माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 4/9/2021
यद्यपि मैकॉले सही थे। इसके बावज़ूद ध्यान रखने की बात है कि भारत की पत्रकारिता उस वक़्त लगभग पूरी तरह यूरोपीय समाचार जगत के हाथ में थी। इसमें अधिकांशत: ब्रिटिश समुदाय के हितों की वक़ालत ही की जाती थी। ऐसी पत्रकारिता बहुत कम थी जो ‘आम राय’ से प्रभावित हो, या उस पर असर डाले। फिर भाषा भी अंग्रेजी थी उसकी और अधिकांश भारतीय हिंदी भाषी। इससे स्वाभाविक तौर पर इसमें उन्हीं की राय प्रदर्शित होती थी, जो अंग्रेजी पढ़ना-लिखना जानते थे। बहुसंख्य लोगों की राय इसमें नहीं ही होती थी। इसीलिए तब सरकार ने तय किया था कि जब भी कोई कानून बने, तो उसका भिन्न-भिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराया जाएगा। अलबत्ता, यह प्रयास ‘सिर्फ़ सूचना के लिए’ था। किसी ‘प्रस्तावित कानून’ पर आम जनता की राय लेने के लिए नहीं था। प्रस्तावित कानून का मसौदा तो सिर्फ़ अंग्रेजी में ही प्रकाशित किया जाता था। इस पर वायसराय परिषद के विचार संक्षेप में पत्र के माध्यम से सरकार को भेजे जाते थे। इनमें वह तरीका भी बताया जाता था कि किस कानून को कैसे जनता के सामने रखना है। रखना भी है, या नहीं।
जैसे, वायसराय परिषद ने एक बार किसी कानून के संबंध में सरकार को सुझाया, “यह उचित ही होगा कि प्रस्तावित विधेयक के कानून बनने से पहले उसके मसौदे से मूल निवासी समुदाय (भारतीय) भी अच्छी तरह परिचित हो। इस पर वायसराय की परिषद को कोई संदेह नहीं कि इससे सरकार को प्रस्तावित कानून पर कुछ अच्छे सुझाव ही मिलेंगे। लेकिन आशंका है कि इस प्रक्रिया में बहुत समय बरबाद हो जाएगा। ऐसे में, स्वाभाविक सी बात है कि इस मक़सद को हासिल करने के लिए छह सप्ताह की सूचना का समय काफ़ी नहीं होगा। इसके साथ ही, समाज की वर्तमान स्थिति को देखते हुए अगर सरकारी कानूनों पर पूरे भारतीय समुदाय की राय ली गई तो और भी तमाम दिक्क़तें हो सकती हैं।”
बहरहाल, 1838 तक भारत में सुधारों की पर्याप्त अवधि पूरी हो चुकी थी। बेंटिंक 1835 में लंदन लौट चुके थे। इसके बाद इस दिशा में मामूली ही प्रगति हुई। इसी दौरान, 1836 में जेम्स मिल की मृत्यु हो गई। उनके साथ वह विचार भी मृतप्राय हो गया, जो मनुष्य की पूर्णता पर भरोसा करता था। जो मानता था कि राजनीतिक संस्थानों से यह लक्ष्य हासिल हो सकता है। हालाँकि अंग्रेजों ने सिंध और पंजाब में सरकारों का स्वरूप काफी-कुछ वैसा ही बनाया, जैसा मिल सोचते थे। वहाँ न्यायिक और कार्यपालिक शक्तियों में अलगाव नहीं था। शासन का नियंत्रण उच्च अनुशासित लोगों की संस्था के हाथ में था। वहां, मैदानी प्रशासनिक अमले को विवेक से निर्णय लेने का अधिकार था। लेकिन उनके निर्णयों के ख़िलाफ़ ऊपर अपील की जा सकती थी। इसलिए हर अफसर को आलेख-अभिलेख, लिखित प्रमाण सुरक्षित रखने पड़ते थे। कारण कि कोई भी मामला ऊपर पहुँचा तो उसे निजी तौर पर पूरी जानकारी लेकर पेश होना पड़ता था। जिला अधिकारियों का भी नियमित निरीक्षण होता था।
