अंग्रेजों ने पहले धनी, कारोबारी वर्ग को अंग्रेजी शिक्षा देने का विकल्प क्यों चुना?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 18/9/2021

उस दौर में अंग्रेजी शिक्षा के लिए न सिर्फ भारतीयों, ख़ास तौर पर बंगाल में, उत्कट इच्छा दिख रही थी। ब्रिटेन के सुधारकों, राजनीतिक विचारकों का प्रभाव भी इसके पीछे था। जाने-माने मिशनरी डॉक्टर डफ ने इस बारे में लिखते हैं, “कलकत्ता में पश्चिमी शिक्षा के लिए जोश अटूट था। लोगों ने इसके लिए सड़कों पर हमारा पीछा किया। हमारी पालकियों के दरवाज़े खुलवाए। वे लगातार हमारे सामने अपनी दलीलें इस तरह पेश करते रहे कि उन्हें सुनकर पत्थर भी पिघल जाए।” हालाँकि पत्थर पहले ही पिघल चुका था। उस समय लॉर्ड विलियम बेंटिंक कई सुधारों में लगे हुए थे। लिहाज़ा, इसी रौ में उन्होंने लोकशिक्षण समिति को पत्र लिख भेजा। यह 1829 की बात है। इसमें लिखा, “वायसराय की परिषद को यह कहने में अब कोई हिचक नहीं है कि आप अपने निरीक्षण, निर्देशन में स्थानीय शिक्षण संस्थानों से संबंधित ज़रूरी घोषणाएँ करें। यह स्पष्ट करें कि ब्रिटिश सरकार की स्वीकृत नीति और इच्छा है कि धीरे-धीरे अपनी भाषा (अंग्रेजी) को पेश किया जाए। फिर कालक्रम से उसे पूरे देश में सार्वजनिक कामकाज़ की भाषा बनाया जाए। यह काम करने के लिए परिषद आपको सभी तरह की मदद देने का कोई अवसर नहीं छोड़ेगी।”

लेकिन इस समय लोकशिक्षण समिति ही दो धड़ों में बँटी हुई थी। इसमें एक वर्ग पूरबिया विचार और शिक्षा का समर्थक था। जबकि दूसरा अंग्रेजीकरण का। इस बीच, निजी स्तर पर अंग्रेजी माध्यम के शिक्षण संस्थानों के प्रसार की कोशिशें भी जारी थीं। इनमें पश्चिमी विषयों की शिक्षा पर जोर दिया जा रहा था। इधर, पूरबिया शिक्षा के समर्थकों का आधार कमज़ोर हो रहा था। लिहाज़ा सात मार्च 1835 को पारित एक संकल्प के जरिए उच्च शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने-लिखाने के फ़ैसले की घोषणा कर दी गई। इसके पहले ही पैराग्राफ में लिखा था, “वायसराय का मानना है कि भारत के लोगों के बीच यूरोपीय साहित्य और विज्ञान को बढ़ावा देना ब्रिटिश सरकार का कर्त्तव्य होना चाहिए। लिहाज़ा इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अब शिक्षा के क्षेत्र में जितना भी धन आवंटित होगा, पूरा सिर्फ़ अंग्रेजी शिक्षण पर ख़र्च किया जाएगा।”

इस फ़ैसले ने बढ़ते भारतीय मध्यवर्ग की माँग को पूरा किया। साथ ही, अर्थव्यवस्था की कुछ मूलभूत समस्याओं का समाधान भी दिया। कारण कि सरकार के संसाधन सीमित थे। वहीं, किसी भी परियोजना के लिए भारतीय भाषाओं में पुस्तकों का अनुवाद कराने जैसे काम ख़र्चीले भी साबित हो रहे थे। इसलिए सभी व्यावहारिक विचार अंग्रेजी माध्यम की किताबों के समर्थन में थे। बहरहाल, इसके साथ सरकार का यह भी मानना था कि आबादी के कुछ निश्चित वर्गों को पहले अंग्रेजी शिक्षा दी जानी चाहिए। फिर वे लोग इसे अन्य लोगों तक पहुँचाएँ। इस बारे में चार्ल्स ट्रेवेलियन ने लिखा था, “सबसे पहले धनी, बुद्धिजीवी और कारोबारी वर्ग लाभान्वित होंगे। शिक्षकों का नया वर्ग तैयार किया जाएगा। कालांतर में हम अपने क्रिया-कलापों का विस्तार करेंगे।… वैसे, अमीरों के प्रति समिति की चिंताओं की तुलना में ग़रीब आदमी किसी तरह कमतर नहीं है। मग़र चूँकि संसाधन सीमित हैं, इसलिए चयन ज़रूरी है। इसीलिए शिक्षा समिति ने पहले उच्च और मध्य वर्ग को शिक्षित करने का विकल्प चुना है। वे बहुत जल्द इस लायक हो सकेंगे कि अपने लाभों को, अनुभवों को, शिक्षा को बाकी लोगों तक पहुँचा सकें।” 

