समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश
पिछले भाग में हमने देखा सनातन वैदिक संस्कृति को बाँधने वाली शक्ति यज्ञ है। कुछ वैदिक यज्ञों में पशुवध भी होता रहा है, उसका वास्तविक स्वरूप कैसा है। (पिछली कड़ियों के शीर्षक उनकी लिंक्स के साथ सबसे अन्त में दिए गए हैं। देखे जा सकते हैं।) इसके बाद इस भाग में हम नास्तिक और अवान्तर आस्तिक मतों को ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से विस्तार से देखेंगें। उन आधारभूत कारणों को समझेंगे जिसके कारण नास्तिक मत इतना यज्ञविरोधी हुआ।
हमने देखा कि वेद-उपनिषद में जो सत्य की तलाश है, वह अपने आप में अनूठी है। लेकिन इसके साथ ही वैदिक दर्शन और परम्परा अत्यन्त कठोर अनुशासन की माँग करता है। इसका आधार यज्ञ है। वर्ण-धर्म और कर्म का नियमन है। वेद समाज को एक शास्त्रीय अनुशासन, नियम और दृढ़ कर्ममय साधन का मार्ग देता है। कम से कम ब्राह्मण, उपनिषद वांग्मय के अध्ययन से तो यही स्पष्ट होता है। दूसरी बात- चेतना के जो सोपान वैदिक चिन्तन खोलता है, उसके परिणाम भिन्न-भिन्न मानस पर अलग-अलग होते हैं। उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप आने वाला चिन्तन भी भिन्न होता है।
इसी क्रम में नास्तिक मत हर खास-ओ-आम काे एक स्वच्छन्दता देता है। यह एक विद्रोह का स्वर है, अनुशासन के विरुद्ध। अनुशासन जो वेद देता है। वेद को प्रमाण न मानने वाली, उसके सत्य को नकारने वाली परम्पराएँ नास्तिक कही जाती हैं। विपुल तर्क के बावजूद इन्हें लम्बा काल अपनी प्रामाणिकता और गम्भीरता को स्थापित करने में लगा। वैदिक परम्परा के एक क्षरण के बाद और नास्तिकों मतावलम्बियों को गण और राज्यों से राजाश्रय प्राप्त होने पर ही यह सम्भव हो सका। तब नास्तिक दर्शन के, मत, सम्प्रदाय धर्म या धम्म बन गए। नास्तिक दर्शन प्रधानत: लोकरंजक मतों का समुच्चय कहा जा सकता है। इसलिए नास्तिक आचार्यों के जीवन, शिक्षा और तर्कणा में कुछ हल्कापन भी दिखता है और यकीनन वह आधुनिक चेतना को आकर्षक भी लगता है!
धर्म के विरोध से सजे-धजे नास्तिक मत की अहिंसा का अव्यवहार्य स्वयंसिद्ध है। फिर विचारशील व्यक्ति अपने मत को स्थापित करने के लिए वेद और यज्ञ का विरोध करने को बाध्य होते थे। क्योंकि वैदिक अनुशासन के बिना उस ज्ञान की कुंजी नहीं मिलती थी। आपस में एक दूसरे को हर स्तर पर गिराने वाले स्वच्छन्दतावादियों में एक बात में एकता मिलती थी कि वे वैदिक अनुशासन के विरुद्ध दिखते है। उसमें श्रद्धा, विश्वास नहीं रखते। इसीलिए नास्तिक कहे जाते है।
बौद्ध साहित्य में ऐसे कई मतों के दर्शन होते हैं। यद्यपि उनके आशय या जिज्ञासा को प्रश्नांकित करने का कोई उद्देश्य नहीं, लेकिन इतना अवश्य कहना पड़ता है कि उस समय विद्यमान सनातन ऋत् के दृष्टिकोण से भलीभाँति परिचित नहीं दिखते। आस्तिकों के पास तो एक बृहद् ज्ञान कोष था, किन्तु प्रत्येक अधपके सिद्धान्त को स्थापित करने से पूर्व हर नवचिन्तक को अपनी विशिष्टता सिद्ध करनी होती थी। इसके लिए पशु यज्ञ में जीवों के आलभन की अतिशय अहिंसक नैतिकता के प्रस्थान से भर्त्सना करना सबसे सुलभ था। अथवा आत्मदमन की श्रेष्ठता के आधार पर वैदिक कर्म प्रवृति का विरोध करते। यह सहज ही बिना किसी प्रयास के एक विशिष्ट अहिंसावादी या श्रेष्ठ तपोनिष्ठ सिद्ध होने का सरल राजमार्ग भी हो सकता था! यह यों ही नहीं है कि नास्तिक कई ठिकानों पर निवृत्ति मार्ग परायण वैदिकों के पासंग में भी खड़े दिखते हैं। किन्तु यदि हम इन दोनों की श्रद्धा के उत्स को टटोलें तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है। नास्तिक दर्शन में संकीर्ण नैतिक, मानवकेन्द्रितता के विविध प्रस्थान से सनातन की पृथक्-पृथक् अंशों में विखंडन कर आलोचना मिलती है।
अहिंसा का इन्द्रजाल अच्छे अच्छों के विवेक को मोहित कर देने वाला है। अहिंसावादी नास्तिकों द्वारा वैदिक प्रतीकात्मकता की हत्या हुई हैं। इसने हमारी ज्ञान परम्परा को हानि पहुँचाई है। उदाहरण के लिए जैन परम्परा को लें तो यह वेद में वर्णित सार्वदेशिक-सार्वभौमिक दिव्यता का प्रतिरोध ऐहिक सुख-भोगवाद की व्यवहारिक प्रधानता से करता है अथवा अवान्तर देव-यक्षादि की उपासना के फल की वैदिक देव-यजन से तुलना करता है। या बौद्धों को लें जिनके पास कर्मवाद, पुनर्जन्म के साथ अनात्त का दर्शन होता है।
जब वेद को अमान्य कर उसको प्रमाण नहीं माना जाता है तो पूर्णता या अंश में उस सनातन की सर्वलौकिकता और सार्वभौमिकता भी नकारी जाती हैं। और तब आवश्यक रूप से एकदेशीयता या किसी संकीर्णता से सीमित होने के लिए बाध्य होना पड़ता हैं। नास्तिक दर्शन लौकिक भोगवाद और उसके विरोधी ध्रुव इन्द्रियों के दमन वाले निवृत्ति मार्ग के बीच झूलता है। इसके तर्क-वितर्क संकीर्ण, सुलभ और मनोरंजक है। जिसका चूडान्त चार्वाक दर्शन के रूप में मिलता है। लेकिन इसके अलावा भी जिन (जैन), बौद्ध, आजीवक आदि अनेक नास्तिक मत सम्प्रदाय रहे हैं। सम्भव है कि इन मतों ने प्रचार-प्रसार के लिए पाली-प्राकृत का सयास चयन किया हो। ताकि संस्कृत के शब्दों में रूढ़ अर्थों से मुक्त हो सकें। बहुत सम्भव है कि पाली-प्राकृत में धर्म के सिद्धान्तों के अवतरण से सहज सुलभ अहंकेन्द्रित भोगवाद स्वच्छन्दता में फला फूला हो!
