Jijau Sahab Samadhi

शिवाजी ‘महाराज’ : तभी वह क्षण आया, घटिकापात्र डूब गया, जिजाऊ साहब चल बसीं

बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से

जुलूस से महाराज राजमहल लौटे। उन्होंने जिजाऊ साहब की पगधूलि ली। बाद में दोपहर में सबके साथ जीमने के बाद फिर जिजाऊ साहब के पास आ बैठे। आप्तस्वकीयों को, राजसेवकों को उन्होंने विदा के बीड़े दिए। और खुद आऊ साहब के साथ बातें करते लगे। आऊ साहब से उन्होंने कहा, “आपके आशीष से सब मनोरथ पूरे हुए।” फिर उन्होंने आऊ साहब को सम्मान के वस्त्र अर्पण किए। हालाँकि उन्हें अब किसी सम्मान की इच्छा नहीं थी। एक अत्यन्त शूर-वीर प्रतापपुरन्दर की माँ थी वह। ऐसे प्रतापी सुपुत्र का उन्होंने लाल-पालन किया। उसे बड़ा किया। इससे भी ज्यादा सुख की क्या किसी माँ की कामना होगी? पूरा भारतवर्ष जब गुलामी की जंजीर में फँसा था, तब वहाँ के एकमात्र सिंहासनाधीश्वर सार्वभौम छत्रपति महाराज की राजमाता का पद जिजाऊ साहब को प्राप्त हुआ था। इसके सामने स्वर्ण का आसन भी उन्हें तुच्छ ही लगता। अब वह पूरी तरह से सन्तुष्ट थीं।

जिन्दगी के व्रत की समाप्ति हो गई थी। यह अनुपम समारोह उन्होंने अपनी आँखों से देखा था। अब उन्हें किसी चीज की चाह नहीं थी। अब चाहिए था उन्हें अन्तिम विश्राम। उस आखिरी निद्रा के लिए उन्हें शिवबा की गोद चाहिए थी। सच, आऊ साहब बहुत ही ज्यादा थक गई थीं। जिन्दगी के आखरी पड़ाव पर थीं वह। उमर 70 से भी ज्यादा हो गई थी। जिन्दगी का हिसाब-किताब पूरा हो चुका था। मानो, वह इसी राज्याभिषेक समारोह की खातिर रुक गई थी। मानो, उन्होंने यमराज से कह रखा था कि “जरा रुक भी जा रे। मराठी मुल्क को सोने का सिंहासन और छत्रपति मिल गया है। यह अपनी आँखों से देख लूँ। फिर किसी भी पल साथ हो लूँगी।” राज्याभिषेक और राज्यारोहण के बाद के कामकाज बस, हो ही रहे थे। दानधर्म तथा राज्य के अधिकारी, सम्मानित लोग विद्यावन्त, कलावन्त आदि का मानसम्मान हो रहा था। राज्याभिषेक के बहाने महाराज ने रायगढ़ आए हुए बच्चे से लेकर बूढ़ों तक का सबका आदर किया। गागाभट्ट का वसिष्ठ ऋषि की तरह उन्होंने सम्मान किया।

महाराज ने ‘राज्याभिषेक शक’ नाम की स्वतंत्र कालगणना (संवत्) शुरू की। सोने के सिक्के ढालना शुरू किया। रघुनाथ पन्त को राज्यव्यवहार कोष तैयार करने का आदेश दिया। राज्यव्यवहार के किसी भी पक्ष पर परकीयों का साया भी न पड़े, इस बारे में महाराज सचेत थे। ये सब कर्त्तव्य महाराज निबाहते ही आ रहे थे। पर अब उनका ध्यान बार-बार आऊ साहब की तरफ जा रहा था। उनकी तबीयत बहुत खराब चल रही थी। रायगढ़ पर ज्येष्ठ का मौसम अत्यधिक आँधी-पानी भरा, ठंडक का होता है। सो, पहाड़ी ढलान के बीचों-बीच एक गाँव है-पाचाड़। महाराज आऊ साहब को वहाँ की कोठी में ले आए। आऊ साहब अब आखिरी घड़ी के इन्तजार में, बिस्तर पर लेटी हुई थीं। पत्ता सूख चला था। गलकर कब धरती की गोद में गिर जाएगा, कुछ कह नहीं सकते थे। आकाश पर काले बादल छाए थे।

