माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 16/9/2021
नि:संदेह पश्चिमीकरण के कुछ ज़ाहिर पहलुओं को लेकर भारत में आशंकाएँ थीं। उदाहरण के तौर पर ब्रिटिश न्याय व्यवस्था, जिसके बारे में मैकॉले ने लिखा था, “वॉरेन हेस्टिंग्स के समय सर्वोच्च न्यायालय आतंक का प्रतीक बन गया था। यह अजनबी न्यायालय कब, क्या करेगा, कोई नहीं जानता था। इसमें एक भी ऐसा न्यायाधीश नहीं था जो उन लाखों लोगों की भाषा ठीक से समझे, जिनके संबंध में उसे फ़ैसले सुनाने थे। इसका पूरा रिकॉर्ड अनजान भाषा में लिखा और रखा जाता था। फ़ैसले अजनबी भाषा में सुनाए जाते थे।… इस सर्वोच्च न्यायालय के न्याय की तुलना में पिछले अत्याचारी शासकों के अन्याय भी किसी आशीर्वाद की तरह लगने लगे थे। फिर वे शासक चाहे एशियाई रहे हों या यूरोपीय।”
लोगों के पास अदालतों से डरने के पर्याप्त कारण थे। चूँकि दीवानी अदालतें मुख्य रूप से संपत्ति के अधिकारों के मामलों की सुनवाई करती थीं। या कर्ज़ आदि से जुड़े मामले वहाँ पहुँचते थे। इनमें फ़ैसले दस्तावेज़ी सबूतों से होते थे। जबकि भारत में ऐसे दस्तावेज़ का चलन नहीं था। सो, इसका मतलब ये भी होता था कि यदि मामला अदालत पहुँचा तो किसान के हाथ से ज़मीन खिसकना तय है। हालाँकि यूरोपीय न्यायाधीशों से कैसे काम निकलवाना है, इसकी जुगत लगाने में भारतीयों को भी समय नहीं लगा। इस बारे में चार्ल्स मेटकाफ लिखते हैं, “हमारी अदालतों में भयानक भ्रष्टाचार दिखने लगा है। यूरोपीय न्यायाधीश तमाम साज़िशों के बीच अदालतों में बैठते हैं। अदालत के अधिकारियों में वे किसी पर भरोसा नहीं कर सकते।… यहाँ याचिका लगाने वालों में न्याय के लिए सम्मान का ज़रा भी भाव नहीं है।” फिर भी, उस समय कानून भय का कारण ही अधिक था। उसने आततायियों का नया वर्ग भी पैदा कर दिया था। यह वर्ग अपने थोड़े ज्ञान के आधार पर अदालतों में अर्ज़ियाँ लगाकर किसानों का शोषण कर रहा था। इससे ऐसा लगने लगा था, जैसे अन्याय के ख़िलाफ़ सुरक्षा कवच बनने के बज़ाय कानून का शासन ही उत्पीड़न का ज़रिया बन गया हो। यह सिलसिला ब्रिटिश शासन के अंत तक चलता रहा।
इसके बाद प्रश्न लोकस्वास्थ्य का। अंग्रेज सरकार पर इस क्षेत्र में काम करने का सही दबाव तब बना, जब इंग्लैंड में पहला लोकस्वास्थ्य अधिनियम (1848 में) पारित हुआ। इससे पहले ईस्ट इंडिया कंपनी ने शुरू-शुरू में अपने सभी ठिकानों पर एक-एक चिकित्सक मुहैया कराया था। उसे सर्जन कहा जाता था। फिर इन ठिकानों पर 1664 में अस्पताल स्थापित किए गए। लेकिन उनकी साख अच्छी नहीं थी। तब कहा जाता था कि मरीज के ठीक होने की संभावना तभी ज़्यादा है, जब वह इन अस्पतालों से दूर रहे। ऐसे में अंग्रेज चिकित्सकों की सेवाएँ कंपनी के कर्मचारियों, सैनिकों और स्थानीय जेलों में बंद कैदियों तक सीमित रहीं। बहरहाल, 18वीं सदी के आख़िर में कलकत्ता में भारतीयों के लिए पहला अस्पताल खोला गया। फ़िर 1800 के आस-पास ऐसे अस्पताल बम्बई, मद्रास में भी खोले गए। इसके बाद 1840 तक अंग्रेजों के अधिकार वाले कई शहरों में दर्जन भर से अधिक अस्पताल खोले जा चुके थे।
