दूसरी शिक्षा नहीं ले सकते। इसके मद्देनज़र देबेंद्रनाथ ने कलकत्ता में एक बैठक बुलाई। इसमें ऐसे विद्यालय की स्थापना के लिए धन जुटाया गया, जिसके पाठ्यक्रम में ईसाई धर्म की शिक्षा शामिल न हो।

भले बंगाल जैसी तीव्रता न हो, पर देश के अन्य हिस्सों में भी ईसाई धर्मांतरण को लेकर भय था। यह बेवज़ह भी नहीं था। कारण कि मिशनरियों का उद्देश्य ही हिंदुस्तान के लोगों शिक्षा के जरिए धर्मांतरित करने का था। इन गतिविधियों का परिणाम ही था कि 1851 में देश में लगभग दो लाख ईसाई हो चुके थे। हालाँकि पश्चिम के विचारों और ईसाई मिशनरियों का प्रभाव इसलाम पर तुलनात्मक रूप से कम हुआ। कारण कि इसलाम पहले से अद्वैतवादी, अनीश्वरवादी था। उसकी एक क़िताब में लिखी बातें ही मुसलिमों के लिए अंतिम सत्य थीं, हैं भी। तिस पर जब हिंदुओं के एक वर्ग ने पश्चिमी शिक्षा को स्वीकार किया तो मुसलिमों में धारणा बनी कि उन्हें इससे दूर रहना है। अलबत्ता, 1857 के बाद उनकी सोच बदली और मुसलिमों में भी पुनरुद्धार के प्रयास हुए।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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पिछली कड़ियाँ : 
35. भारतीय शिक्षा पद्धति के बारे में मैकॉले क्या सोचते थे?
34. पटना में अंग्रेजों के किस दफ़्तर को ‘शैतानों का गिनती-घर’ कहा जाता था?
33. अंग्रेजों ने पहले धनी, कारोबारी वर्ग को अंग्रेजी शिक्षा देने का विकल्प क्यों चुना?
32. ब्रिटिश शासन के शुरुआती दौर में भारत में शिक्षा की स्थिति कैसी थी?
31. मानव अंग-विच्छेद की प्रक्रिया में हिस्सा लेने वाले पहले हिन्दु चिकित्सक कौन थे?
30. भारत के ठग अपने काम काे सही ठहराने के लिए कौन सा धार्मिक किस्सा सुनाते थे?
29. भारत से सती प्रथा ख़त्म करने के लिए अंग्रेजों ने क्या प्रक्रिया अपनाई?
28. भारत में बच्चियों को मारने या महिलाओं को सती बनाने के तरीके कैसे थे?
27. अंग्रेज भारत में दास प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथाएँ रोक क्यों नहीं सके?
26. ब्रिटिश काल में भारतीय कारोबारियों का पहला संगठन कब बना?
25. अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों ने भारतीय उद्योग धंधों को किस तरह प्रभावित किया?
24. अंग्रेजों ने ज़मीन और खेती से जुड़े जो नवाचार किए, उसके नुकसान क्या हुए?
23. ‘रैयतवाड़ी व्यवस्था’ किस तरह ‘स्थायी बन्दोबस्त’ से अलग थी?
22. स्थायी बंदोबस्त की व्यवस्था क्यों लागू की गई थी?
21: अंग्रेजों की विधि-संहिता में ‘फौज़दारी कानून’ किस धर्म से प्रेरित था?
20. अंग्रेज हिंदु धार्मिक कानून के बारे में क्या सोचते थे?
19. रेलवे, डाक, तार जैसी सेवाओं के लिए अखिल भारतीय विभाग किसने बनाए?
18. हिन्दुस्तान में ‘भारत सरकार’ ने काम करना कब से शुरू किया?
17. अंग्रेजों को ‘लगान का सिद्धान्त’ किसने दिया था?
16. भारतीयों को सिर्फ़ ‘सक्षम और सुलभ’ सरकार चाहिए, यह कौन मानता था?
15. सरकारी आलोचकों ने अंग्रेजी-सरकार को ‘भगवान विष्णु की आया’ क्यों कहा था?
14. भारत में कलेक्टर और डीएम बिठाने की शुरुआत किसने की थी?
13. ‘महलों का शहर’ किस महानगर को कहा जाता है?
12. भारत में रहे अंग्रेज साहित्यकारों की रचनाएँ शुरू में किस भावना से प्रेरित थीं?
11. भारतीय पुरातत्व का संस्थापक किस अंग्रेज अफ़सर को कहा जाता है?
10. हर हिन्दुस्तानी भ्रष्ट है, ये कौन मानता था?
9. किस डर ने अंग्रेजों को अफ़ग़ानिस्तान में आत्मघाती युद्ध के लिए मज़बूर किया?
8.अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को किसकी मदद से मारा?
7. सही मायने में हिन्दुस्तान में ब्रिटिश हुक़ूमत की नींव कब पड़ी?
6.जेलों में ख़ास यातना-गृहों को ‘काल-कोठरी’ नाम किसने दिया?
5. शिवाजी ने अंग्रेजों से समझौता क्यूँ किया था?
4. अवध का इलाका काफ़ी समय तक अंग्रेजों के कब्ज़े से बाहर क्यों रहा?
3. हिन्दुस्तान पर अंग्रेजों के आधिपत्य की शुरुआत किन हालात में हुई?
2. औरंगज़ेब को क्यों लगता था कि अकबर ने मुग़ल सल्तनत का नुकसान किया? 
1. बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के बावज़ूद हिन्दुस्तान में मुस्लिम अलग-थलग क्यों रहे?

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