छत्रपति के रायगढ़ पर भी करुण साया घिर आया था। वद्य (कृष्ण) पक्ष की रात्रि का अँधेरा, काले बादलों की स्याही में घुल जाता था। शुद्ध (शुक्ल) पक्ष में रायगढ़ आनन्दोल्लास में डूबा हुआ था। अब उसी ने घुटनों में मुँह ढाँप लिया था। राजा की माँ आखिरी महायात्रा पर निकलने वाली थी। रातें लम्बी हो रही थीं। बूँद-बूँद से घटिका डूब रही थी। दीए का तेल कभी का खत्म हो गया था। अब, बस बाती ही जल रही थी। अतल समुन्दर-सा, अनन्त आकाश-सा प्यार करने वाला पुण्यश्लोक पुत्र सिरहाने बैठा था। ऐसा ही कुछ सोचा था जिजाऊ साहब ने अपने अन्तिम दिनों के बारे में। आनन्दनाम संवत्सर के ज्येष्ठ की वद्य (कृष्ण पक्ष) नवमी थी। बुधवार की रात थी। लेकिन रायगढ़ और पाचाड़ की कोठी जाग रही थी। राजमाता जिजाऊ साहब सो रही थीं। ठीक आधी रात का समय। तभी वह क्षण आया घटिकापात्र धीमे से डूब गया। जिजाऊ साहब चल बसीं। फिर से न लौटने के लिए वह चली गईं।

माँ राजा को छोड़कर चली गई। राजा छत्रविहीन, अनाथ हो गया, बेसहारा हो गया। दिशाएँ शून्य हो गईं। चारों तरफ काला, स्याह अँधेरा। कुछ देर पहले शिवाजीराव ‘बिटुआ’ था। पर अब अचानक ही वह ‘बूढ़ा’ हो गया। आऊ साहब का दहन पाचाड़ की कोठी की उत्तर में कुछ दूरी पर किया गया। बाद में महाराज ने वहाँ उनकी समाधि बनवाई। एकदम सादी है। हरे पेड़ों के शान्त साए में जिजाऊ साहब की समाधि मौन खड़ी है। आऊ साहब की मौत के बाद उनके मुंशी ने उनकी जायदाद का हिसाब महाराज के सामने रख दिया। उसमें एक करोड़ रुपए की रोकड़ रकम थी। खर्च के लिए उन्हें जो रुपए-पैसे मिलते थे, उन्हीं में से बचाकर रखे थे उन्होंने ये रुपए। जाते समय माँ ने अपने लाल के लिए आखिरी कौर बचाकर रखा था, माँ का आखिरी प्यार भरा निवाला। माँ की इस भेंट से शिवाजी महाराज की आँखें भर आईं। वह सिसक उठे किसी छोटे बालक की तरह।

जिजाऊ साहब चली गई। महाराज के दुःख की थाह नहीं थी। जब 10 साल पहले शहाजी राजे गुजरे थे, तभी जिजाऊ साहब सती होने जा रहीं थीं। तब दहलाने वाला विलाप कर महाराज ने उन्हें अपने सती, निश्चय से विचलित किया था। लेकिन इस बार आऊ साहब सचमुच ही चली गईं। यह कलेजे को बेधने वाला अथाह दुख महाराज चुपचाप सह रहे थे। वह विवेकी नियति के यम-नियम जानते थे। दुख का घूँट पीकर वह कर्त्तव्य के लिए प्रतिबद्ध हो गए। लेकिन उनके जीवन पर घिरे ये उदासी के बादल कभी दूर नहीं होने वाले थे। पाचाड़ में महाराज ने जिजाऊ साहब के लिए खास तौर से यह मजबूत हवेली बनवाई थी। वह अब सूनी-सूनी लग रही थी। आखिरी चार साल से आऊ साहब इसी हवेली में रह रही थी। आँखें भी उन्होंने इसी हवेली में मूँद लीं। हमेशा के लिए (दिनांक 17 जून 1674)। रायगढ़ की आबो-हवा उन्हें रास न आती थी। इसलिए वह यहाँ पर रहा करती थी।

