टीम डायरी
रास्ता चलते हुए भी अक्सर बड़े काम की बातें सीखने को मिल जाया करती हैं। बशर्ते, कोई अपनी आँख, नाक, कान खुले रखे और दिमाग़ में थोड़ी सी गुंजाइश बनाकर रखे। हाँ, क्योंकि दिल-ओ-दिमाग़ में आजकल गुंजाइश ही तो नहीं बची है। बहुत सारा भरा हुआ है, दुनियाभर का मामला। इसीलिए हम अपने आस-पास बहुत कुछ रोज देखते हैं। रोज सुनते हैं। लेकिन दिमाग़ में कुछ ठहरता नहीं और दिल में तो उतरता ही नहीं।
हालाँकि, फिर भी कभी गुंजाइश निकले तो देखा कीजिएगा। सुना कीजिएगा। ज़िन्दगी का मर्म समझाने वाले वाक़िअे, बातें मिल जाती हैं। मसलन- कभी किसी दुकान, या खास तौर चिकित्सकों के कमरों के दरवाज़ों पर लिखा मिल जाएगा, “अपने जूते और चिन्ताएँ यहीं दरवाज़े पर छोड़ दीजिए।” कभी सोचा है कि ऐसा लिखने के पीछे कोई गहरा मतलब भी सकता है? यक़ीनन नहीं सोचा होगा। बल्कि देखा ही न हो शायद। और अगर सोचा भी होगा तो फौरी तौर पर ज़्यादा से ज़्यादा इतना ही कि जूते बाहर उतारने का निर्देश रोचक तरीक़े से लिखा है।
जबकि बात इतनी भर नहीं है। ‘रोचक’ तरीक़े से लिखा गया यह निर्देश उतना ही ‘सोचक’ भी है। यह हमें बता रहा है कि ज़िन्दगी में चिन्ताओं की हैसियत पैरों में पहने जाने वाले जूतों जितनी ही होती है। जिस तरह से जूतों को किसी भी अहम जगह से दूर रखा जाता है, मन्दिर, रसोई, घर, चिकित्सा केन्द्र, आदि के भीतर नहीं लाया जाता, वैसे ही चिन्ताओं को भी भीतर नहीं लाना चाहिए। और चिन्ताओं को सिर पर तो बिल्कुल भी नहीं रखना चाहिए। क्योंकि जूतों या उन जैसी किसी चीज़ को सिर पर रखकर घूमने वाले का दुनिया मज़ाक बनाती है।
है न पते की बात? इसी बात में तमाम मानसिक समस्याओं का इलाज़ भी है।