नानाजी देशमुख, जिनका ‘ग्राम-स्वराज’ आज के ‘आत्मनिर्भर भारत’ की राह दिखाता है

डॉक्टर नन्दिता पाठक, दिल्ली से, 11/10/2020

भारत में छह लाख से अधिक गाँव हैं। देश की अधिकांश जनसंख्या इन्हीं गाँवों में रहती है। हालाँकि वर्तमान दौर में गाँवों की बड़ी आबादी रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन कर रही है। इससे शहरों पर आबादी का बोझ बढ़ रहा है। इसका असर या कहें कि विपरीत प्रभाव हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। अभी जब कोरोना महामारी का संक्रमण रोकने के मकसद से पूरे देश में तालाबन्दी हुई, तब हम सबको इन विपरीत प्रभावों की भयावहता का कुछ अंदाज़ भी हुआ। हमने लाखों ग्रामवासियों को पाँव-पाँव, पीड़ा भोगते हुए, शहरों से अपने गाँवों, घरों की तरफ़ लौटते देखा। इस सफर में हजारों लोग रेल की पटरियों पर, सड़कों पर पैदल चलते हुए जान तक गँवा बैठे। फिर भी तमाम अन्य ग्रामवासी चलते रहे क्योंकि मुश्किल वक्त में उन्हें आख़िरी उम्मीद सिर्फ़ अपने घर, अपने गाँव से थी। इससे हमें गाँवों की, ग्रामीण अर्थव्यवस्था, ग्राम्य-समाज व्यवस्था का अनुभव होना चाहिए। हुआ भी होगा। 

इसी दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब देशवासियों से ‘आत्मनिर्भर भारत’ का आह्वान किया, ताे संभव है उसके पीछे एक कारण ऐसे हालात से उपजे अहसास भी रहे हों। यही कारण है कि प्रधानमंत्री के इस आह्वान और मौज़ूदा स्थितियों के सन्दर्भ में आज ‘भारत रत्न’ नानाजी देशमुख के ‘ग्राम-स्वराज्य’ की अवधारणा प्रासंगिक हो जाती है। नानाजी, जिनकी आज जयन्ती है। नानाजी, जो मानते थे, “मनुष्य मात्र एक भाव है, सिर्फ़ अर्थशास्त्र नहीं। अर्थशास्त्र, आर्थिक गतिविधियाँ, तरक्की जरूरी है पर वह मानवसेवा के भाव के साथ होनी चाहिए।” नानाजी, जाे पीड़ित, उपेक्षित, ग्रामीणों को ही स्वजन-सम्बन्धी मानते थे। इसीलिए वे कहते थे, “मैं अपने लिए नहीं अपनों के लिए हूँ। अपने वे हैं, जो पीड़ित और उपेक्षित हैं।” पीड़ितों, उपेक्षितों की सेवा के लिए काम करना नानाजी के जीवन का ध्येय था। और वे सार्वजनिक जीवन के शीर्ष क्रम तक पहुँचकर यह भी अनुभव कर चुके थे कि इस ध्येय की प्राप्ति सरकारी-तंत्र में रहकर, सरकारों के माध्यम से नहीं हो सकती। इसीलिए जब केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार में उन्हें मंत्री बनाया गया तो उन्होंने वह पद छोड़ दिया। यह 1970-80 के दशक की बात है। नानाजी तब उत्तर प्रदेश के बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर संसद पहुँचे थे। उन्होंने ग्राम्य-सेवाकार्य की शुरुआत वहीं से की।

बलरामपुर के गोंडा को नानाजी ने शुरू-शुरू में अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। वह उस समय भारत का सबसे पिछड़ा एवं अभावग्रस्त क्षेत्र था। वहाँ उन्होंने ग्रामवासियों की खुशहाली के लिए काम प्रारम्भ किया। गाँव-गाँव भ्रमण किया। लोगों से मिले। उनकी जरूरतों को समझा। फिर उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति में लग गए। गाँववालों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्होंने उन्हीं संसाधनों के अधिकतम उपयोग पर ध्यान केन्द्रित किया, जो गाँवों में ही उपलब्ध थे। जिनके पास कृषियोग्य जमीन थी, वह खेती से अपनी आमदनी किस प्रकार बढ़ा सकते हैं? एक फसल, से दो, दो से तीन, किस प्रकार ले सकते हैं? इन प्रश्नों पर उन्होंने विचार किया। काम करना शुरू किया। उन्होंने पाया कि खेती की जमीन तो अच्छी है लेकिन जितने दिन तक पानी की आवश्यकता है, उतनी मात्रा में वह नहीं मिल पा रहा है। वर्षा के जल से एक ही फसल ली जा सकती थी। फिर खेत खाली हो जाते थे। इससे किसानों के पास कोई काम नहीं होता था। वह हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते थे। या फिर काम की तलाश में कुछ समय के लिए शहरों का रुख़ कर लेते थे। ये दोनों ही स्थितियाँ ‘समस्या’ थीं (आज भी हैं), जिनका समाधान तलाशने की कोशिश नानाजी ने की। उसका अध्ययन किया और विकल्प ढूँढ़े। विकल्पों को अमल में लेकर आए। 

