ए. जयजीत, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 2/9/2021
ये बादल भी न, कभी बरसते हैं, कभी नहीं। कहीं ख़ूब बरसते हैं। कहीं बिल्कुल नहीं या बहुत कम। बादलों की इस मनमानी और इससे होने वाली कुछ मूलभूत किस्म की दिक्क़तों से ख़बरनवीस परेशान। सो, जैसे ही पानी से भरे बादल का टुकड़ा एक ख़बरखोजी की छत से गुजरा, उसने उसे धर लिया। इरादा सीधे दो-टूक बात करने का था। लिहाज़ा, बिना भूमिका सीधे सवाल-ज़वाब शुरू। शुरुआत, अलबत्ता, बादल के उस टुकड़े ने की क्योंकि उसे बीच रास्ते रोक जो लिया गया था…
बादल : कौन हो भाई? क्यों रोक लिया हमें?
रिपोर्टर : मैं रिपोर्टर। आपसे बहुत जल्दी से कुछ सवाल-ज़वाब करने हैं।
बादल : अच्छा, एक ग़रीब बादल से!! तो, आपको राज कुन्द्रा के राज जानने से फुर्सत मिल गई?
रिपोर्टर : इस मामले को जल्दी ही सीबीआई को सौंपा जा सकता है। तो हमारी ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
बादल : वैसे मुझे सीबीआई पर भरोसा नहीं है। आप लोग सही तो जा रहे हैं?
रिपोर्टर : बादल महोदय, मैं आपको स्पष्ट कर दूँ कि मेरी ऐसे मामलों में खास रुचि नहीं है। मैं डेवलपमेंटल रिपोर्टर हूँ।
बादल : डेवलपमेंटल रिपोर्टर बोलने भर से कोई विकास टाइप की पत्रकारिता करने वाला पत्रकार नहीं बन जाता। जैसे, बार-बार विकास-विकास बोलने भर से विकास न हो जाता। ख़ैर, मुद्दे पर आइए। पूछिए क्या पूछना है? पर ज़रा जल्दी…
रिपोर्टर : पहला सवाल, आप बरसने में इतनी असमानता क्यों रखते हैं? कहीं घटाघोप तो कहीं एक बूँद भी नहीं?
बादल : यह सवाल कभी आपने अपने नेताओं से पूछा? उन ज़िम्मेदारों से पूछा, जिनके ऊपर समान विकास की ज़िम्मेदारी रही है?
रिपोर्टर : समझा नहीं।
बादल : अब इतने भी नासमझिए न बनो। भई, सालों से आपके नेता समाजवाद की बात करते आए हैं, लेकिन हुआ क्या? समानता आई?
रिपोर्टर : अरे आप ये कहाँ इस मस्त मौसम में फ़ालतू के सवाल लेकर बैठ गए।
बादल : शुरुआत किसने की थी?
रिपोर्टर : हाँ, ग़लती मानी, पर मेरा तो केवल इतना-सा सवाल था कि ऐसा भी क्या बरसना कि शहरों में बाढ़ आ जाए…
बादल : पत्रकार महोदय, बरसते तो हम सदियों से आए हैं। लेकिन पहले नदियों में बाढ़ आती थी। अब नदियाँ तो वैसी रही नहीं तो शहरों में आ रही है। बाढ़ कहीं तो आएगी न?
रिपोर्टर : पर आप यह भी तो मानिए न कि आपके बरसने का तरीका ही ग़लत है। सिस्टम नाम की कोई चीज नहीं रही है, आपके यहाँ। आधे घंटे में पाँच-पाँच इंच बारिश। ये क्या बात हुई भला?
बादल : देखिए, हमारे सिस्टम को दोष मत दीजिए। यह सब आप लोगों की वज़ह से हो रहा है। ग्लोबल वार्मिंग इतनी बढ़ा दी तो हमारा सिस्टम क्या करेगा?
रिपोर्टर : फिर वही घिसी-पिटी बात। बार-बार हम केवल ग्लोबल वार्मिंग को दोष नहीं दे सकते। अब हमें आगे की ओर देखना चाहिए।
बादल : तो फिर तो मुझे इसी तरह से बरसना होगा। और कोई चारा नहीं है। बस, समझ लो ये बात…
रिपोर्टर : फिर भी आप भी तनिक समझने की कोशिश कीजिए। आपकी थोड़ी सी बारिश में सरकारों की बड़ी बेइज़्ज़ती हो जाती है। हम रिपोर्टर्स को भी मज़बूरी में लिखना पड़ता है कि मुम्बई हुई पानी-पानी, वग़ैरह… तो कुछ तो ऐसा उपाय बताइए कि हमें बार-बार इस तरह लिखकर शर्मिन्दा न होना पड़े कि शहर फिर बाढ़ में डूबे। आप तो इतना घूमते हैं। आपको कोई तो उपाय मालूम होगा?
बादल : तो साधारण सा उपाय सुन लीजिए। संसद एक कानून बनवाकर मानसून में हर शहर को नदी घोषित कर दीजिए। इस तरह न रहेंगे शहर, न आएगी शहरों में बाढ़। और फिर सरकार की इज्ज़त भी बच जाएगी। आपको भी लिखना ना पड़ेगा।
रिपोर्टर : उपाय तो बड़ा तरक्क़ीमंद है। हमारे नेताओं को भी रास आएगा, परन्तु…
बादल : अब सवाल-ज़वाब बहुत हुए। मुझे चलने की अनुमति दीजिए। किसान मेरा इन्तज़ार कर रहा है…उसे मुझसे अब भी कोई ख़ास दिक्क़त नहीं है। आप शहरियों को, अलबत्ता, हम न बरसें तो परेशानी, बरसें तब भी। चलता हूँ। जय हिन्द।
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(ए. जयजीत देश के चर्चित ख़बरी व्यंग्यकार हैं। उन्होंने #अपनीडिजिटलडायरी के आग्रह पर ख़ास तौर पर अपने व्यंग्य लेख डायरी के पाठकों के उपलब्ध कराने पर सहमति दी है। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इसके लिए पूरी डायरी टीम उनकी आभारी है।)