सरकारी आलोचकों ने अंग्रेजी-सरकार को ‘भगवान विष्णु की आया’ क्यों कहा था?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 29/8/2021

ब्रिटिश शासन में कई प्रशासक-विचारक इस पक्ष में थे कि भारतीय राजाओं और उनके राज्यों को संरक्षण देना चाहिए। इससे भारतीय संस्कृति को नैसर्गिक रूप से पुष्पित-पल्लवित होने की गुंजाइश मिलती रहेगी। साथ ही जिन अहम स्थानीय लोगों को सरकारी अधिकारी-कर्मचारी के रूप में ब्रिटिश भारत के पदक्रम में जगह नहीं मिली, उन्हें पुनर्वासित किया जा सकेगा। इस तरह शासक और शासितों के बीच सीधा संबंध स्थापित होगा, जो स्थायित्व की नींव बनेगा। उनका यह भी मानना था कि आम लोगों के लिए सरकार की उपलब्धता सहज होनी चाहिए। न्यायिक प्रक्रिया की गति भी तेज होनी चाहिए। उनके मुताबिक, यह सब न्यायपालिका और कार्यपालिका को अलग रखकर नहीं बल्कि मिलाकर ही किया जा सकता है। ये लोग मानते थे कि कलेक्टर को न्यायिक शक्तियाँ दी जानी चाहिए। पुलिस पर नियंत्रण और कुछ सजाएँ देने का अधिकार भी उसे दिया जाना चाहिए। 

यानी, 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में बहुतायत ब्रिटिश-भारतीय प्रशासक आक्रामक परिवर्तनों के प्रति डरे हुए लगते थे। इस बारे में जॉन मैलकम लिखते भी हैं, “पिछले अनुभवों से हम सबक ले सकते हैं। ये कि हमें हर उस सुधार की गति धीमी रखनी चाहिए, जिससे देशज विषयों के साथ हमारे टकराव की आशंका हो। हमें हमारी व्यवस्था में स्थानीय तंत्र की उन सभी चीजों को अपनाना चाहिए जो अपना सकें। हमारा शासन-तंत्र विनम्रता के सिद्धांत पर संचालित होना चाहिए, न कि दंभ के। हमने हमारे ज्ञान के बाताल्लुक श्रेष्ठता की जो भावना भीतर बिठा ली है, उसे दिमाग़ों से निकाल देना चाहिए। अपने पास मौज़ूद दोनों छोरों (ब्रिटिश और भारतीय) की दक्षता का इस्तेमाल करना चाहिए। क्योंकि इसके उलट सुधारों की गति को अगर तेज किया गया तो ऐसे हर प्रयास के विफल होने ख़तरा हमेशा रहेगा।” 

लेकिन वास्तव में, कॉर्नवालिस तथा मुनरो की शासन-प्रणालियाँ ही देश के विभिन्न हिस्सों में स्थायी होने वाली थीं। दोनों प्रणालियों को ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा ही संचालित किए जाने के हिसाब से बनाया गया था। दोनों में संपत्ति के अधिकारों के मुद्दे पर पश्चिम की अवधारणा को तवज्ज़ो दी गई थी। आगे यही भारत में सामाजिक बदलाव का औजार बनने वाली थी। इनमें कॉर्नवालिस का रवैया नस्लीय श्रेष्ठता और दूसरों की अवमानना जैसे पहलुओं पर आधारित था। इसमें पारंपरिक भारतीय प्रशासन के रूवरूपों को ख़ारिज़ करने की भावना थी। उनकी इस भावना को धर्मप्रचारकों (मिशनरी) जैसे मनोभाव रखने वाले लोगों ने हवा दी। जैसे, चार्ल्स ग्रांट। वह कॉर्नवालिस के सलाहकार थे। ग्रांट मानते थे कि वह और उनके सहयोगी ईसाइयत की स्थापना और प्रसार के लिए हिंदुस्तान आए हैं। इसलिए शासन-प्रशासन सहित उनके तमाम कार्यों का ध्येय उसी लक्ष्य की पूर्ति होना चाहिए। उन्होंने लिखा भी, ‘ईश्वर की कृपा से ये क्षेत्र (भारत) हमें सिर्फ इसलिए नहीं मिले हैं कि हम इनसे सालाना मुनाफ़ा हासिल कर सकते हैं। बल्कि इसलिए मिले हैँ कि लंबे समय से दुर्गति, अंधकार और अधर्म में डूबे यहाँ के लोगों के बीच प्रकाश फैला सकें। इन्हें दयापूर्वक सत्य की ओर प्रेरित कर सकें। सुव्यवस्थित समाज के रूप में स्थापित कर इन पर अनुग्रह कर सकें।… हर प्रगतिशील कदम के साथ हमें इस मूल परिकल्पना को थामे रहना है।”

