संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 11/9/2021
सुनता है गुरु ज्ञानी, गगन में आवाज़ हो रही झीनी-झीनी।
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अड़सठ घाट भीतर हैं, कहाँ जाना है? न गंगा, न यमुना, सुमिरन कर ले मेरे मना, मन चंगा तो कठौती में ही गंगा है। बीती जा रही है, सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नही हैं। इसी घट अन्तर बाग-बग़ीचे, पर भागना रुक नहीं रहा है। सोचने-समझने को तैयार नहीं हैं।
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हमने कन्दराओं में बैठे साधु देखे। ज़मीन की तलहटी में ईश्वर। पहाड़ों पर देवियाँ। नदियों की धार में साक्षात् प्रकृति की लीला। समुद्र का रौद्र रूप। आसमान से बरसता नेह और आग भी। चमत्कारों के बीच अपने पैदा होने को भी प्रारब्ध माना। लेकिन जब मौत के आग़ोश में समाए तो शाश्वतता और क्षणभंगुरता समझ में आई।
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दौड़ते-भागते सब कुछ पाने की अनन्त इच्छा ने हमें बहुत क्रूरता और भावुकता के बीच झुला दिया। देह चन्द्रमा और सूरज की गति के मध्य धरती और आसमान के अक्ष पर घूमती रही। अन्त में जब समय पूरा होने को आया तो आत्मा के सवालों से जूझने लगे।
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अपने को भीड़ में रखा, सबके बीच सबके साथ होकर सब सा बन जाने को सदैव आतुर रहे। काम, क्रोध, मद और लोभ निवारण के लिए किंचित भी प्रयास नहीं किए। फिर जब शिथिल होने लगे अंग और इन्द्रियाँ तो प्रार्थना में डूबने लगे। सन्तों की खोज करने लगे कि मोक्ष पा जाएँ। बहुत बाद में समझ आया कि ‘या जग में कोई नहीं अपना’। गुरु भी डूबे हैं दर्प और माया के जाल में।
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फिर देह की चादर पसारकर मन के तम्बूरे से भजन गाने लगे। सुमिरन करने लगे पर देर हो चुकी है। नदियों की धार में अब वो उद्दाम वेग नहीं बचा। सप्तपर्णी के फूल झर चुके हैं। कचनार पर बहार नहीं है। बबूल शबाब पर है। बरगद ने छाँव देने से मना कर दिया है। यह घर ही सबसे न्यारा है देह का। इसकी परवाह में ऐसे लगे कि फिर सन्ताप अवसाद ओढ़ लिए।
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पहाड़ों की चोटियों पर निर्जन होता ही है। पर वहाँ जाने पर जो पूर्णता का एहसास होता है उससे सुख-दुख, पाप-पुण्य, दिन-रात का भेद समाप्त हो जाता है। मग़र अब वो भी रीतता सा लग रहा है। ज्ञान, जप, तप, प्रवर्ज्या और कर्मों से भी मुक्त होता लग रहा है।
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पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है। मेरा मानना है कि शरीर में जब पाँच तत्त्व आपस में घुलमिल जाते हैं सम्पूर्ण रूप से, तो हम पूर्णता को प्राप्त होते हैं। बस, ठीक इसी हिमांक बिन्दु पर सब जमता है और गलता भी है, आहिस्ते से।
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नीले गाढ़े रंग को जब भी गहराई से देखता हूँ तो लगता है यह एक उद्दीपन भाव से भरा हुआ रंग है। न्यारा है और विभेद करने का श्रेष्ठ संयोजन है। पर इसे अन्दर तक उतरते देखता हूँ तो कुछ नहीं कह पाता। कबीर कहते हैं, ‘जब राम निरंजन न्यारा रे’, तो मुझे सब कुछ धुन्ध में धुँधला होता दिखता है। आवाज़ें तेज होकर मन्द होती जाती हैं। चहुँ ओर उठते हाहाकार के स्वर, मौत के दृश्य हैरान करते हैं।
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सुनता है गुरु ज्ञानी, गगन में आवाज़ हो रही झीनी-झीनी…
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 27वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ ये रहीं :
26वीं कड़ी : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25वीं कड़ी : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24वीं कड़ी : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23वीं कड़ी : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22वीं कड़ी : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा
21वीं कड़ी : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो
20वीं कड़ी : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं
19वीं कड़ी : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें!
18वीं कड़ी : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा
17वीं कड़ी : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!
16वीं कड़ी : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?
15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..
14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…
13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा
12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं
11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है
10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!
नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…
आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!