पश्चिमी शिक्षा अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध कराए जाने के पीछे यद्यपि आर्थिक उद्देश्य सबसे ऊपर था। लेकिन इसमें अन्य उद्देश्य भी निहित थे। जैसे कि ईसाई धर्म का प्रसार और धर्मांतरण। यह मैकॉले के एक पत्र से भी स्पष्ट होता है, जो उन्होंने अपने पिता को 1816 में लिखा था। इसमें भविष्यवाणी की थी कि अगले “30 साल के भीतर बंगाल के अभिजात्य वर्ग में कोई भी मूर्ति-उपासक नहीं रहेगा।” तमाम भारतीय भी इस बात को जानते थे कि अंग्रेजी शिक्षा उपलब्ध कराने के पीछे अंग्रेजों का मक़सद धर्मांतरण है। जब मिशनरियों ने इस शिक्षा के इंतज़ाम शुरू किए तो यह मक़सद स्पष्ट नज़र आने लगा था। जैसे, कलकत्ता में 1820 में बिशप महाविद्यालय की स्थापना की गई थी। उसमें किसी ग़ैर-ईसाई को दाख़िला ही नहीं मिलता था। इस महाविद्यालय का मुख्य उद्देश्य ही यही था कि वह ऐसे मिशनरी तैयार करे, जो बाहर जाएँ और बुतपरस्त लोगों को ईसाई धर्म में धर्मांतरित कराएँ। स्थापना के शुरुआती 25 साल तक तो इस संस्थान में कभी एक बार में 11 से ज़्यादा विद्यार्थी भर्ती ही नहीं किए गए। 

हालाँकि इन स्थितियों के बावज़ूद 1854 तक मैकॉले की उम्मीदें हक़ीक़त नहीं बन पाईं। ख़ास तौर पर धर्मांतरण के मामले में। इसके उलट लगातार हो रहे प्रशासनिक सुधारों के कारण बड़ी तादाद में उच्च शिक्षित भारतीय सरकारी सेवाओं में शामिल हो रहे थे। उनकी ज़िम्मेदारियाँ और शक्तियाँ भी बढ़ रही थीं। ख़ास तौर पर न्यायिक और राजस्व शाखाओं में। इस तरह अंग्रेजी शिक्षा इन लोगों को हर तरह से सक्षम बना रही थी। शायद इसीलिए अंग्रेजी शिक्षा के प्रयासों को कलकत्ता के व्यावसायिक वर्ग का भी पूरा समर्थन मिल रहा था। लेकिन यहीं, मैकॉले और उनके जैसे सोचने वालों को वह भविष्य भी दिख रहा था, जिसमें ‘पश्चिमी सभ्यता’ का स्वाद चख चुके भारतीय लोग भारत में यूरोपियन संस्थान माँगने लगें। या हो सकता है कि ब्रिटेन से आज़ादी की माँग ही करने लगें। 

अलबत्ता, विदेशी शासन के सामने अभी तात्कालिक समस्या थी, किसी संभावित जनविद्रोह को टालने की। चार्ल्स ट्रेविलियन जैसे विचारक-प्रशासक मानकर चल रहे थे कि अंग्रेजी शिक्षा यहाँ भी अपनी भूमिका निभा सकती है। उन्होंने लिखा था, “अंग्रेजी शिक्षा हासिल करने वाले वर्ग को पता होगा कि उनके देश का उत्थान सिर्फ हमारी अधीनता में, हमारी सुरक्षा में ही हो पाएगा। इसलिए वह हर हाल में हमसे चिपका रहेगा।… परिवर्तन आएगा, लेकिन धीरे-धीरे। कोई संघर्ष नहीं होगा। कोई रोष नहीं फैलेगा। स्थानीय लोगों को आज़ादी मिलेगी मग़र तब जबकि वे सीख जाएँगे कि इसका बेहतर इस्तेमाल कैसे करें। इस तरह हम अंग्रेजी शिक्षा के ज़रिए एक लाभदायक अधीनस्थ (भारतीय समुदाय) को अधिक मुनाफ़ा देने वाले सहयोगी में बदल देंगे।… वह हमारी शिक्षा और हमारे संस्थानों से लैस होगा। इस तरह इस वैभवशाली देश के साथ हमारे और बेहतर व्यावसायिक संबंध होंगे। जिससे हम ज्यादा लंबे समय तक मुनाफ़ा काटेंगे।”