अध्ययन में उन्होंने पाया कि वर्षा जल का प्रतिशत अच्छा है। बारिश का यह पानी ज़मीन में समा जाता है। इसलिए भूजल का स्तर भी बढ़िया है। थोड़े से प्रयत्नों से जमीन के अन्दर के जल को पम्पों के माध्यम से खेतों तक पहुॅचाया जा सकता है। यह सुविधा हो जाने के बाद दूसरी, तीसरी फसल भी ली जा सकती है। पर यहाँ एक और अड़चन थी कि जमीन के भीतर डालने के लिए लोहे के पाइप महँगे होते थे। वे गाँव में सहज उपलब्ध भी नहीं थे। इसलिए उन्होंने गॉवों में सहजता से उपलब्ध होने वाले बाँस को पाइप बनाकर प्रयोग में लिया। और बेहद कम लागत में बाँस के पाइपों के माध्यम से जमीन के अन्दर का जल खेतों तक पहुँचा दिया गया। नानाजी के ध्येय का सूत्रवाक्य था, ‘हर हाथ को काम, हर खेत को पानी’। यह उस दिशा में एक सफल प्रयाेग था। खेतों को पानी मिलने के बाद हर हाथ को काम मिले, इस दिशा में काम करना शुरू किया। गाँव में जिन लोगों के पास खेती योग्य जमीन नहीं थी, बंजर थी, उस पर उन्होंने पेड़-पौधे लगाने के लिए उन लोगों को प्रेरित किया। फूलों के, फलों के, औषधि के। जो हो जाएँ, वाे। जिन लोगों के पास पशुधन था, उन्हें पशुओं की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। इस काम में हर तरह से सहयोग किया। कुछ ग्रामवासी ऐसे भी थे जिनके पास न कृषि योग्य जमीन थी, न बंजर और न पशुधन ही था। ऐसे ग्रामवासियों को उन्होंने उनकी रुचि के हिसाब से कई तरह की कारीगरी सीखने के लिए प्रोत्साहित किया। मदद की। इस तरह किसी को खेती के काम में, किसी को पशुधन के काम में, किसी को रोजगार के कामों में आवश्यकतानुसार जोड़ दिया। उनके लिए प्रशिक्षण सह-उत्पादन केन्द्रों का बन्दोबस्त किया।

अब इसके बाद प्रश्न आया, गाँव में तैयार उत्पादों के प्रसंस्करण और बिक्री आदि का। इसका समाधान भी नानाजी ने गाँवों में ही खोजा। उन्होंने गाँवों में ही प्रसंस्करण केन्द्र स्थापित किए, जहाँ ग्रामीण स्तर पर उपलब्ध विभिन्न कच्चे उत्पादों के प्रसंस्करण (Processing) आदि का काम किया गया। फिर यहाँ से तैयार उत्पादों को आसपास के ग्रामीण इलाकों में ही बिक्री के लिए पहुँचाया गया। फिर नानाजी ने देखा कि कुछ बच्चे, युवा ऐसे भी हैं जो 10वीं 12वीं पास करके घर में बैठे हुए हैं। उनका न खेती में मन लगता था, न पशुपालन में। ऐसे बच्चों, युवाओं को उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ-साथ घर-घर जाकर समझाया। उनके साथ बैठकर बात की। उनके मन को जाना, समझा। फिर उन्हें उनकी रूचि के अनुसार कला, संगीत, खेल-कूद, तकनीकी प्रशिक्षण, जैसी विभिन्न गतिविधियों से योजनापूर्वक जोड़ दिया गया। इसी तरह ग्रामीण महिलाओं के लिए उन्होंने प्रबन्ध किए। ये महिलाएँ अब तक ज्यादातर पुरुषों के साथ खेती, पशुपालन जैसे कामों में हाथ बँटाती थीं। घर के सामान्य कामकाज देखतीं थीं। लेकिन नानाजी ने उन्हें घरों में दैनन्दिन उपयोग की चीजें जैसे- अचार, पापड़, मसाला आदि बनाने और सिलाई, कढ़ाई, बुनाई करने के लिए भी प्रेरित किया। इसके लिए उनके प्रशिक्षण का इन्तज़ाम किया। वे एक जगह बैठकर ये सब काम करना चाहें तो इसके लिए विशेष तौर पर उद्यमिता केन्द्र भी स्थापित किए। साथ ही इन केन्द्रों में बनाई जाने वाली चीजों की बिक्री न्यूनतम कीमतों पर गाँवों के आसपास ही होती रहे, इसकी भी व्यवस्था की। इस तरह गाँववालों के लिए समग्रता में रोजगार और आमदनी के साधन बढ़े। ग्रामीण महिलाएँ भी आत्मनिर्भर हुईं। 

