भोपाल गैस त्रासदी घृणित विश्वासघात की कहानी है

विजय मनोहर तिवारी की पुस्तक, ‘भोपाल गैस त्रासदी: आधी रात का सच’ से, 24/12/2021

कलपेश (याग्निक) जी की टिप्पणी है…

मुट्ठी भर मठाधीश, पांच लाख निर्दोषों को छल रहे हैं। पूरे 26 बरस से। तब ये बेगुनाह निर्ममता से बर्बाद कर दिए गए। अब निर्लज्जता से प्रताड़ित किए जा रहे हैं। कानून के नाम पर। किंतु अन्याय की सीमा होती है। न्याय करने वाले हर व्यवस्था में होते ही हैं। दुखद यह है कि उन्हें झकझोरना पड़ता है। भोपाल गैस त्रासदी मामले में अदालती आदेश के बाद ऐसा करने का समय आ गया है। 

दो ही विकल्प हैं। या तो सुप्रीम कोर्ट अपने ही स्तर पर 1996 में जस्टिस ए. एम. अहमदी की कलम से बदलीं, कमजोर कर दी गई धाराओं की समीक्षा करे। या फिर केंद्र सरकार इस केस को फिर से खुलवाए। दोनों ही बातें संभव हैं। देश हित में हैं। हमें किंतु इसके लिए आक्रामक मुद्रा अपनानी होगी। तंत्र से लड़ाई आसान नहीं होती। किंतु जहरीली गैस की भयावह यादों को सीने में दबाए, इतने बरसों से हर पल, हारी-बीमारी बेकारी-बेबसी से लड़ ही तो रहे हैं हम। एक और लड़ाई। 

अब कुछ पथरीले, खुरदुरे व्यावहारिक सच। जब चारों ओर मौत फैली थी तब लोकतंत्र के तीनों स्तंभों में कहीं गर्जना नहीं उठी कि यूनियन कार्बाइड के दोषी वॉरेन एंडरसन को ऐसे रहस्यमय ढंग से छोड़ क्यों दिया? एक मामूली वाहन चालान बनने पर भी पुलिस डपटती है कि थाने चलो- यहां 15 हजार मौतों के जिम्मेदार की जैसे राजकीय अतिथि सी सेवा की गई। वो भी मुख्यमंत्री के स्तर पर। वो भी प्रधानमंत्री को विश्वास में लेकर। उस दिन की वीडियो क्लिप में यदि आप गौर से देखें तो लग ही नहीं रहा कि अर्जुनसिंह किसी सादे से हादसे का भी मुकाबला करके आए हों। बड़े ही आत्मविश्वास और प्रभावी शैली में वे पत्रकारों से त्रासदी को लेकर बात कर रहे थे। साथ बैठे राजीव गांधी गंभीर तो दिख रहे हैं लेकिन पूरी तरह अर्जुनसिंह से प्रभावित। जाहिर है, उन्होंने ही प्रधानमंत्री को मना लिया होगा। और यदि नहीं तो वे राष्ट्र के सामने क्यों नहीं लाते कि भोपाल के गुनहगार को क्यों जाने दिया? क्यों? किसी को पता नहीं। क्योंकि किसी ने इन्हें झंझोड़ा नहीं। पक्ष तो होता ही है रीढ़ की हड्डी के बिना। विपक्ष को क्यों सांप सूंघ गया था? और बाद में भी किसने कुछ किया? देखे एक नजर : नरसिंह राव सरकार ने उसे अमेरिका से बुलाने के प्रयास कमजोर कर दिए। अटल सरकार ने तो एक कदम आगे कार्बाइड के भारतीय प्रमुख केशुब महिंद्रा को पद्म पुरस्कार के लिए चुना। 

दूसरी कड़ी हैं नौकरशाह। आज वे टीवी चैनलों पर एक-दूजे को दोषी सिद्ध करने की होड़ में लगे हैं। तब अपने पुंसत्व को ताक में रख गुपचुप उन्हीं आदेशों का पालन करने में लगे थे, जो उनकी आत्मा पर बोझ बन गए होंगे। पौसी अलेक्जेंडर ब्रह्मस्वरूप, मोती सिंह और क्या स्वराज पुरी? हर छोटी-बड़ी बात पर नोटशीट पर टीप लिखने के आद।  ‘पुनर्विचार करें, समीक्षा करें’  लिखकर हर फैसले में अड़ंगा बनने के जन्मजात अधिकारी ये नौकरशाह आज किस मुंह से आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं? 