पंजाब की यह व्यवस्था, वास्तव में, वैसी ही थी जैसी चार्ल्स मैटकाफ ने अपनाई थी। मैटकाफ अधिनायकवादी विचार के समर्थक थे। उन्होंने जब 1811 से 1819 और 1825 से 1827 तक दिल्ली के शासन की बागडोर संभाली, तो ऐसी ही व्यवस्था लागू की थी। हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं था कि पंजाब में अधिनायकवादी व्यवस्था को पुनर्जीवित कर दिया गया था। बल्कि वह बेहद सक्षम व्यवस्था थी, जिसे सख्त सैन्य प्रशासन की तरह लागू किया गया था। ताकि कम से कम समय में नतीज़े मिलें। नियमित आंकड़े, जानकारियों आदि के संग्रह के मामले में इस व्यवस्था पर उपयोगितावादी प्रभाव भी स्पष्ट झलकता था। इस व्यवस्था से जुड़ी प्रशंसा भले जॉन लॉरेंस के ख़ाते में अधिक गई, लेकिन इसे ज़्यादा प्रोत्साहित किया लॉर्ड डलहौजी ने, जो 1848 से 1856 तक भारत के वायसराय रहे।
डलहौजी उपयोगितावादी मंशा के अधिनायकवादी सुधारक थे। वह किसी एक राजनैतिक विचार से चिपके नहीं रहे। वह भारतीय राजाओं और उनकी शासन व्यवस्था को अराजक मानते थे। उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाकर खुश होते थे। वह सक्रिय रूप से आधुनिकीकरण करने वाले व्यक्ति थे। भारत को आधुनिक देश के रूप में बदलने की मंशा रखते थे। उन्होंने देश में लोक-अभियांत्रिकी (सिविल इंजीनियरिंग), रेलवे, डाक सेवा, तार सेवा, आदि का काम देखने के लिए नए अखिल भारतीय विभाग बनाए। डलहौजी मूल रूप से दो सिद्धांतों पर काम करते थे। पहला- प्रबंधन में एकरूपता और दूसरा- एक सत्ता। उन्होंने विधायी परिषद को एक संसद के रूप में परिवर्तित करने के प्रयासों को भी प्रोत्साहित किया। साथ ही परिषद में भारतीय सदस्यों की नियुक्ति की भी वक़ालत की।
इस बीच, 1853 में अधिकार पत्र कानून के नवीनीकरण का समय आ गया। इस समय तक यह स्पष्ट हो चुका था कि कंपनी-शासन का समय खत्म हो चला है। और वह समय भी ज़्यादा दूर नहीं जब ब्रिटिश ताज पूरी प्रशासनिक शक्तियाँ अपने हाथ में ले लेगा। इससे कुछ अनिश्चितताएँ भी बन रही थीं। फिर भी मौज़ूदा शासन-व्यवस्था पर डलहौजी का प्रभाव बना हुआ था। इससे बदलाव की गतिविधियाँ भी चलती रहीं। उन्हें उन सभी का समर्थन मिलता रहा, जो भारत में रुचि रखते थे। फिर चाहे वे सरकार और शासन प्रणाली के विचारक हों या फिर अपना मुनाफ़ा बढ़ाने की मंशा रखने वाले कारोबारी।
वह दौर इंग्लैंड के उद्योग-प्रधान वर्ग में समृद्धि की नई लहर पैदा कर रहा था। कारण कि आर्थिक मंदी के हालात ख़त्म हो चुके थे। इधर, भारत रेलवे युग में प्रवेश करने को तैयार था। चार्ल्स ट्रेविलियन ने 1838 में रेलवे को ऐसा साधन बताया था, जिससे ‘समाज का पूरा ढाँचा प्रेरित और उत्साहित होगा। सभी तरह की प्रगति, चाहे वह भौतिक हो या नैतिक, तेज हो जाएगी।’ इस तरह शिक्षा और व्यापार में सुधार के लक्ष्य का यह नया विचार अंग्रेजों को 1857 के विद्रोह के आघात के बाद भी टिकाए रखने की भूमिका बना रहा था।
(जारी…..)
अनुवाद : नीलेश द्विवेदी
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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