समीर पाटिल, दिल्ली से
श्रीमद्भगवद्गीता सनातन धर्म के सर्वसार ग्रन्थ के रूप में मान्य है। उपनिषद् (वेद), ब्रह्मसूत्र के साथ श्रीमद्भगवद्गीता को प्रस्थानत्रयी कहा जाता है। आस्तिक परम्परा में आचार्य और मनीषी इन पर भाष्य देश-काल अनुरूप युगधर्म को व्याख्यायित करते आए हैं। गीता को गोपाल श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन रूपी बछड़े के व्याज से जिज्ञासुओं के लिए उपनिषद् रूपी गौओं के दुहे गए क्षीर की उपमा दी गई है।
भारतीय ज्ञान परम्परा में कुतीर्थ (अपात्र, असम्प्रदायविद्, अज्ञानी व्यक्ति) से ज्ञान प्राप्त करने का निषेध है। वहीं स्वच्छन्दता के माहौल में श्रीमद्भगवद्गीता पर व्याख्याओं की बाढ़ आई हुई है। नए विचारकों के लिए गीता के नाम पर संकीर्ण पूर्वग्रह आधारित, अधिक चौंकाने वाले या विवादास्पद अर्थ-व्याख्या करना अंतरराष्ट्रीय ख्याति का सुलभ राजमार्ग बन गया है। ऐसे में विद्वतवरेण्य आचार्य परम्परा के संवाहक पद्मश्री केशवराव सदाशिवशास्त्री मुसलगाँवकर ने श्रीमद्भगवद्गीता पर एक विशद गीतातत्त्व मीमांसा टीका की है। यह रचना वर्तमान पीढ़ी के सुधि पाठकों के लिए एक पठनीय, संग्रहणीय अवदान सिद्ध होगी।
कतिपय ऐतिहासिक कारणों से सनातन धर्म परम्परा में लम्बे समय से प्रवृत्ति मार्ग विचार का ह्रास होता रहा है। निवृत्ति मार्ग को लोकरंजक बनाने में नास्तिक और अवान्तर मतों के साथ ही अद्वैत और भक्तिवादी सम्प्रदायों भी भूमिका भी असंदिग्ध रही है। इसी अवधि में प्रवृत्तिपरक वर्णाश्रम मूल्यों का क्षरण भी देखने में आता है। परवर्ती औपनिवेशिक काल की आधुनिकता में रूढ़ हुई धर्म बनाम भौतिकता की कृत्रिम बहस ने समाज में गीतादि धर्मग्रन्थों में वर्णित नैतिक मूल्यों को कमजोर किया है। इसी दौरान कालप्रवाह से पलायन, संशयशीलता जैसी कई अवांछित वृत्तियाँ भी भारतीय मानस में घर कर गईं।
गीतातत्त्वमीमांसा वैदिक कर्म की प्रधानता को गीता का प्रतिपाद्य स्वीकार कर विभिन्न युक्तियों से स्थापित करती है। यह व्यक्तिगत या सांसारिक जीवन में धर्मनीतिपरक प्रवृत्ति और कर्म का सन्देश है, जो मात्र समाज-राष्ट्र के हित की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है, परमात्मा के साथ जीवन के यथार्थ तादात्मय का निदर्शक और कारक भी है। चिन्तन की यह समग्रता ही वह योगात्मक बल है जो राष्ट्र, विचार-दर्शन और समाज की विविधताओं को स्वीकार करने वाली सनातन संस्कृति को एकात्मता के सूत्र में बाँधता है। ज्ञातव्य है ब्रिटिश काल में साहित्यसंवर्धिनी समिति के तत्वावधान में अंग्रेजी शासन में गीता प्रकाशित की थी। गीताप्रेस के संस्थापक श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार ने लिखा है कि इस गीता में एक चित्र भारत माता का था, जिनके एक हाथ में श्रीमद्भगवद्गीता और दूसरे हाथ में तलवार थी।
इसके बाद सरकार विरोधी गतिविधियों के नाम पर सरकार ने उनको गिरफ्तार कर लिया था। उस समय अंग्रेजी सत्ता का भय इतना हावी था कि समिति के मंत्री के चाचाजी ने ही अपने घर रखी गीता को अग्नि के हवाले कर दिया था। हालाँकि हमारे इस दौर की गीतातत्त्वमीमांसा के आरम्भ में ही भारतमाता का चित्र है और यह ग्रन्थ उनको ही समर्पित किया गया है। गीता के कर्म सिद्धान्त को अपना जीवन आदर्श बनाने वाले लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, वीर सावरकर और नेताजी सुभाषचंद्र बोस का भी इसमें पुण्य स्मरण किया गया है।