ग्रांट और उनके जैसे अफ़सर (भविष्य में विल्बरफोर्स व लॉर्ड मैकॉले भी) ईसाइयत पर कट्‌टर आस्था रखते थे। इसलिए उन्होंने इरादतन भारतीय समाज के सभी पहलुओं को ख़ारिज़ किया। चाहे वह कला हो या कोई संस्था। इन लोगों का मानना था कि समाज को व्यक्ति-विशेष की नैतिकता में बदलाव लाकर ही बदला जा सकता है। इसलिए उन्होंने अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए भारतीय समाज की आस्थाओं, जिनमें कुछ अंधविश्वास का रूप ले चुकी थीं, पर सबसे पहले प्रहार किया। इसका मुख्य हथियार अंग्रेजी शिक्षा को बनाया। इस बाबत विल्बरफोर्स लिखते हैं, “धीरे-धीरे हमें इस मिट्‌टी में जड़ें जमानी हैं। अपने सिद्धांतों, धारणाओं के परिचय तथा स्थापना के जरिए। अपने कानूनों, संस्थाओं व तौर-तरीकों के मार्फत। और सबसे ऊपर, जो धर्म व नैतिकता हमारे सभी सुधारों का स्रोत है, उसके माध्यम से।” 

इस तरह कट्‌टर ईसाई-आस्था वाले प्रशासक कंपनी के रवैये को चुनौती दे रहे थे, जो अब तक स्थानीय मामलों में दख़ल न देने का रवैया अपनाए हुए थी। हालाँकि इस अंदरूनी चुनौती के बावज़ूद कंपनी के कर्ताधर्ता अब भी सचेत थे। वे जानते थे कि उनकी शक्तियाँ तभी तक बरक़रार रहेंगी, जब तक वे भारतीयों के धर्म और रीति-रिवाज़ों में दख़लंदाज़ी नहीं करते। लिहाज़ा उन्होंने न सिर्फ़ हिंदु, मुसलमानों के जलसों-त्यौहारों को बर्दाश्त किया, बल्कि कई बार तो ख़ुद भी उनका हिस्सा बने। उदाहरण के लिए, 1802 में जब ब्रिटेन और फ्रांस के बीच अमीन्स की संधि हो गई तो अंग्रेज सरकार का एक दल कलकत्ता के काली मंदिर गया। जुलूस की शक्ल में, सेना के गाजे-बाजे के साथ, देवी काली को धन्यवाद ज्ञापित करने। वहाँ इस दल ने पर्याप्त मात्रा में दक्षिणा भी समर्पित की। 

यही नहीं, अंग्रेजों ने अपने अधिकार वाले क्षेत्रों में भारतीयों की कई धार्मिक ज़िम्मेदारियों का भी वहन किया। जैसे- धार्मिक स्थलों में दान-दक्षिणा की देख-रेख। धार्मिक स्थलों का निर्माण, जीर्णोद्धार। श्रद्धालुओं के लिए यातायात, सुख-सुविधाओं आदि के इंतज़ाम, आदि। यहाँ तक कि कई बार तो अंग्रेजों ने अपने लोगों को मंदिरों के रथ खींचने के लिए भी विवश किया। इस बाबत 1817 में एक कानून भी बनाया। इसी के ज़रिए अंग्रेजों ने धार्मिक स्थलों, ख़ास तौर पर हिंदु मंदिरों की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली थी। धर्म-स्थलों को करों से भी छूट दी। मद्रास सरकार तो 1833 तक लगभग 7,500 मंदिरों और उनके कोष के प्रबंधन की ज़िम्मेदारी उठा रही थी। हालाँकि इस रवैये की सरकार के ही कई अधिकारी/कर्मचारी तीखी आलोचना किया करते थे। एक आलोचक ने तो चित्रात्मक भाषा में सरकार को ‘विष्णु की आया’ (भगवान विष्णु की देखभाल करने वाली सेविका) तक बता दिया था। 

बहरहाल, 1863 के बाद ब्रिटिश भारत की सरकार ने धार्मिक स्थलों के प्रशासन-प्रबंधन से अपने हाथ खींच लिए। अलबत्ता, भारतीयों ने सरकार के इस कदम को सहज भाव से नहीं लिया क्योंकि धार्मिक स्थलों की देख-रेख, उनका प्रबंधन अब तक, अपनी-अपनी धार्मिक आस्थाओं के अनुरूप, भारतीय शासक ही किया करते थे। इसलिए आम धारणा थी कि यह सरकार की ही ज़िम्मेदारी है।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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