तीसरी कड़ी है कानून के रखवालों की। चाहे केस तैयार करने वाली पुलिस, सीबीआई हो या फिर लड़ने वाला प्रॉसिक्यूशन हो या कि तत्कालीन न्यायमूर्ति हों। सभी पर प्रश्नचिह्न है। आखिर न्याय के सर्वोच्च ओहदे पर बैठे अहमदी ऐसा कैसे कर सकते हैं? सीबीआई, केंद्र या राज्य सरकार कोई तो 1996 के उस फैसले को चुनौती देता? इन सबसे हटकर बड़ा प्रश्न। सरकार चाहे तो क्या नहीं कर सकतीं। सुप्रीम कोर्ट ने तो अफजल गुरु को फांसी सुना दी है। चार साल हो गए। क्या हुआ? सुप्रीम कोर्ट ने तो शाहबानो को गुजारा भत्ता दिए जाने का फैसला दिया था। सरकार ने एक कानून बनाकर उसे खत्म कर दिया। केरल के मल्लापेरियार बांध से तमिलनाडु पानी लेता था। सुप्रीम कोर्ट ने बांध की ऊंचाई बढ़ाने का फैसला दिया तो केरल ने विधानसभा में कानून बदलकर उस फैसले को निरर्थक कर दिया। इंदिरा गांधी ने किस ताकत के साथ इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को अनदेखा किया था- वह देश को भलीभांति याद है। सब सरकार के हाथ में है। किंतु भोपाल के लाखों पीड़ितों के लिए कोई नेता, अफसर, कानून का रखवाला आगे न आया।… 

एमजे अकबर ने लिखा… 

क्या आप भोपाल के विश्वासघात पर गहराते गुस्से के ऊपर छाई इस खामोशी को सुन सकते हैं? भारत के तीन सबसे ताकतवर शख्स प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, श्रीमती सोनिया गांधी और पीएम इन वेटिंग राहुल गांधी खामोश हैं। माना कि खामोशी भी बयान होती है, लेकिन फिलवक्त मेरे जेहन में कई सवाल उमड़ रहे हैं। अव्वल तो कांग्रेस पार्टी इस तरह की खामोशी की आदी है नहीं। हैरानी नहीं होनी चाहिए कि आम राय के दबाव से सामना होने पर पार्टी के दूसरे दर्जे के नेताओं ने अपने बयानों से बखेड़ा ही खड़ा किया है। हफ्ता खत्म होते-होते कांग्रेसी एक ही दुआ कर रहे थे- जो चुप हैं, वे अपना मुंह खोलें और जो बोल रहे हैं, उन्हें जबान पर लगाम लगाने का हुक्म दिया जाए। 

लेकिन बतकहियों से भी हमेशा बात कहां बनती है। जयराम रमेश को लगा होगा कि शायद उनके इस ऐलान से ही कोई असर पड़े कि उनका प्रस्तावित ग्रीन ट्रिब्यूनल भोपाल में होगा। लेकिन यह बाजी भी उलटी पड़ गई। रमेश के मुंह से भोपाल राग सुनकर मीडिया को पर्यावरण मंत्री के रूप में रमेश का इकलौता भोपाल दौरा याद हो आया, जिसमें उन्होंने त्रासदी के शिकार लोगों की तकलीफ का तकरीबन मखौल उड़ाते हुए निहायत गैरजिम्मेदाराना बयान दिया था। रमेश ने विजेता की मुद्रा में कहा था। “मैंने

जहरीले कूड़े को हाथ में उठाकर देखा है। मैं अब भी जिंदा हूँ। गैस को 25 बरस हो चले। अब हमें आगे की सुध लेनी चाहिए।” 

यह देश की खुशनसीबी ही थी कि दिसंबर, 1984 की उस हत्यारी रात रमेश भोपाल की झुग्गियों में नहीं सो रहे थे। रात को खामोशी में यूनियन कार्बाइड प्लांट से रिसी जहरीली मिक गैस ने 20 हजार लोगों की जान ले ली, जबकि लाख से ज्यादा लोगों को अपाहिज बना दिया। हमें ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि रमेश जहरीली गैस के चलते कोख में ही दम तोड़ देने वाले भ्रूणों में से एक नहीं थे या उन्होंने 26 साल का यह सफर लड़खड़ाते हुए, धुंधलाती, गुस्से से भरी आंखों के साथ तय नहीं किया। कितना अच्छा हुआ कि रमेश की भेंट कभी रघु राय से नहीं हुई। इस रहमदिल फोटोग्राफर ने असहाय लोगों के लिए इतना काम किया है जितना सरकार और मानवाधिकारों के प्रति खासी प्रतिबद्ध अमेरिका की हुकूमत तक ने भी नहीं किया होगा। 

सच्चाई यह है कि भोपाल गैस त्रासदी घृणित विश्वासघात की कहानी है। इसमें हर उस शख्स को इनाम से नवाजा गया, जिसने भारतीयों से ज्यादा तरजीह अमेरिकी कॉर्पोरेट के हितों को दी थी। इस शर्मनाक कहानी की शुरुआत वॉरेन एंडरसन के सरकारी उड़नखटोले में बैठकर उड़नछू हो जाने से होती है। वर्ष 1987 में सीबीआई ने चार्जशीट दाखिल की और इस आपराधिक नरसंहार के लिए दोषियों को 10 साल कैद की आवाज उठाई। मुख्य न्यायाधीश अहमदी ने इस चार्जशीट पर पानी फेर दिया। यह विडंबना ही है कि एक ऐसे मामले में सुलह के लिए मुस्लिम मुख्य न्यायाधीश का इस्तेमाल किया गया, जिसमें पीड़ितों का बड़ा तबका गरीब-गुरबा मुसलमानों का था। अहमदी को इसके एवज में रिटायरमेंट के बाद खूब इनामो-इकराम मिले। भारत-अमेरिका के बीच प्रत्यर्पण सुलहनामे के बावजूद वॉरेन एंडरसन को कभी मुकदमे का सामना करने की जहमत नहीं उठानी पड़ी। उनका बॉन्ड महज 25 हजार रुपयों का था। यह उतनी ही रकम है, जो हादसे के 26 साल बाद मुकदमे में दोषी पाए गए आरोपियों से मुचलके के बतौर चाही गई थी। 