इस बीच, 1822 में भारतीयों को पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान का प्रशिक्षण देने के लिए कलकत्ता में एक विद्यालय खोला गया। लेकिन वहाँ शुरू-शुरू में कंपनी के चिकित्सा अधिकारियों के लिए सहायकों की आपूर्ति के मक़सद से ही काम अधिक हुआ। वहाँ “सिर्फ़ एक अध्यापक था। विद्यार्थियों के लिए छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ भर थीं। अंग-विच्छेद का अभ्यास करने के लिए भी छोटे-मोटे जानवर ही उपलब्ध थे। इस तरह आधे-अधूरे संसाधनों व तौर-तरीकों से वह अधूरा और अव्यावहारिक ज्ञान संचारित कर रहा था।” इसके अलावा स्वदेशी चिकित्सा पद्धतियाँ भी थीं। मुख्य रूप से दो प्रचलित थीं। पहली- हिंदु समाज में लोकप्रिय आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति। दूसरी- मुसलिम समाज में प्रचलित यूनानी चिकित्सा पद्धति। हालाँकि ये दोनों पद्धतियाँ अपने-अपने मामलों में जड़ और कठोर हो चुकी थीं। वे न नए प्रयोगों की इजाज़त दे रही थीं और न दूसरी चिकित्सा पद्धतियों से कुछ सीखने, लेने को तैयार थीं। उनमें अंधविश्वास का मुलम्मा भी चढ़ गया था। इसके चलते 18वीं सदी तक उनका पतन भी स्पष्ट दिखने लगा था।
इसके बाद 1835 में कलकत्ता चिकित्सा महाविद्यालय की स्थापना हुई। मग़र वहाँ शुरू में अधिकांश विद्यार्थी मुसलिम ही थे। कारण कि उन्हें चीर-फाड़ से परहेज़ नहीं था। जबकि हिंदु परंपराओं में मृत देह को छूना ग़लत माना जाता था। हालाँकि इस दौरान एक हिंदु चिकित्सक मधुसूदन गुप्त ने हौसला दिखाया। उन्होंने मानव अंग-विच्छेद की प्रक्रिया में हिस्सा लिया। ये जनवरी 1836 की बात है। इससे वे प्रगतिशील विचार के समर्थकों में नायक की तरह देखे जाने लगे। अंग्रेज सरकार तो इस घटना से इतनी उत्साहित हो गई कि उसने फोर्ट विलियम से तोपों की सलामी तक दे डाली।
बहरहाल, कुछ सालों के भीतर बम्बई (1848) और मद्रास (1852) में भी चिकित्सा महाविद्यालयों की स्थापना हो गई। इन चिकित्सा महाविद्यालयों से जो भारतीय विद्यार्थी पढ़कर निकल रहे थे, उनसे यही अपेक्षा थी कि वे अधीनस्थ सरकारी सेवा में ही शामिल होंगे। उन्हें भारतीय चिकित्सा सेवा में भी शामिल होने की इजाज़त नहीं थी क्योंकि वह यूरोपीय समुदाय के लिए आरक्षित थी। हालाँकि कुछ समय बाद भारतीयों को विभिन्न चिकित्सालयों का प्रभार देना ही पड़ा। लेकिन इससे कठिनाइयाँ भी हुईं, क्योंकि अधिकांश यूरोपीय नागरिक नहीं चाहते थे कि भारतीय चिकित्सक उनका इलाज़ करें।
फिर भी स्थानीय लोगों में इन चिकित्सकों की माँग होने लगी। इसका असर ये हुआ कि “पढ़ाई पूरी करने के बाद भारतीय चिकित्सक सरकारी नौकरी तक से इंकार कर देते थे। ताकि वे निजी प्रैक्टिस कर सकें।” पर उनकी सेवाएँ भी मुख्य शहरों तक सीमित रहीं। बहुसंख्य लोगों के लिए न सरकार और न निजी प्रैक्टिस वाले चिकित्सक ही, कोई सेवा उपलब्ध करा रहे थे। निरोधक दवाओं की स्थिति भी उन्नत नहीं थी। स्वीकार्यता का भी संकट था। जैसे- भारत में 19वीं सदी के शुरू में चेचक का टीका आ गया था। लेकिन भारतीय ही नहीं, यूरोपीय समुदाय के लोगों ने भी इसे सहज स्वीकार नहीं किया। ईसाई मिशनरियों ने भी चिकित्सा सेवा के काम किए। ख़ास तौर पर कुष्ठ रोगियों के लिए। लेकिन उनका चिकित्सकीय ज्ञान भी चूँकि सीमित था इसलिए वे भी एक सीमा में ही काम कर सकीं।
(जारी…..)
