नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश
बसन्त पंचमी पर बीते कुछेक सालों से मध्य प्रदेश के दो स्थलों की चर्चा विशेष रूप से होने लगी है। पहला- धारानगरी यानि धार में स्थित भोजशाला और दूसरा- पन्ना जिले के अजयगढ़ का सरस्वती मन्दिर। हालाँकि कुछ समय पूर्व इन दोनों में से पहले वाली की चर्चा अधिक होती थी, क्योंकि उसके साथ विवाद चस्पा है। इन दोनों स्थानों का ज़िक्र जहाँ, जब भी होता है, ‘धर्मस्थल’ के रूप में होता है। इन्हें ‘मन्दिर’ बताया जाता है। इनमें धर्मस्थल तो ठीक मगर ‘मन्दिर’ शब्द से सिर्फ़ यह अर्थ निकालना कि वे ‘देवस्थल’ ही हैं, ये ठीक नहीं।
रामचरित मानस की चौपाइयाँ देखिए। सुन्दरकाण्ड में ये चौपाइयाँ आती हैं :
मन्दिर मन्दिर प्रति कर सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा।।
गयऊ दसानन मन्दिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं।।
सयन किएँ देखा कपि तेही। मन्दिर महुँ न देखि बैदेही।।
गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं – (हनुमानजी) ने मन्दिर-मन्दिर में जाकर देखा, खोज की। वहाँ उन्हें अनगिनत योद्धा दिखाई दिए। फिर वह दशानन (रावण) के मन्दिर में गए। वह बड़ा ही अद्भुत बना हुआ था। वहाँ उन्होंने उसे (रावण को) सोते हुए तो देखा, लेकिन वैदेही (सीताजी) उन्हें दिखाई नहीं दीं।
तो क्या राक्षसराज रावण और अन्य राक्षसों के रहने के ठिकाने, महल आदि भी ‘मन्दिर’ थे? निश्चित रूप से नहीं। तो फिर ‘मन्दिर’ का अर्थ क्या हुआ? सीधा उत्तर है- निवास स्थल, वह चाहे किसी का भी हो।
यहाँ ‘मन्दिर’ शब्द की व्याख्या के साथ बात शुरू करने का आशय क्या है? यह कि आजकल हम जब किसी स्थल को ‘मन्दिर’ कह देते हैं, तो उसे अमूमन देवस्थल ही मानते हैं और उसे ‘अपने घर’ से अलग जगह के रूप में गिनने लगते हैं। जबकि देवस्थलों को ‘मन्दिर’ बताने के पीछे प्रतीकात्मक मतलब ही ये रहा होगा शायद, कि हम उन्हें भी अपने घर जैसा मानें और उनमें स्थापित देवविग्रहों के प्रति ‘अपनत्त्व भाव’, ‘परिवार के सदस्य’ का भाव रखें। लेकिन होता क्या है? चूँकि हम मन्दिरों के साथ अपनत्त्व भाव से नहीं जुड़ पाते, इसलिए उनसे जुड़े सांस्कृतिक संकेतों, प्रतीकों, अर्थों को समझने में भी अक्सर असमर्थ ही रहते हैं।
पहला उदाहरण धार का लेते हैं। धार जिले की सरकारी वेबसाइट के मुताबिक, वहाँ सन् 1000 से 1055 ईस्वी के दौरान परमारवंशी शासक हुए राजा भोज। उनकी राजधानी थी धारानगरी, जिसे आज धार कहते हैं। वहाँ उन्होंने सरकार द्वारा संरक्षित एक ‘उच्च शिक्षण केन्द्र’ स्थापित किया। मतलब, आज के सरकारी महाविद्यालय या विश्वविद्यालय जैसा। वहाँ वेद-वेदान्तों, धर्मशास्त्रों, विभिन्न कलाओं, साहित्य, संगीत, आदि की शिक्षा दी जाती थी। शास्त्रार्थ होते थे। देश तो क्या दुनियाभर के विद्वानों का आना-जाना होता था। कह सकते हैं कि यह नालन्दा, तक्षशिला विश्वविद्यालयों जैसा एक उत्कृष्ट शिक्षण केन्द्र था, जो आगे चलकर ‘भोजशाला’ कहलाने लगा।
मगर कालान्तर में, चूँकि ‘भोजशाला’ में ‘वाग्देवी’ माँ सरस्वती की कलात्मक मूर्ति स्थापित थी। वहाँ अध्ययन, अध्यापन के साथ उनकी पूजा-आराधना भी स्वाभाविक रूप से होती थी, इसलिए मुस्लिम आक्रान्ताओं ने शिक्षण केन्द्र के बजाय उसे हिन्दू धर्मस्थल समझ लिया। वहाँ तोड़-फोड़ मचाई। वाग्देवी की प्रतिमा भी खंडित कर दी। आगे चलकर उस प्रतिमा को अंग्रेज लूट ले गए। वर्तमान में वाग्देवी की वह खंडित प्रतिमा लन्दन के एक संग्रहालय में है। अब तक 500-600 साल बीत गए, मगर स्वतंत्र भारत का कोई शासक वह प्रतिमा वापस नहीं ला सका। किसी ने गम्भीर प्रयास नहीं किया। क्यों? क्योंकि ‘भोजशाला’ या वाग्देवी से हमारा ‘घर का नाता’ नहीं है।
