अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 30/3/2021
आचार्य चार्वाक बड़ी सुन्दर बात कहते हैं। उनकी बातें आज वर्तमान युग के एकदम अनुकूल हैं। बल्कि एक विचार तो यह भी हो सकता है कि वर्तमान बैंकिंग प्रणाली में प्रचलित समान मासिक किश्त (EMI) व्यवस्था शुरू करने वाला जरूर चार्वाक का अनुयायी रहा होगा। आज देखें, बैंक हर चीज ईएमआई पर देने को तैयार है। हम भी सब कुछ ईएमआई पर लेकर काम चला रहे हैं। और कोरोना महामारी ने तो हमें अनुभव करा दिया है कि हमारी ज़िन्दगी भी ईएमआई पर ही है। मानो, ईएमआई न भरने वालों से ये महामारी बकाया वसूल रही है, “लाओ वापस करो दी गई साँसे, तुमने बैंक (प्रकृति) की ईएमआई नहीं चुकाई है।
बहरहाल, इस ईएमआई के पीछे क्या है? कर्ज़। और कर्ज़ लेने-देने के पीछे क्या? सुख और सुविधा पाने की सोच। यही तो आचार्य चार्वाक भी कहते हैं, “यावत् जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत।” अर्थात् जब तक जीवन है सुख से जिएँ। सुख-साधन (घी पीना) के लिए ऋण लेना पड़े तो संकोच न करें।
इस तरह यह दर्शन हमें, वास्तव में, वर्तमान में जीने के लिए प्रेरित करता है। भूत ही नहीं, भविष्य की चिन्ता के बोझ से भी मुक्त करना चाहता है। बार-बार बताता है कि जो प्रत्यक्ष है, बस वही प्रमाण है। और प्रत्यक्ष सिर्फ वर्तमान है। भविष्य किसने देखा है? उसका अनुमान करने से, चिन्ता करने से क्या मिलेगा? आत्मा का देह से अलग कोई अस्तित्व नहीं, ऐसा चार्वाक मानते हैं। इसीलिए वे इसी श्लोक में आगे कहते हैं, “भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:।।” अर्थात् देह खत्म, सब खत्म। मृत्य ही मोक्ष है। मुक्ति है। इसके बाद देह का पुनरागमन नहीं हो सकता और आत्मा का क्या होता है, वह कहाँ जाती है, लौटकर आती है या नहीं? ऐसे किसी प्रश्न का प्रामाणिक उत्तर कोई दे नहीं पाया। इसलिए इन पर विश्वास करने का और इनसे जुड़े लक्ष्यों के लिए प्रयास करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
सो, ‘वर्तमान ही जीवन’ है, के अर्थ में देखा जाए तो चार्वाक दर्शन कहीं अधिक तार्किक लगता है। साथ ही निर्विवाद भी। हम सब सुख चाहते हैं। इस सुख के लिए हमें, जितने भी विचारक, चिन्तक, दार्शनिक हुए हैं, सभी ने हमें वर्तमान में रहने की ही शिक्षा दी है। प्रेरणा दी है। चार्वाक भी हमें इसी दिशा में प्रेरित करते हैं। वही शिक्षा देते हैं। बस, उनका तरीका अपना है। प्रसिद्ध विचारक, दार्शनिक और पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक ‘इंडियन फिलॉसफी’ में भी इस बात को माना है।
हालाँकि, यहीं पर अब ये सवाल हो सकता है कि क्या हम भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त हैं? हो पाए हैं? हमने अनाप-शनाप ईएमआई के लिए तो चार्वाक को आदर्श मान लिया, उनकी आड़ ले ली लेकिन क्या ‘वर्तमान में जीने, रहने’ की उनकी शिक्षा को आत्मसात् किया? उत्तर निश्चित रूप से इसका ‘नहीं’ में ही होगा। क्योंकि हमारे लिए आचार्य चार्वाक ही नहीं तमाम दार्शनिक, विचारक, चिन्तक सिर्फ़ पढ़ने की चीज ही रह गए। बल्कि इन दिनों तो पढ़ने की चीज भी नहीं रहे पूरी तरह। हम उनकी कही बातों के सिर्फ़ उतने हिस्से का अपने सन्दर्भ-प्रसंगों में बार-बार अभ्यास करते हैं , जितना हमारे अनुकूल होता है। जो हमारे लिए रुचिकर होता है। आचार्य चार्वाक के ऊपर सन्दर्भित श्लोक का ही उदाहरण ले सकते हैं। इसकी पहली पंक्ति जितनी प्रचलित और लोकप्रिय है, दूसरी का उतना या उसका आधा ज़िक्र भी नहीं मिलता।
असल में यही हमारी समस्या है और दुविधा भी। हम वर्तमान के लिए ‘आर्थिक-ऋण’ ले-लेकर सुख-सुविधाएँ जुटाने में तो उद्यत हैं। पर भविष्य के लिए ‘पितृ, देव और गुरु-ऋण’ से उऋण होने की चिन्ता में भी उतने ही संतप्त भी हैं। इसका परिणाम क्या? भविष्य हमारा कितना बन पाया, कितना नहीं, ये तो हमें पता नहीं चलता, पर वर्तमान अवश्य चिन्ताग्रस्त, तनावग्रस्त और कभी-कभी तो अवसादग्रस्त तक हो जाता है।
विवाद हो सकता है, पर गौर करें तो हम पाएँगे कि आचार्य चार्वाक की शिक्षाओं को हम भारतीयों से कहीं ज़्यादा पश्चिम के लोगों ने आत्मसात् किया है। वे वर्तमान को हमसे बेहतर तरीके से जीना सीख चुके हैं। जानते हैं और जी भी रहे हैं।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की चौथी कड़ी है।)
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