stress in chilfern

छोटे-छोटे बच्चे हाईपर-टेंशन के शिकार हो रहे हैं, उसके ज़िम्मेदार हम हैं!

टीम डायरी

अभी 17 मई को विश्व हाईपर-टेंशन दिवस था। हाईपर-टेंशन, मतलब किसी व्यक्ति में तनाव, चिन्ता आदि का वह स्तर कि उससे उसका ब्लड-प्रेशर बढ़ जाए। दुनियाभर में यह दिक़्क़त तेजी से बढ़ रही है। इसीलिए इस बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए विश्व-स्तर पर यह दिवस मनाया जाता है। ताकि लोग समस्या के कारण, समाधान, आदि के बारे में सोचें, समझें, और सुरक्षित रहें। चिन्तामुक्त हो जाएँ। हालाँकि इस मौक़े पर कुछ समाचार संस्थानों ने अपने माध्यमों से जो सूचना दी, उससे बड़े लोग चिन्तामुक्त हो पाएँगे, ऐसा लगता नहीं।

सूचना ये आई कि अब हमारे देश के लगभग 30 फ़ीसद बच्चे प्री-हाईपर-टेंशन के चरण में पहुँच चुके हैं। मतलब हाईपर-टेंशन की ड्योढ़ी पर आ खड़े हुए हैं। यहाँ से बस, एक क़दम आगे कि वे हाईपर-टेंशन के जाल में जा फँसेंगे। उसके बाद छोटी-छोटी सी चिन्ताओं से ब्लड-प्रेशर बढ़ने लगेगा। इससे अगले 10-12 साल के भीतर वे या तो हार्ट-अटैक के शिकार हो जाएँगे या फिर ब्रेन-स्ट्रोक। दूसरे शब्दों में कहें तो दिल और दिमाग़ के रास्ते से मृत्यु की आशंका उनके आस-पास मँडराने लगेगी। बल्कि, एक अन्य बड़े मीडिया-माध्यम की मानें तो लगभग तीन से छह प्रतिशत बच्चों का ब्लड-प्रेशर तो बढ़ने भी लगा है। वे ख़तरे की ड्योढ़ी पार कर चुके हैं।

लिहाज़ा, सवाल यह है कि बच्चों को इस ख़तरनाक स्थिति की तरफ़ धकेला किसने? सीधा ज़वाब है-ख़ुद हमने। हाँ, क्योंकि छोटे-छोटे बच्चों के ऊपर परीक्षाओं में 90, 95, 100 प्रतिशत तक नम्बर लाने का दबाव डाला हमने। लगातार दूसरे बच्चों से उनकी तुलना कर-कर के उन्हें तनाव दिया हमने। छोटे से बड़े, बड़े से और बड़े, फिर और बड़े शहर से दूसरे देश में जाकर मोटी कमाई वाली नौकरी करना ही सफलता है, उन्हें ये बताया हमने। पाँचवीं-छठवीं कक्षा से कोचिंग संस्थानों के जाल में उन्हें फँसाया हमने। अप्रत्यक्ष रूप से, स्कूल और कोचिंग संस्थानों के शिक्षकों से भी उन पर दबाव डलवाया हमने। इस तरह, उनसे उनके हिस्से का बचपन भी छीना हमने।

ईमानदारी से सोचिएगा, क्या ये सब सच नहीं है। और हाँ, तो फिर जानलेवा जोख़िम में हमारे बच्चों के फँस जाने का ज़िम्मेदार कोई और कैसे हुआ? सो, अब अगली बात ये कि अगर हम अपने बच्चों की सुरक्षा चाहते हैं, उनके लिए सही मायने में स्वस्थ और खुशहाल भविष्य की कामना करते हैं, तो उन्हें इस स्थिति से बाहर भी हम ही निकाल सकते हैं। राजस्थान के जयपुर में ‘जेकेलोन’ के नाम से बच्चों का बड़ा अस्पताल है। वहाँ के वरिष्ठ विशेषज्ञ डॉक्टर अशोक गुप्ता ने एक अख़बार से बातचीत में साफ कहा है, “यह स्थिति असल में माता-पिता के लिए गम्भीर चेतावनी है कि वे सँभल जाएँ। नहीं सँभले, तो भविष्य में ख़ुद को शायद माफ़ न कर सकेंगे।”

डॉक्टर गुप्ता जैसे विशेषज्ञ इस स्थिति के निदान भी सुझाते हैं। बेहद साधारण, लेकिन उतना ही अहम कि बच्चों को उनकी ज़िन्दगी जीनें दें। जहाँ तक वे उचित रास्ते पर हैं, उन्हें उनके अपने शौक़, अपनी पसन्द-नापसन्द के हिसाब से चलने दें। उन पर भरोसा रखें कि वे अपने चुने हुए रास्ते पर चलकर भी अच्छा ही करेंगे। अलबत्ता वहाँ भी, दूसरों से उनकी तुलना क़तई न करें। क्योंकि ईश्वर ने समान दिखने वाली दो कृतियों को भी अलग-अलग विशिष्टताओं के साथ इस दुनिया में भेजा है। सो, बच्चों को उनकी अपनी विशिष्टताओं के साथ आगे बढ़ने दें। ऐसा करने पर बच्चे स्वस्थ और खुशहाल तो रहेंगे ही, उनकी खुशी से हम भी खुश रह पाएँगे।

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