टोकन के तौर पर गरीबों के सामने समय-समय पर कुछ टुकड़े डाले जाते रहे। इनमें सबसे ताजातरीन है हाल ही में फिर से गठित किया गया ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स (जीओएम), जिसके अध्यक्ष है पी चिदंबरम। जरा कल्पना करें, पिछले जीओएम का अध्यक्ष कौन था? अर्जुन सिंह। और जरा यह भी बताएं कि चिदंबरम किस चीज के लिए मशहूर हैं? वित्त मंत्री की हैसियत से उन्होंने डॉऊ केमिकल के लिए कमल नाथ, मोंटेक सिंह अहलूवालिया और रोनेन सेन के साथ लामबंदी की थी। और प्रधानमंत्री को भरोसा दिलाया था कि यदि डाऊ को बख्श दिया जाता है तो अमेरिकी निवेश की शक्ल में खासी मलाई हासिल की जा सकती है। आखिर डाऊ वापसी क्यों करना चाहती थी? इसीलिए कि भारत में कार्बाइड की जमीन पर फिर से दावा जता सके। ऐसा क्यों? बात केवल डाऊ की ही होती तो गनीमत थी, लेकिन भारतीयों के पास भी भारतीयों के लिए कुछ नहीं था। यकीनन, जयराम रमेश भी नए जीओएम के सदस्य हैं। यदि कांग्रेस का बस चलता तो अपने प्रवक्ता अभिषेक सिंघवी (अगर वे मंत्री होते) को भी जोओएम में शामिल कर लेती। सिंघवी डाऊ के वकील थे और वे कांग्रेस के लेटरहैड पर संदेश भेजा करते थे। भारतीय इस हकीकत से भी बेपरवाह नजर आए हैं कि कार्बाइड को गैस के खतरे के बाबत अंदेशा था, लेकिन फिर भी उसने हादसे को टालने के लिए कुछ नहीं किया। बहरहाल, उन स्वयंसेवकों के जज्बे को मेरा सलाम, जिन्होंने पार्टियों की सियासत में उलझे सिस्टम से लड़ाई लड़ी। क्या मैं स्वप्न देख रहा हूं? क्या कभी कोई ऐसा क्षण आएगा, जब भोपाल के हादसे पर हर हिंदुस्तानी की अंतरात्मा उसे कचोटेगी? 
( जारी….)
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(नोट : विजय मनोहर तिवारी जी, मध्य प्रदेश के सूचना आयुक्त, वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं। उन्हें हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार ने 2020 का शरद जोशी सम्मान भी दिया है। उनकी पूर्व-अनुमति और पुस्तक के प्रकाशक ‘बेंतेन बुक्स’ के सान्निध्य अग्रवाल की सहमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर यह विशेष श्रृंखला चलाई जा रही है। इसके पीछे डायरी की अभिरुचि सिर्फ अपने सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकार तक सीमित है। इस श्रृंखला में पुस्तक की सामग्री अक्षरश: नहीं, बल्कि संपादित अंश के रूप में प्रकाशित की जा रही है। इसका कॉपीराइट पूरी तरह लेखक विजय मनोहर जी और बेंतेन बुक्स के पास सुरक्षित है। उनकी पूर्व अनुमति के बिना सामग्री का किसी भी रूप में इस्तेमाल कानूनी कार्यवाही का कारण बन सकता है।)
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श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ 
10. वे निशाने पर आने लगे, वे दामन बचाने लगे!
9. एंडरसन को सरकारी विमान से दिल्ली ले जाने का आदेश अर्जुन सिंह के निवास से मिला था
8.प्लांट की सुरक्षा के लिए सब लापरवाह, बस, एंडरसन के लिए दिखाई परवाह
7.केंद्र के साफ निर्देश थे कि वॉरेन एंडरसन को भारत लाने की कोशिश न की जाए!
6. कानून मंत्री भूल गए…इंसाफ दफन करने के इंतजाम उन्हीं की पार्टी ने किए थे!
5. एंडरसन को जब फैसले की जानकारी मिली होगी तो उसकी प्रतिक्रिया कैसी रही होगी?
4. हादसे के जिम्मेदारों को ऐसी सजा मिलनी चाहिए थी, जो मिसाल बनती, लेकिन…
3. फैसला आते ही आरोपियों को जमानत और पिछले दरवाज़े से रिहाई
2. फैसला, जिसमें देर भी गजब की और अंधेर भी जबर्दस्त!
1. गैस त्रासदी…जिसने लोकतंत्र के तीनों स्तंभों को सरे बाजार नंगा किया!

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