इस हवेली को महाराज ने राजमहल की तर्ज पर ही बाँधा था। सदर, भंडारघर, देवघर, दफ्तर, ड्योढ़ियाँ, मुदपाकखाना, कचहरी, खजाना, तबेले, आबदारखाना, पत्नियों के कमरे वगैरा। कई दालान थे। घर के चबूतरे ऊँचे, मजबूत थे। हवेली का प्रमुख दरवाजा पूरब में रायगढ़ की तरफ था। इसके सिवा आमदरफ्त के लिए उत्तर की तरफ भी एक दरवाजा था। हवेली में उत्तर की तरफ दो पक्के कुएँ बाँध रखे थे। उसमें से एक बावड़ी बहुत ही बड़ी थी। इसमें से रोजमर्रा के इस्तेमाल का पानी लिया जाता था। पीने के पानी का कुआँ छोटा था। यह कुआँ भी मजबूत, पत्थरों से बाँधा हुआ था। शानदार था। कुएँ की उत्तर की तरफ एक रहँट बनाया था। दक्षिण की तरफ पानी तक ले जाने वाली सीढ़ियाँ थीं। यहाँ पर एक चौंतरा बनाया हुआ था। उस पर रखा था एक बढ़िया चौकोर पत्थर। इसके ऊपर एक पत्थर का ही तकिया बनाया हुआ था। महाराज कभी-कभी इस तकिए का टेक लगाकर बैठते।

पाचाड़ की बहू-बेटियाँ यहाँ पानी भरने आतीं, तो महाराज यहाँ बैठकर उनकी ममता से पूछताछ करते। उनके साथ आने वाले बच्चों को प्यार से कुछ खाने की चीजें देते। इस कुएँ को “तकिए का कुआँ” कहते थे। पर अब माँ साहब गुजर गईं और महाराज के लिए पाचाड़ की हवेली सूनी हो गई। अब जब भी वह वहाँ जाते, उनके मन में कई यादें जग उठतीं। तकिए के कुएँ के पास बैठकर वह गाँव की बहू-बेटियों के साथ बतियाती माँ साहब की ममतामयी सूरत याद करते। उनके मुँह से एक सर्द आह निकल जाती, ‘माँ’।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।) 
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ 
52- शिवाजी ‘महाराज’ : अग्नि को मुट्ठी में भींचा जा सकता है, तो ही शिवाजी को जीता जा सकता है
51- शिवाजी ‘महाराज’ : राजा भए शिव छत्रपति, झुक गई गर्वीली गर्दन
50- शिवाजी ‘महाराज’ : सिंहासनाधीश्वर, क्षत्रियकुलावतंस महाराज शिवछत्रपति
49- शिवाजी ‘महाराज’ : पहले की शादियाँ जनेऊ संस्कार से पहले की थीं, अतः वे नामंजूर हो गईं
48- शिवाजी ‘महाराज’ : रायगढ़ सज-धज कर शिवराज्याभिषेक की प्रतीक्षा कर रहा था
47-शिवाजी ‘महाराज’ : महाराष्ट्र का इन्द्रप्रस्थ साकार हो रहा था, महाराज स्वराज्य में मगन थे
46- शिवाजी ‘महाराज’ : राज्याभिषिक्त हों, सिंहानस्थ हों शिवबा
45- शिवाजी ‘महाराज’ : शिव-समर्थ भेंट हो गई, दो शिव-सागर एकरूप हुए
44- शिवाजी ‘महाराज’ : दुःख से अकुलाकर महाराज बोले, ‘गढ़ आया, सिंह चला गया’
43- शिवाजी ‘महाराज’ : राजगढ़ में बैठे महाराज उछल पड़े, “मेरे सिंहों ने कोंढाणा जीत लिया”
42- शिवाजी ‘महाराज’ : तान्हाजीराव मालुसरे बोल उठे, “महाराज, कोंढाणा किले को में जीत लूँगा”
41- शिवाजी ‘महाराज’ : औरंगजेब की जुल्म-जबर्दस्ती खबरें आ रही थीं, महाराज बैचैन थे
40- शिवाजी ‘महाराज’ : जंजीरा का ‘अजेय’ किला मुस्लिम शासकों के कब्जे में कैसे आया?
39- शिवाजी ‘महाराज’ : चकमा शिवाजी राजे ने दिया और उसका बदला बादशाह नेताजी से लिया
38- शिवाजी ‘महाराज’ : कड़े पहरों को लाँघकर महाराज बाहर निकले, शेर मुक्त हो गया
37- शिवाजी ‘महाराज’ : “आप मेरी गर्दन काट दें, पर मैं बादशाह के सामने अब नहीं आऊँगा”
36- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी की दहाड़ से जब औरंगजेब का दरबार दहल गया!
35- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठे थके नहीं थे, तो फिर शिवाजी ने पुरन्दर की सन्धि क्यों की?
34- शिवाजी ‘महाराज’ : मरते दम तक लड़े मुरार बाजी और जाते-जाते मिसाल कायम कर गए
33- शिवाजी ‘महाराज’ : जब ‘शक्तिशाली’ पुरन्दरगढ़ पर चढ़ आए ‘अजेय’ मिर्जा राजा

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