हाँ, हम मिलकर हर बसन्त पंचमी पर ‘भोजशाला’ में घंटा-घड़ियाल ज़रूर बजाते हैं। हवन-पूजन करते हैं। बीच-बीच में भी इस तरह के आयोजन करते रहते हैं। इसी दौरान, जब कभी कोई राजनेता अपनी राजनीति को चमकाने के लिए हमें उकसा देता है, तो उसी ‘भोजशाला’ के प्रांगण में जबरन बना दी गई मस्जिद का मुद्दा लेकर तीर-तलवारें भी निकाल लेते हैं। हालाँकि, होता जाता उससे भी कुछ नहीं, सिवाय राजनीति के।
घंटा-घड़ियाल बजाने की ही रस्में अजयगढ़ के सरस्वती मन्दिर में भी अक्सर हुआ करती हैं। बसन्त पंचमी के मौक़े पर तो विशेष रूप से। जबकि इस धर्मस्थल को भी अजयगढ़ रियासत के तत्कालीन शासक राजा भूपाल सिंह ने विक्रत सम्वत् 1995 (अब से 86 साल पहले) में उन्हीं उद्देश्यों से बनवाया था, जिस मक़सद से ‘भोजशाला’ स्थापित हुई। यानि सरकार संरक्षित उत्कृष्ट शिक्षण केन्द्र के रूप में। ‘बुन्देल केसरी’ महाराजा छत्रसाल के वंशज भूपाल सिंह ने ‘भोजशाला’ की तरह यहाँ भी गर्भगृह बनवाया। फिर वह जर्मनी से माँ सरस्वती की अष्टधातु की प्रतिमा बनवाकर लाए। उसे यहाँ स्थापित कराया। ‘भोजशाला’ जैसे अन्य बन्दोबस्त भी किए।
लेकिन इस धर्मस्थल को शिक्षण केन्द्र के रूप में पुष्पित-पल्लवित करने का भूपाल सिंह का सपना भी आज ‘भोजशाला’ की ही तरह क्षत-विक्षत अवस्था में है। ये बात अलग है कि इस स्थल में किसी मुस्लिम हमलावर ने तोड़-फोड़ नहीं की। मस्जिद नहीं बनाई। मगर अंग्रेजों जैसे चोर-उचक्कों का हमला यहाँ अक्सर हो जाता है। बताते हैं कि एक बार तो चोर यहाँ रखे माँ सरस्वती के विग्रह में से ‘हंस’ ही उखाड़कर ले गए। हालाँकि बाद में चोर पकड़े गए। ‘हंस’ बरामद कर वापस ‘वाग्देवी के वाहन’ के रूप में स्थापित कर दिया गया।
इसके बावज़ूद यह सवाल बार-बार ज़ेहन में उठता है कि धार की भोजशाला हो या अजयगढ़ का सरस्वती मन्दिर, उनके हालात आज ऐसे क्यों हैं? और दूसरा कि हम इन ‘धर्मस्थलों’ के मूल तत्त्व को आख़िर कितना समझ पाए हैं? ज़वाब सीधे हैं। इनके हालात ऐसे इसलिए हैं क्योंकि इन स्थलों के प्रति हमारे भीतर ‘अपने घर’ की भावना नहीं। हम इन्हें ‘मन्दिर’ यानि देवालय मानते हैं। वरना किसी ऐरे-ग़ैरे की मज़ाल कि ‘हमारे घर’ की एक ईंट भी तोड़कर ले जाए! या एक चम्मच भी चुराकर ले जाए! इसी तरह, दूसरा उत्तर कि जब हम ‘धर्म’ या ‘धर्मस्थल’ का अर्थ ही नहीं समझते तो उसके मूलतत्त्व को कैसे समझेंगे आख़िर?
‘धर्म’ का अर्थ भजन-पूजन, ढोल-मंजीरा, हवन-आरती, नहीं होता। ये सब पूजा पद्धति के विधान हैं। ‘धर्म’ का सरल अर्थ है- कर्त्तव्य। वह कर्त्तव्य, जो हम अपने लिए चुनते हैं। स्वयं धारण करते हैं, (धारयति इति धर्म:)। इस अर्थ के हिसाब से ‘धर्मस्थल’ का मतलब हुआ- ‘कर्त्तव्य स्थल’। वे जगहें, जहाँ हमें हमारे कर्त्तव्यों को धारण करने की प्रेरणा मिले, मार्गदर्शन मिले, शिक्षा मिले, शक्ति मिले, सामर्थ्य मिले। ऐसी जगहें हैं हमारे ‘धर्मस्थल’। ये स्थल हमारी भारतीय संस्कृति की आत्मा हैं। फिर चाहे वह धार की भोजशाला हो या अजयगढ़ का सरस्वती मन्दिर। हम जब तक अपनी आत्मा से इनकी आत्मा की गहराई तक नहीं जुड़ेंगे, तब तक बस, घंटा-घड़ियाल ही बजाते रहेंगे।