गीतातत्त्वमीमांसा में श्लोक के अर्थ-अन्वयार्थ के साथ ही शांकर और रामानुज भाष्य की व्याख्या और तिलककृत गीतारहस्य के भावार्थ का उपयोग किया गया है। अन्यान्य टीकाओं का भी प्रयोग है लेकिन प्रस्तुत टीका प्रवृत्ति धर्म को ही ज्ञान गीता का प्रधान विषय मानता है। यथार्थ ज्ञान को आत्मसात करने की कला कर्म में सन्निहित है। चेतना के सोपान की बात हो या फिर नीति मूल्यों की, जीव अपने कर्म में उतार कर ही उनका सप्रभाव समझ सकता है। केवल बौद्धिक या मानसिक स्तर का ज्ञान फिर चाहे वेद प्रमाण आधारित ही क्यों न हो, पूर्णता की कसौटी पर वह अधूरा और आभासी ही रहता है। धर्मभूमि में एक महायुद्ध के आरम्भ में कर्माकर्म मीमांसा में ही वह समग्रता सन्निहित है, जो इसे कालातीत भी बनाती है। इस वृहद चिन्तन के सामने कई टीकाएँ कोरा बौद्धिक विलास मात्र लगती हैं।
गीतातत्त्वमीमांसा मानवजाति के समक्ष के प्रश्नों को उनकी त्वरा के साथ सामने रखती है। गीता एक प्रासादिक ग्रन्थ है तो यह एक पात्रता की अपेक्षा भी रखती है। गीता चिन्तन-मनन से अधिक सम्यक् कार्रवाई को प्रेरित करती है। विशेषता यह है कि कि इतनी टीकाओं और दार्शनिक सिद्धान्तों को साथ लेकर गीतातत्त्वमीमांसा कर्म की प्रधानता के मूल उद्देश्य को ही रेखांकित करते चलती है। ग्रन्थ के अध्ययन के दौरान कई स्थानों पर प्रमाद और अकर्मण्यताजन्य आवरण को विदीर्ण करने वाले एक के बाद एक आघात लगते हैं। यह बौद्धिक दासता की जड़ता से जगाने वाली हैं।
टीका की भाषा और प्रस्तुतिकरण प्रवाहमय और विषयानुकूल है। गूढ़ तत्त्व विवेचन भी अत्यन्त सहज और मनोरम रूप से किया गया है। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य कई कारणों से विशिष्ट है। प्राचीन सभ्यताओं वाले देश अपनी जड़ों से पुष्ट होकर भावी भूमिका के लिए कमर कस रहे हैं। ऐसे में गीतातत्त्वमीमांसा भारत की सांस्कृतिक भूमिका और निज कर्त्तव्य बोध को अभिगम करने में यह विशिष्ट सोपान सिद्ध होगा। मकरसंक्रान्ति वि. स. 2079 को प्रस्तुत ग्रन्थ का द्वितीय परावर्धित संस्करण आया था। सौभाग्य की बात है शीघ्र ही तृतीय संस्करण उपलब्ध होने जा रहा है।
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पुस्तक का विवरण – गीतातत्वमीमांसा, श्रीमद्भगवद्गीता
(शांकर भाष्य, रामानुज भाष्य, लोकमान्य तिलक कृत गीतारहस्य भावार्थ सहित)
लेखक – पद्मश्री पं. केशव राव सदाशिवशास्त्री मुसलगाँवकर
प्रकाशक – चौखंबा संस्कृत संस्थान, के – 37/116, गोपाल मन्दिर लेन,
गोलघर (निकट मैदागिन), वाराणसी
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(नोट : समीर मूल रूप से मध्य प्रदेश के रहने वाले हैं। एक निजी कम्पनी में काम करते हैं। पठन-पाठन और आध्यात्म जैसे विषयों पर लेखन में इनकी विशेष रुचि है। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में शुमार होते हैं।)
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