बौद्ध वेद और वर्णाश्रम का प्रकट विराेध करते हैं। किन्तु जैनों की तरह गण-जाति समूह आधारित सामाजिकता में विश्वास करते हैं। यह सहज भी है क्योंकि यह दोनों मत लिच्छिवी और शाक्य गणों के राजपरिवारों में पनपे हैं। यह दोनाें मत निवृत्ति प्रधान हैं। यहाँ वैयक्तिक निर्वाण का लक्ष्य प्रमुख है इसलिए राष्ट्र और समग्र विराट् की सोच सीमित है। स्थिति यह है कि विविध नास्तिक सम्प्रदायों के बीच आपसी विरोध के क्षणों में सनातन वैदिक धर्म का ही स्थायी सन्दर्भ रहता है। और बिना वैदिक परम्परा के यह एक-दूसरे को बिलकुल सहन नहीं कर सकते। इसके विपुल प्रमाण मौजूद हैं। नास्तिक मत उन मेघों की तरह हैं जो सूर्य के ताप से ही अस्तित्त्व में आते हैं और सूर्य को ही ढँक कर अपनी सत्ता का आभास देते हैं।
बाद के काल में जब धर्म शब्द का व्यापक दार्शनिकीकरण हुआ, तब एक लब्ध प्रतिष्ठित नास्तिक आचार्य ने कहा, “जो मनुष्य सामान्य धर्म छोड़कर विशेष धर्म करने जाता है उसका कृत्य लँगोटी छोड़कर उससे पगड़ी पहनने जैसा है।” (सामान्य धर्म वह होता है जो सब लोगाें के लिए पालनीय होता है, जैसे सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, शौच, इन्द्रिय निग्रह, दया, दान, अनसूया, क्षमा, स्वाध्याय, अस्तेयादि। देश-काल, वर्णाश्रम के अनुरूप किया जाने वाला धर्म विशेष धर्म कहलाता है।) सामान्य धर्म पर ऐसा एकदेशीय जोर आकर्षक तो है किन्तु इसमें लक्ष्यविहीनता और संकीर्णता जैसे दो दोष हैं। किसी मनुष्य का विशेष धर्म छोड़कर सामान्य धर्म का आचरण करना किसी विधवा द्वारा श्रृंगार करने की तरह नहीं लगता? ऐसी भूलों से बचाव श्रौत परम्परा की समग्रता और सनातनीयता में विद्यमान है।
यह आश्चर्य नहीं कि बाद में आए विदेशियों मतावलम्बियों ने प्रधानत: इन्हीं पारम्परिक नास्तिक मतों का आश्रय लिया हैं। ये लाेग वेद को कोरी स्तुतियाँ, याज्ञिक कर्मकांड-मंत्र भाग को अर्थविहीन नियम और क्रियाएँ, वर्ण-व्यवस्था वर्गों के शोषण की गुलामी प्रथा और आश्रम व्यवस्था को रूढ़िवादी मस्तिष्क की उपज साबित करने का प्रयास करते हैं। यह संकीर्णता को वृहद्ता की चौखट में स्थापित करने की उछलकूद भर है। नास्तिक मत किस दृष्टि से सनातनी नहीं माने जा सकते हैं, इस पर अभी और विचार की आवश्यकता है।
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(नोट : सनातन धर्म, संस्कृति और परम्परा पर समीर यह पहली श्रृंखला लेकर आए हैं। पाँच कड़ियों की यह श्रृंखला है। एक-एक कड़ी हर शनिवार को प्रकाशित होगी। #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना के समय से ही जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं।)
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इस श्रृंखला की पिछड़ी कड़ियाँ
4 – वैदिक यज्ञ परम्परा में पशु यज्ञ का वास्तविक स्वरूप कैसा है?
3 – सनातन वैदिक धर्म में श्रौत परम्परा अपरिहार्य क्यों है?
2 – सनातन धर्म क्या है?
1 – सम्पदायों के भीड़तंत्र में आख़िर सनातन कहाँ है?