लेकिन नानाजी की ग्राम्यसेवा यहॉ रुकी नहीं। उन्हें ग्रामीणों की शिक्षा, उनके स्वास्थ्य, उनमें नैतिक मूल्यों के आरोपण-पोषण और बच्चों, विशेष तौर पर बालिकाओं के भविष्य की भी चिन्ता थी। लिहाज़ा, उन्होंने इन क्षेत्रों में भी अभिनव प्रयोग किए। उन्होंने गाँवों में, गाँव के लोगाें के लिए, परम्पराओं के अनुसार तीज-त्यौहारों, राष्ट्रीय पर्वों आदि पर मनोरंजक कार्यक्रमों के आयोजन का सिलसिला शुरू किया। ताकि लोग अपने संस्कारों, परम्पराओं, नैतिक मूल्यों से जुड़ें। उनमें सामूहिकता का भाव उत्पन्न हो। धर्म के प्रति उनकी आस्था बढ़े। देशभक्ति जागृत हो। इसी तरह गाँव के बालक-बालिकाओं की शिक्षा के लिए विद्यालय खोले गए। सरस्वती शिशु मन्दिरों की शुरुआत इस दिशा में बड़ा प्रयास था। ग्रामवासी हमेशा स्वस्थ रहें, इस हेतु परम्परा से चली आ रही आयुर्वेद पद्धति से ‘दादी माँ का बटुआ’ ग्रामवासियों के बीच लोकप्रिय किया। ये ‘दादी माँ का बटुआ’ क्या है? हमारे घरों में मौज़ूद हल्दी, तुलसी, अदरक, लहसुन जैसे ही विभिन्न औषधीय पदार्थों से आधि-व्याधि की चिकित्सा के नुस्खे़। ये हमें हमारी दादी-नानी सदियों से बताती आ रही हैं। उनके इस्तेमाल से हमें स्वस्थ करती आ रही हैं। तो, नानाजी उन चीजों का लोगों को फिर स्मरण कराया। जिन बीमारियों का इलाज़ इस तरह न हो सके, उनके लिए गाँवों में ‘रोग निदान शिविर’ आयोजित किए। इनमें शहरों से चिकित्सक बुलाए गए। जो लोग इन शिविरों में भी ठीक न हो पाएँ, उन्हें विशेष एम्बुलेन्स से शहर के अस्पताल भेजने का प्रबन्ध किया गया। मोतियाबिन्द जैसी कई छोटी-बड़ी शल्य चिकित्सा तो एक बस में बने चलित-अस्पताल में ही कर दी जाती थी। ताकि किसी को बाहर न भटकना पड़े, इसके लिए। 

नानाजी ने इसके अलावा महिलाओं के लिए गाँवों में ही सुरक्षित प्रसव की व्यवस्था पर भी ध्यान दिया। गाँव साफ-सुथरे और हरे-भरे रहें, इसके प्रयास किए। जिससे कि पर्यावरण और वातावरण भी स्वस्थ्य और सुरक्षित रहे। इस तरह ग्रामीण स्वावलम्बन के उनके प्रयास समग्रता लिए हुए थे। एकपक्षीय नहीं थे। उनके प्रयासों की जो यात्रा गोंडा से शुरू हुई, वह आगे बढ़ते हुए बीड़ (महाराष्ट्र), चित्रकूट (मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा पर), सिंहभूम (झारखंड) तक पहुँची। इन प्रयासों की ख्याति तो देश की सीमाओं के बाहर तक भी गई। हमें याद है, नानाजी के जीवनकाल में बड़ी संख्या में विदेशी शोधार्थी, चिकित्सक, वैज्ञानिक, सामान्य जिज्ञासु आदि इन केन्द्रों पर आया करते थे। आत्मनिर्भर हो रहे गाँवों का, ग्रामीणों का साक्षात्कार करने के लिए। फिर वे हमारे इन केन्द्रों से मिले अनुभवों को अपने क्षेत्रों, कार्यक्षेत्रों में लागू करते थे। उन्हें ठीक इसी तरह से अपनाते थे। दूसरे देशों के नागरिकों में हमारे ग्राम-स्वराज्य, ग्रामीण परिवेश, गाँवों के पारम्परिक अर्थतंत्र आदि को लेकर जिज्ञासाएँ आज भी हैं। लेकिन सवाल उठता है कि क्या हम ख़ुद अपने ग्राम्य-जीवन से जुड़े ऐसे अहम पहलुओं का साक्षात्कार कर रहे हैं? आज, नानाजी के जन्मदिवस पर यह हमारे चिन्तन का अहम विषय होना चाहिए। ‘आत्मनिर्भर भारत’ का अंकुर इसी से फूटेगा। 

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(डॉक्टर नन्दिता पाठक समाजसेवी हैं। वर्तमान में दिल्ली में रहती हैं। भारत रत्न नानाजी देशमुख के साथ, चित्रकूट में उनकी नज़दीकी सहयोगी के तौर पर काम कर चुकी हैं। वर्तमान में केन्द्र सरकार के ‘निर्मल गंगा’ और ‘स्वच्छ भारत’ जैसे अभियानों से जुड़ी हुई हैं। उन्होंने यह लेख और वीडियो #अपनीडिजिटलडायरी को व्हाट्सऐप सन्देश के माध्यम से भेजा है। )

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