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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पिछली कड़ियाँ : 
32. ब्रिटिश शासन के शुरुआती दौर में भारत में शिक्षा की स्थिति कैसी थी?
31. मानव अंग-विच्छेद की प्रक्रिया में हिस्सा लेने वाले पहले हिन्दु चिकित्सक कौन थे?
30. भारत के ठग अपने काम काे सही ठहराने के लिए कौन सा धार्मिक किस्सा सुनाते थे?
29. भारत से सती प्रथा ख़त्म करने के लिए अंग्रेजों ने क्या प्रक्रिया अपनाई?
28. भारत में बच्चियों को मारने या महिलाओं को सती बनाने के तरीके कैसे थे?
27. अंग्रेज भारत में दास प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथाएँ रोक क्यों नहीं सके?
26. ब्रिटिश काल में भारतीय कारोबारियों का पहला संगठन कब बना?
25. अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों ने भारतीय उद्योग धंधों को किस तरह प्रभावित किया?
24. अंग्रेजों ने ज़मीन और खेती से जुड़े जो नवाचार किए, उसके नुकसान क्या हुए?
23. ‘रैयतवाड़ी व्यवस्था’ किस तरह ‘स्थायी बन्दोबस्त’ से अलग थी?
22. स्थायी बंदोबस्त की व्यवस्था क्यों लागू की गई थी?
21: अंग्रेजों की विधि-संहिता में ‘फौज़दारी कानून’ किस धर्म से प्रेरित था?
20. अंग्रेज हिंदु धार्मिक कानून के बारे में क्या सोचते थे?
19. रेलवे, डाक, तार जैसी सेवाओं के लिए अखिल भारतीय विभाग किसने बनाए?
18. हिन्दुस्तान में ‘भारत सरकार’ ने काम करना कब से शुरू किया?
17. अंग्रेजों को ‘लगान का सिद्धान्त’ किसने दिया था?
16. भारतीयों को सिर्फ़ ‘सक्षम और सुलभ’ सरकार चाहिए, यह कौन मानता था?
15. सरकारी आलोचकों ने अंग्रेजी-सरकार को ‘भगवान विष्णु की आया’ क्यों कहा था?
14. भारत में कलेक्टर और डीएम बिठाने की शुरुआत किसने की थी?
13. ‘महलों का शहर’ किस महानगर को कहा जाता है?
12. भारत में रहे अंग्रेज साहित्यकारों की रचनाएँ शुरू में किस भावना से प्रेरित थीं?
11. भारतीय पुरातत्व का संस्थापक किस अंग्रेज अफ़सर को कहा जाता है?
10. हर हिन्दुस्तानी भ्रष्ट है, ये कौन मानता था?
9. किस डर ने अंग्रेजों को अफ़ग़ानिस्तान में आत्मघाती युद्ध के लिए मज़बूर किया?
8.अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को किसकी मदद से मारा?
7. सही मायने में हिन्दुस्तान में ब्रिटिश हुक़ूमत की नींव कब पड़ी?
6.जेलों में ख़ास यातना-गृहों को ‘काल-कोठरी’ नाम किसने दिया?
5. शिवाजी ने अंग्रेजों से समझौता क्यूँ किया था?
4. अवध का इलाका काफ़ी समय तक अंग्रेजों के कब्ज़े से बाहर क्यों रहा?
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2. औरंगज़ेब को क्यों लगता था कि अकबर ने मुग़ल सल्तनत का नुकसान किया? 
1. बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के बावज़ूद हिन्दुस्तान में मुस्लिम अलग-थलग क्यों रहे?

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