हिन्दुस्तान पर अंग्रेजों के आधिपत्य की शुरुआत किन हालात में हुई?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 17/8/2021

सन् 1748 से 1762 के बीच उत्तर-पश्चिमी भारत पर कई बार अफ़ग़ानों के हमले हुए। जबकि मध्य और उत्तरी भारत पर मराठों का कब्ज़ा हो गया। उन्हें मुग़लों का उत्तराधिकारी समझा जाने लगा। हालाँकि मराठों ने भी हिंदु होने के बावज़ूद मंदिरों को तोड़ा और गायों तथा पुजारियों तक को मौत के घाट उतारा। वे जहाँ भी गए अपने पीछे तबाही के निशान छोड़ गए। इस समय हिंदुस्तान में कोई मज़बूत केंद्रीय सत्ता नहीं थी। इससे हिंदुस्तान के तटवर्ती क्षेत्रों में शिविर स्थापित कर चुके यूरोप के छोटे कारोबारियों पर भी इसका विपरीत असर पड़ा। हिंदुस्तान की केंद्रीय सत्ता ने अब तक उनकी सुरक्षा का ज़िम्मा अपने कंधों पर ले रखा था। लेकिन मुग़ल सल्तनत के ढेर होते ही उसके स्वेच्छाचारी अधिकारियों ने यूरोपीय कारोबारियों को संरक्षा और सुरक्षा देने से इंकार कर दिया। वे तो ख़ुद अपने हितों की सुरक्षा में लगे थे। इन अधिकारियों ने यूरोपीय कारोबारियों को दिए गए विशेष अधिकार भी वापस ले लिए जो बड़ी मुश्किल से उन्हें सीधे मुग़ल बादशाह की तरफ़ से प्राप्त हुए थे। 

ऐसे में यूरोपीय कारोबारियों को अपने सुरक्षा के इंतज़ाम ख़ुद करने पर विचार करना पड़ा। अपने प्रतिष्ठानों की सुरक्षा के लिए उन्हें कदम उठाने पड़े। अपनी ज़रूरत से कुछ ज़्यादा क्षेत्रों पर आधिपत्य करना पड़ा। यह उनके असल अधिकार क्षेत्र की सुरक्षा के लिए ज़रूरी था। हालाँकि इस तरह के विस्तार से हितों का टकराव होता है। स्थानीय राजनीति की उलझनों में भी उलझना पड़ता है। यह यूरोपियन के साथ भी हुआ। शुरू में फ्रांसीसियों ने स्थानीय राजनीति की विभिन्न धाराओं में सावधानी से प्रवेश किया। इस समय तक अंग्रेज इससे कुछ हिचकिचा रहे थे। लेकिन फिर आगे चलकर वे भी स्थानीय राजनीति में दिलचस्पी लेने लगे। उसमें सक्रिय रूप से शामिल होने लगे। और फिर उन्हें कोई रोक नहीं पाया। कोई रोक सकता भी नहीं था क्योंकि मुग़ल सल्तनत के ढह जाने के बाद बने शक्ति-शून्य को स्थानीय राजे-रजवाड़े भर नहीं सके। मुग़लों ने लगभग सभी सत्ता-शक्तियों को ध्वस्त कर दिया था। अंत में वे ख़ुद उसी गति के शिकार हो चुके थे। मुग़लिया सल्तनत के ढहने के बाद देश में शासक और शासित के बीच कोई देशीय संगठित व्यवस्था नहीं बची थी। भिन्न-भिन्न सत्ताएँ थीं, जो अनाचार और अत्याचार का जरिया बनी हुई थीं। कानून का शासन नष्ट हो चुका था।

इस शून्यता में धीरे-धीरे अंग्रेजों की सत्ता-शक्ति समा जाने की कोशिश कर रही थी। भारतीय राज्यों पर अंग्रेजों का प्रभाव बढ़ रहा था। हालाँकि 1856 तक अधिकांश इलाकों पर उनका प्रभुत्व पूरी तरह स्थापित नहीं हुआ था। इस दौर में राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता का अक्सर अंग्रेजों को सामना करना पड़ता था। लिहाज़ा शुरू से ही अंग्रेजों की कोशिश रही कि किसी तरह एक शासन व्यवस्था और शांति स्थापित हो जाए। इसके लिए अंग्रेजों ने अपनी शक्ति का भी भरपूर इस्तेमाल किया। 

