Machivarla Budha

प्रकृति के प्राकृतिक संगीत का एक वीडियो, दो रोचक कहानियाँ और अद्भुत सन्देश!

टीम डायरी

पहले यह वीडियो देखिए। प्रकृति का विशुद्ध प्राकृतिक संगीत है इसमें। झरनों की झाँझर, पक्षियों का कलरव-सुर, कठफोड़वा की काठ पर दी ताल, मोर का नृत्य। मतलब वह सब, जो इससे पहले अपने आस-पास होने के बावज़ूद शायद कम लोगों ने ही देखा-सुना होगा। बहरहाल, आज देख-सुन लीजिए, आनन्द आ जाएगा।  

अब इस वीडियो से जुड़ी पहली कहानी। यह वीडियो, अस्ल में 16 जून 2017 को आई मराठी फिल्म ‘माचीवरला बुधा’ का है। मराठी फिल्मकार दीपिका विजयदत्त ने इसका निर्माण किया था। जबकि विजयदत्त और मृणाल कुलकर्णी ने इसे निर्देशित किया था। तो कहानी यूँ है कि चूँकि फिल्म वन और वन्यजीवन से जुड़ी है, इसलिए निर्देशक विजयदत्त इसमें संगीत से लेकर तमाम तरह की ध्वनियाँ विशुद्ध प्राकृतिक चाहते थे। ऐसी जिसमें अन्य ध्वनियों, वाद्यों आदि की मिलावट न हो और अगर हो भी तो न्यूनतम इतनी कि वह प्राकृतिक ध्वनियों में पूरी घुल जाए।

सो, उन्होंने ऐसी प्राकृतिक ध्वनियों को एकत्रित करने और उन्हें सांगीतिक स्वरूप में सम्पादित करने का ज़िम्मा अपने संगीत-निर्देशक धनंजय धूमल को सौंप दिया। धूमल ने भी चुनौती स्वीकार ली। इसके बाद उन्होंने अपनी टीम के साथ लोनावाला, अरनाला, त्रयम्बकेश्वर और सातारा के जंगलों में महीनों तक 1,800 किलोमीटर की ख़ाक छानी। वन और वन्यजीवों की ध्वनियों का लगभग 25 गीगाबाइट का संकलन किया। इसके बाद मुम्बई लौटकर उसे सांगीतिक रूप में सम्पादित किया। इस मेहनत से जो संगीत बना, वह इस 3 मिनट के वीडियो में दर्ज़ है। 

इससे आगे जुड़ती दूसरी कहानी यूँ है कि यह फिल्म मराठी के ही उपन्यास ‘माचीवरला बुधा’ पर आधारित है। यह उपन्यास जाने-माने मराठी साहित्यकार गोपाल नीलकंठ दांडेकर (8 जुलाई 1916 से 1 जून 1998) ने जनवरी 1958 में लिखा था। उपन्यास की कहानी एक ऐसे 50 वर्षीय क़िरदार के इर्द-ग़िर्द घूमती है, जो मुम्बई जैसे महानगर की अच्छी-भली ज़िन्दगी को छोड़कर अपने गाँव लौट आया है। प्रकृति को सुनने, प्रकृति को महसूस करने, उससे ज़िन्दगी लेने, उसे ज़िन्दगी देने। गाँव लौटकर वह ‘प्रकृति के प्राकृतिक संगीत’ से दो-चार होता है। धीरे-धीरे वह पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों से बातें करने लगता है। उनकी कही सुनने लगता है। उनकी भावनाएँ समझने लगता है। और अपना शेष जीवन पूरा का पूरा उनके रक्षण-संरक्षण में लगा देता है। इसमें वह एक हद तक सफल भी होता है। 

लिहाज़ा, अब इन कहानियों से सार रूप में निकले सन्देश पर भी ग़ौर करना लाज़िम है। वह भी तब जबकि एक तरफ़ ‘एक पेड़ माँ के नाम’, ‘लाख-करोड़ पौधारोपण’, जैसे पर्यावरण के तमाम रिकॉर्डबनाऊ सरकारी कार्यक्रम हो रहे हैं और दूसरी ओर केरल के वायनाड से उत्तराखंड, हिमाचल के पहाड़ों तक प्रकृति ने तबाही मचा रखी है। ऐसे में, इस वीडियो, फिल्म और उपन्यास की कहानी एक सीधा-सरल सा सन्देश देती है, “प्रकृति के बीच रहकर जब हम उसका प्राकृतिक संगीत सुनेंगे, समझेंगे, महसूस करेंगे, तभी वनों, वन्यजीवों का संरक्षण कर पाएँगे।” 

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