महावीर स्वामी के बजट में मानव और ब्रह्मचर्य

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 1/2/2022

आज देश का बजट सदन के पटल पर प्रस्तुत किया गया। बजट को हम प्राय: आर्थिक सन्दर्भों में ही देखते हैं। जबकि उसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग सभी कुछ समाहित होता है। हाँ, यह अवश्य है कि अर्थ को केन्द्र में रखकर और अर्थ की सहायता से अन्य चीजों को पाने की प्रस्तावना है। आधुनिक युग में हम सभी संपन्न होना चाहते हैं। इसी कारण अर्थ केन्द्र में है। इसीलिए सम्पन्नता को हम प्राय: आर्थिक सन्दर्भों में देखते और समझते हैं। 

लेकिन महावीर स्वामी जब अपने महाव्रत की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं, तब उनके लिए यह सम्पन्नता आर्थिक अर्थों में नहीं है। वे सम्पन्नता को ज्ञान, दर्शन और चरित्र के अर्थों में ग्रहण करते हैं। स्वामी के बजट के केन्द्र में मानव है, न कि अर्थ। इसलिए मानवीय चेतना से संपन्न होने का सन्देश देते हुए कहते हैं, “बंभचेर उत्तमतव नियम नाण दंसण चरित्त सम्मत विणयमूलं।” अर्थात्- ब्रह्मचर्य उत्तम तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय की जड़ है। जब हम ज्ञानवान, चरित्रवान होंगे, तब हम सम्पन्न स्वत: हो जाएँगे। किसी कवि ने कहा है, “विद्याधनं सर्वधनं प्रधानम्।” यानि- सभी प्रकार के धनों में विद्या रूपी धन सबसे महत्त्वपूर्ण धन है। 

अर्थ को केन्द्र में रखकर विचार करें तो प्रश्न उठता है कि यह धन हमें चाहिए क्यों? तब इसके उत्तर में कहते हैं कि सुख पाने के लिए धन चाहिए। पर हम सुख पाते ही कहाँ हैं? आजकल हम देखते हैं कि व्यक्ति धन-अर्जन में लगा रहता है। समस्त संसाधन इकट्ठा करता रहता है। लेकिन उसके पास उन संसाधनों को प्रयोग करने का, उन जुटाई हुई सुविधाओं का आनन्द लेने का समय ही नहीं बचता। इस भागमभाग में अपने स्वास्थ्य से भी विमुख रहता है। अस्वस्थ होने के कारण जो थोड़ा-बहुत समय मिला भी, तो उसमें अपनी ही जुटाई चीजों के उपभोग की सामर्थ्य नहीं रह जाती। 

संभवत:: इसी बात को ध्यान में रखकर हमारे ऋषि कहते थे, “पहला सुख निरोगी काया”। शरीर स्वस्थ होगा, तब ही सभी सुखों का उपभोग किया जा सकता है। भारतीय मनीषा शारीरिक स्वाथ्य की दृष्टि से ब्रह्मचर्य को बहुत ही महत्त्वपूर्ण मानती है। चरक संहिता में आचार्य कहते हैं, “त्रय उपस्तंभा- आहार, स्वप्न, ब्रह्मचर्य।” तीन चीजें शरीर को धारण करती हैं… पहली- आहार, दूसरी- स्वप्न, तीसरी- ब्रह्मचर्य। कठोपनिषद् में ऋषि ब्रह्मचर्य को ईश्वर प्राप्ति का साधन ही कह देते हैं (यदिच्छंतो ब्रह्मचर्यं चरंति)

अभी कुछ समय पूर्व सरकार द्वारा कन्याओं की विवाह की आयु बढ़ाए जाने के प्रस्ताव पर समाज में बहुत से विचार पैदा हुए। अगर हम वैदिक ऋषि की अवधारणा पर दृष्टि डालें, तो पाते हैं कि वे कन्याओं के विवाह में आयु को महत्त्वपूर्ण कारक मानते हैं। ऋग्वेद के ऋषि का कथन देखा जा सकता है,

“तमस्मेरा युवतयो युवानं मर्मृज्यमानाः परियन्त्यापः।
स शुक्रेभिः शिक्वभी रेवदस्मे दीदायानिध्मो घृतनिर्णिगप्सु।।” ऋग्.2/35/4

अर्थात् : जो उत्तम ब्रह्मचर्यव्रत और सद्विद्याओं से युक्त युवतियाँ हैं, वे जैसे नदी समुद्र को प्राप्त होती है, वैसे ही युवक पति को प्राप्त होती हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती इस मंत्र की व्याख्या में “बीस से चौबीस वर्ष” की आयु की युवतियाँ लिखते हैं। 

