अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 23/3/2021
बुद्ध दर्शन। ये परवर्ती दर्शन है। लेकिन बुद्ध दर्शन परम्परा का आदि दर्शन है, ‘चार्वाक दर्शन’। सवाल हो सकता है कि यह बौद्ध परम्परा का आदि दर्शन कैसे? तो ज़वाब ये मिलता है कि बौद्ध दर्शन असल में नास्तिक दर्शन है। और भारतीय दर्शन परम्परा में आचार्य चार्वाक को नास्तिकों का शिरोमणि कहा जाए तो सम्भवत: अनुचित न होगा। इस तरह नास्तिक दर्शनों में आदि दर्शन हुआ, चार्वाक दर्शन। इसीलिए यह बुद्ध दर्शन का भी आदि दर्शन हुआ।
तो अब इस चार्वाक दर्शन को समझने के लिए यहाँ पहला प्रश्न होना चाहिए कि ‘चार्वाक’ का मतलब क्या है? क्या बैखरी आदि चार वाणियों से इस सम्प्रदाय का विशेष सम्बन्ध है, इसलिए चार्वाक नाम पड़ा? नहीं, ऐसा सही नहीं है। तो फिर क्या अर्थ है? क्या यह चार तत्व मानता है, इसलिए इसे चार्वाक कहते हैं? नहीं, इस प्रश्न का उत्तर भी ‘न’ में ही है। हाँ, पर ये सच है कि शेष अन्य दर्शन जहाँ पाँचों तत्वों को मानते हैं। वहीं, चार्वाक दर्शन पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार तत्वों को ही स्वीकार करता है। आकाश को स्वीकार नहीं करता क्योंकि उसे अनुमान से सिद्ध करना पड़ता है। चूँकि आकाश को छोड़ बाकी चार तत्व आँखों से देखे जा सकते हैं। और आचार्य चार्वाक उन्हें ही स्वीकार करते हैं, जिनका आँखों से साक्षात्कार हो सके। वे केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं।
बहरहाल, प्रश्न ये अब भी अनुत्तरित रहा कि चार्वाक का क्या अर्थ है? दरअसल, चार्वाक में दो शब्द हैं। चारु-वाक्। ‘चारु’ मतलब सुन्दर और ‘वाक्’ यानि वाणी। मतलब, ऐसी वाणी जो सुन्दर हो। हालाँकि कई लोग चार्वाक में चार-वाक् जैसा विच्छेद करते हैं, पर ये उचित नहीं समझा जा सकता।
सो, अब सवाल ये कि वाणी सुन्दर कैसी होती है? क्या वाणी को देखा जा सकता है? कि उसका रूप सुन्दर है या नहीं? निश्चित ही नहीं। वाणी केवल सुनी जा सकती है। सो, सुन्दर वाणी वह, जो सुनने वाले का मन हर ले। जिसे हर कोई सुनना चाहे।
हमने दोहा सुना होगा…
“ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोए।
औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए।।”
मतलब- अपने मन को संयमित रखकर ऐसी वाणी बोलें, जो शीतल हो और दूसरों के मन को भी शीतलता दे। ठंडक दे।
ऐसा ही संस्कृत में श्लोक है…
“सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्।
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात्, एष धर्मः सनातन:॥”
अर्थात्- सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए। सत्य किन्तु अप्रिय नहीं बोलना चाहिए। प्रिय किन्तु असत्य भी नहीं बोलना चाहिए। यही सनातन धर्म है।
लेकिन दुविधा बड़ी ये है कि सत्य तो सत्य होता है। प्रिय और अप्रिय लगना बड़ा ही व्यक्ति-सापेक्ष मामला है। और फिर हम ये भी सुनते आए हैं कि सत्य तो कड़वा होता है। तो आख़िर उचित किसे माना जाए? इसका उत्तर एक साहित्यिक प्रसंग से मिल सकता है। उसे स्मरण करते हैं…
एक बार एक नेत्रहीन व्यक्ति मन्दिर में भजन गा रहा था। कई लोग भजन सुनने मन्दिर जा रहे थे। एक सज्जन भी मन्दिर का मार्ग पूछते जाते थे। उन्हें मार्ग बताने वाले व्यक्तियों ने नेत्रहीन व्यक्ति के लिए अलग-अलग सम्बोधन का प्रयोग किया। एक ने कहा, “अंधा गा रहा है।” दूसरा बोला, “नेत्रहीन” और तीसरे ने कहा, “सूरदास”। तभी एक संस्कृत का जानकार मिला। उसने बोला, “प्रज्ञाचक्षु गा रहा है।” ‘प्रज्ञाचक्षु’, मतलब ऐसा व्यक्ति जिसके पास ज्ञान रूपी आँखें हैं।
यानि इस कहानी में उस गायक के लिए उपयोग किए गए सभी सम्बोधन सत्य हैं, किन्तु सभी प्रिय हैं क्या? नहीं। हम किसी को अंधा कहेंगे, तो सुनने वाले को कष्ट हो सकता है। लेकिन ‘प्रज्ञाचक्षु’ या ‘सूरदास’ जैसा कुछ कहेंगे तो उसके मन को शीतलता मिलेगी। वह अच्छा अनुभव करेगा। तो सत्य ऐसा बोलें, जो प्रिय हो।
इस तरह भारतीय दर्शन का ये एक बहुत अहम पक्ष है, ‘चारु-वाक्’… यानि जो, औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए।
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(अनुज राज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की तीसरी कड़ी है।)
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