शुरूआत 1757 में प्लासी की लड़ाई से हुई। इस लड़ाई में नवाब सिराज़ुद्दौला पर जीत हासिल करने के बाद अंग्रेजों ने सबसे पहले बंगाल में शक्ति केंद्र की स्थापना की। अपनी प्रशासनिक व्यवस्था की नींव डाली। शुरू में अंग्रेज पूर्ववर्ती शासकों की तरह ही रहे। उन्होंने पहले अराजक स्थितियों को पैदा होने दिया। फिर उनका दमन किया। इस तरह की कार्यशैली में उन्हें अपना लाभ दिख रहा था। लेकिन 1772 में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की वास्तविक शुरूआत के बाद स्थितियाँ बदलीं। इस बारे में 1788 में एक मुस्लिम इतिहासकार ने लिखा है, “न्याय का शासन स्थापित करने में अंग्रेजों के कानून का कोई सानी नहीं था। निरंकुश सत्ताओं पर अंकुश लगाने, अपने संस्थानों की संरक्षा और कमज़ोर तबके की सुरक्षा के मामले में भी वे बेजोड़ थे। अंग्रेज इस बात के लिए भी तारीफ़ के काबिल समझे गए कि वे धार्मिक मामलों में दख़लंदाज़ी नहीं करते थे।”

हालाँकि कोई शासन व्यवस्था, भले वह हिचकिचाहट के साथ ही क्यों न स्थापित हुई हो, यह बर्दाश्त नहीं कर सकती कि उसके क्षेत्र में नागरिक विप्लव या राजनीतिक अस्थिरता रहे। अंग्रेज भला इस स्थिति को कैसे सहन कर सकते थे। और फिर भारत में तो सक्षम तथा शक्तिसंपन्न राजाओं के राज्यों में उनकी मृत्यु होते ही उपद्रव-अराजकता की स्थितियाँ लगातार निर्मित हो रहीं थीं। दक्षिण भारत में भी यही हाल था, जहाँ अंग्रेजों ने 1766 से प्रभुत्व स्थापित करना शुरू किया था। वहाँ जनता लुटेरों, बाग़ियों और स्थानीय शासकों के दोहरे-तिहरे दमन से पीड़ित थी। आबादी कुछ बड़े नगरों-कस्बों में बिखरी हुई थी। कृषक समाज किलाबंद से गाँवों में रहता था। किसान सिर्फ़ उसी ज़मीन पर खेती-बाड़ी करते थे, जो उनके गाँवों के नज़दीक होती थी। इससे ग्रामीण इलाकों के आस-पास की ज़मीन बड़ी मात्रा में अनुपयोगी पड़ी हुई थी।

दक्खन के मुग़ल शासक के वंशज हैदराबाद के निज़ाम ने भी उस दौर में ख़ुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। उसने सन् 1800 में अपने अधिकार के कुछ क्षेत्र अंग्रेजों के हवाले किए थे। लेकिन इन क्षेत्रों के किसान रोज-रोज की लड़ाईयों से इतने त्रस्त हो चुके थे कि वे किसी के भी नियंत्रण में आने के लिए तैयार नहीं थे। इसके चलते आस-पड़ोस के गाँवों के बीच आपस के झगड़े आम हो गए थे। ये झगड़े कई बार खूनी संघर्ष और आगज़नी में भी तब्दील हो जाया करते थे। लगभग सभी लोग अपनी सुरक्षा के लिए हथियार लेकर चलते थे। इसके बावज़ूद अंदरूनी ग्रामीण इलाकों से आने वाले लुटेरे अक़्सर मुसाफ़िरों का क़त्ल कर दिया करते थे। अस्सी से ज़्यादा मुखिया, उनके 30 हज़ार के क़रीब आदमी और ऊपर से निज़ाम के फ़ौजी, ये सब मिलकर आम आदमी को पीड़ित-प्रताड़ित कर रहे थे। न्याय-व्यवस्था के लिए अदालतें तो थी ही नहीं। गाँव का मुखिया और जातीय पंचायतें ही तमाम विवादों का निपटारा किया करती थीं। वह भी किसी बाहरी आधिकारिक (न्याय तंत्र की) मदद के बिना ही। 

कुल मिलाकर एक बेढब आज़ादी की स्थिति थी, जिसमें हर नियमित शासन पद्धति का विरोध लगभग तय होता था। इस कारण हर साल लगान वसूली के लिए हज़ारों गाँवों में पहले घेरा डालना पड़ता था। तब कहीं जाकर लगान वसूली हो पाती थी।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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पिछली कड़ियाँ : 
2. औरंगज़ेब को क्यों लगता था कि अकबर ने मुग़ल सल्तनत का नुकसान किया? 
1. बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के बावज़ूद हिन्दुस्तान में मुस्लिम अलग-थलग क्यों रहे?

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