आगे चलकर वैद्यराज अपनी सुश्रुत संहिता में विवाह योग्य कन्याओं की आयु के विषय में लिखते हैं कि कन्या कम से कम षोडशी हो और युवक 25 वर्ष का हो, तभी विवाह योग्य माना जाएगा। 

(पंचविंशे ततो वर्षे पुमान् नारी तुम षोडशे।
समत्वगतवीर्यौ तौ जानीयात्कुशलो भिषक्।। सुश्रुत सूत्रस्थाने, अ० 30/10)

एक और श्लोक है…

चतस्रोऽवस्था: शरीरस्य वृद्धिर्यौवनं सम्पूर्णता किंचित्परिहाणिश्चेति।
आषोडशाद् वृद्धिराचतुर्विंशतेर्यौवनमाचत्वारिंशत: सम्पूर्णता तत: किंचित्परिहाणिश्चेति ।।

अर्थात् : 16वें वर्ष से आगे मनुष्य के शरीर में सब धातुओं की वृद्धि और 25वें वर्ष से युवावस्था का आरम्भ, 40वें वर्ष में युवावस्था की पूर्णता अर्थात् सब धातुओं की पूर्णपुष्टि और उससे आगे किंचित-किंचित धातु यानि वीर्य की हानि होती है। अर्थात् 40वें वर्ष तक सब अवयव पूर्ण हो जाते हैं।

इससे यह ज्ञात होता है कि यदि शीघ्र विवाह करना चाहे, तो कन्या 16 वर्ष की और पुरुष 25 वर्ष का अवश्य होना चाहिए। यहाँ इस आयु और विवाह की इतनी लम्बी चर्चा का कारण यह है कि विवाह की अवस्था से पूर्व ब्रह्मचर्य का समय माना जाता है। व्यक्ति अपने जीवन के प्रारम्भिक 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जीवन को सुन्दर बनाने में प्रयासरत रहे, ऐसी शिक्षा हमारे प्राचीन ग्रन्थ देते हैं। यहाँ बहुत सुन्दर श्लोक याद आ रहा है, 

“प्रथमे नार्जिता विद्या, द्वितीये नार्जितं धनम्।
तृतीये नार्जितं पुण्यं, चतुर्थे किं करिष्यति॥”
तात्पर्य है कि जिस व्यक्ति ने पहले आश्रम (ब्रह्मचर्य) में विद्या अर्जित नहीं की। दूसरे आश्रम (गृहस्थ) में धन अर्जित नहीं किया। तीसरे आश्रम (वानप्रस्थ) में पुण्य अर्जित नहीं किया। हे मनुष्य अब चौथे आश्रम (सन्यास) में क्या करोगे? 

अत: मानव जीवन की प्रथम अवस्था में ब्रह्मचर्य धारण करते हुए विद्यार्जन के व्रत की अवधारणा आचार्यों ने प्रस्तुत की है। महावीर स्वामी ने भी सम्भवत: अपने उपदेश में ब्रह्मचर्य को इसी उद्देश्य से सम्मिलित किया होगा।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 44वीं कड़ी है।) 
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ… 
43.सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से बाँट दो
42. सत्यव्रत कैसा हो? यह बताते हुए जैन आचार्य कहते हैं…
41. भगवान महावीर मानव के अधोपतन का कारण क्या बताते हैं?
40. सम्यक् ज्ञान : …का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात!
39. भगवान महावीर ने अपने उपदेशों में जिन तीन रत्नों की चर्चा की, वे कौन से हैं?
38. जाे जिनेन्द्र कहे गए, वे कौन लोग हैं और क्यों?
37. कब अहिंसा भी परपीड़न का कारण बनती है?
36. सोचिए कि जो हुआ, जो कहा, जो जाना, क्या वही अंतिम सत्य है
35: जो क्षमा करे वो महावीर, जो क्षमा सिखाए वो महावीर…
34 : बौद्ध अपनी ही ज़मीन से छिन्न होकर भिन्न क्यों है?
33 : मुक्ति का सबसे आसान रास्ता बुद्ध कौन सा बताते हैं?
32 : हमेशा सौम्य रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में कठोर क्यों होते हैं? 
31 : बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?
30 : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29 : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28 : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27 : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26 : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25 : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24 : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23 : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22 : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21 : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20 : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19 : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18 : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17 : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16 : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15 : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14 : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13 : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12 : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11 : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10 :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
9 : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
8 : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
7 : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
6 : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
5 : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
4 : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
3 : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
2 : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
1 : भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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