अनुवाद : नीलेश द्विवेदी
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(‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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पिछली कड़ियाँ :
30. भारत के ठग अपने काम काे सही ठहराने के लिए कौन सा धार्मिक किस्सा सुनाते थे?
29. भारत से सती प्रथा ख़त्म करने के लिए अंग्रेजों ने क्या प्रक्रिया अपनाई?
28. भारत में बच्चियों को मारने या महिलाओं को सती बनाने के तरीके कैसे थे?
27. अंग्रेज भारत में दास प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथाएँ रोक क्यों नहीं सके?
26. ब्रिटिश काल में भारतीय कारोबारियों का पहला संगठन कब बना?
25. अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों ने भारतीय उद्योग धंधों को किस तरह प्रभावित किया?
24. अंग्रेजों ने ज़मीन और खेती से जुड़े जो नवाचार किए, उसके नुकसान क्या हुए?
23. ‘रैयतवाड़ी व्यवस्था’ किस तरह ‘स्थायी बन्दोबस्त’ से अलग थी?
22. स्थायी बंदोबस्त की व्यवस्था क्यों लागू की गई थी?
21: अंग्रेजों की विधि-संहिता में ‘फौज़दारी कानून’ किस धर्म से प्रेरित था?
20. अंग्रेज हिंदु धार्मिक कानून के बारे में क्या सोचते थे?
19. रेलवे, डाक, तार जैसी सेवाओं के लिए अखिल भारतीय विभाग किसने बनाए?
18. हिन्दुस्तान में ‘भारत सरकार’ ने काम करना कब से शुरू किया?
17. अंग्रेजों को ‘लगान का सिद्धान्त’ किसने दिया था?
16. भारतीयों को सिर्फ़ ‘सक्षम और सुलभ’ सरकार चाहिए, यह कौन मानता था?
15. सरकारी आलोचकों ने अंग्रेजी-सरकार को ‘भगवान विष्णु की आया’ क्यों कहा था?
14. भारत में कलेक्टर और डीएम बिठाने की शुरुआत किसने की थी?
13. ‘महलों का शहर’ किस महानगर को कहा जाता है?
12. भारत में रहे अंग्रेज साहित्यकारों की रचनाएँ शुरू में किस भावना से प्रेरित थीं?
11. भारतीय पुरातत्व का संस्थापक किस अंग्रेज अफ़सर को कहा जाता है?
10. हर हिन्दुस्तानी भ्रष्ट है, ये कौन मानता था?
9. किस डर ने अंग्रेजों को अफ़ग़ानिस्तान में आत्मघाती युद्ध के लिए मज़बूर किया?
8.अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को किसकी मदद से मारा?
7. सही मायने में हिन्दुस्तान में ब्रिटिश हुक़ूमत की नींव कब पड़ी?
6.जेलों में ख़ास यातना-गृहों को ‘काल-कोठरी’ नाम किसने दिया?
5. शिवाजी ने अंग्रेजों से समझौता क्यूँ किया था?
4. अवध का इलाका काफ़ी समय तक अंग्रेजों के कब्ज़े से बाहर क्यों रहा?
3. हिन्दुस्तान पर अंग्रेजों के आधिपत्य की शुरुआत किन हालात में हुई?
2. औरंगज़ेब को क्यों लगता था कि अकबर ने मुग़ल सल्तनत का नुकसान किया?
1. बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के बावज़ूद हिन्दुस्तान में मुस्लिम अलग-थलग क्यों रहे?