जीवन के उत्तरायण में सब सही होना चाहिए, प्रेम भी

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से, 13/02/2022

बहुत दिनों में कल किसी से बातचीत में कड़क ब्लैक कॉफ़ी का ज़िक्र सुना। अचानक वहाँ से उठा और सीधा घर चला आया। अपनी रसोई में ब्लैक कॉफ़ी के पाउच खोजता रहा। बहुत सारे पाउच थे मेरे पास। लगभग सारे गिफ़्ट में मिले थे और कुछ ख़रीदे थे। कॉफ़ी के रोस्टेड बीज थे, जिन्हें ताज़ा कूटकर कॉफ़ी बनाना पसन्द था। कुछ ऐसे बीज थे, जो किसी जानवर के खाने के बाद उसके मल में से निकालते हैं। फिर उन्हें प्रोसेस करके बेचा जाता है। ये सब बहुत महंगे थे। 

लेकिन जब भी ब्लैक कॉफ़ी का ज़िक्र निकलता, एक कड़वाहट और बहुत तीखी गन्ध के साथ कमरे में बहुत कुछ फैल जाता। प्रेम या कुछ और। नहीं पता, पर इस एक-डेढ़ कप कॉफ़ी में बहुत कुछ ऐसा था, जो इंडियन कॉफ़ी हाउस की याद दिलाता। एयरपोर्ट की, स्टेशन की, किसी मॉल के बारिस्ता की या कॉफ़ी कैफ़े डे के उस कोने वाली जगह की, जहाँ से “रंजिशें ही सही दिल जलाने के लिए आ”- साफ़ सुनाई देती थी। पसंदीदा ग़ज़ल। 

जीवन में 55 वर्ष पूरे होकर अभी चैत में 56वां वर्ष आरम्भ हो जाएगा। अगर गिनने बैठूं तो कितने सूर्योदय और कितने सूर्यास्त हो गए होंगे, मेरी गिनने की क्षमता नहीं है। यह सब अकेले देखते, जूझते और बूझते हुए पता नहीं, हर सुबह सूर्योदय देखा आँखें फाड़कर या नहीं। पता नहीं, हर सूर्यास्त देखा भी देखा या नहीं। जमाने की ओर पीठ फेरकर। कभी जल्दी उठ बैठा, कभी देर हो गई। 

हर बार कॉफ़ी ने ही जगाये रखा या कॉफ़ी ने लम्बे समय तक सुलाये रखा। एक सहारा सिगरेट बनी थी। पर कमाल यह था कि मुश्किल से एक माह की साथी रही और विदा हो गई जीवन से। ये पिछली सदी के नौंवे दशक की शुरुआत थी शायद। मेरे देखते-देखते इस सबमें लोग, ज़माना और वो सब सामने या पीछे रहे जिनसे हम हमेशा डरते हैं। पर थोड़ी समझ आई थी तो यह तय किया था कि जीवन अपनी शर्तों और पैमानों पर जीना है। इसके लिए सबको ख़ुश भी रखा और सबको नाराज़ भी किया। यह सब साहजिक था। खींचते-खींचते गाड़ी अब ढलान पर आ गई। यह समझ में आया कि जीवन राग-रागिनियों के उद्दाम वेग से भरी एक धारा समान था, जिसे अंततः समुद्र में मिलकर विलोपित होना ही था।
 
कितने बसन्त, पतझड़ और सावन बीते। अपनी छाप छोड़कर चले गए। हर बार पीठ के पीछे होती चुहल, दर्प में डूबे ठहाके, गर्व और उन्माद से भरी हँसी को सुनता रहा। पर सब कुछ नजरअंदाज़ कर सिर्फ़ उगते या डूबते सूरज को देखता रहा। क्योंकि ताप और आंच के बीच के फ़र्क को जानता था। बहुत जल्दी यह महीन और बुनियादी फ़र्क सीख गया था। लिहाज़ा सामने या पीछे की बातों का कोई बहुत फ़र्क नहीं पड़ा, जीवन पर। अब जैसा भी हूँ, अपने आपको स्वीकार लिया है। 

शून्य, रिक्तता या ख़ालीपन इसलिए कभी रहा नहीं कि हृदय प्रेम से भरा हुआ था। बहुत याद करता हूँ तो एक सहपाठी का नाम दिमाग़ में कौंधता है, जिससे कभी नफ़रत हुई थी। बाद में जब सीख लिया कि हर सूर्यास्त के बाद यदि कोई बैर, नफ़रत, बदले का या हिंसक भाव मन में है तो भूल जाना चाहिए।  उसे भी मुआफ़ कर दिया। एक दिन, सबको माफ़ करके मन के उस कोने में प्रेम दीपक जलाना चाहिए, जहाँ घृणा घर कर गई हो। यह अपनाया तब से अद्भुत शांति मिली। 

यद्यपि मनुष्य होने के नाते कमज़ोरियाँ अब भी हैं। विद्वेष, घृणा जैसे दुर्गुण छूटते नहीं हैं। ‘प्रेम न बाड़ी उपजै’ तो कभी समझ नहीं आया, पर जो भी समझा वो सिर्फ़ इतना था कि जब कभी, कहीं शून्य हो, उसे प्रेम से भर दो। जब बहना ही है, तो सबको समेटते चलो। मन में उद्‍विग्‍नता और विषाद लेकर चलने से कुछ हासिल नहीं, यह खोना और पाना ही असल द्वन्द उत्पन्‍न करता है। 

प्रेम में सब कुछ पाने की ज़िद, सब कुछ हासिल कर लेने का दुराग्रह ही प्रेम को ख़त्म करता है। हम यह हासिल करने में सब कुछ क्षत-विक्षत कर लेते हैं। अपनी आत्मा को भी छलनी कर देते हैं, जबकि उसका शरीर से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। और जब किसी दिन अपने आपसे सामना होता है, तो हमारे पास अपने से ही कहने-सुनने को कुछ नहीं होता।
 
पिछले दो सालों के भयावह समय के बाद इधर दो-तीन दिन से मौत के खेल फ़िर देख रहा हूँ। उन लोगों को ख़त्म होते देखा, जो मूक भाव से समर्पित करते रहे जीवन। अपनी उम्मीदों और छोटे स्वप्‍नों को समिधा बनाकर तिरोहित कर दिया जीवन। मृत्यु शैया पर प्रचंड दावानल में उनका चेहरा कितना स्‍निग्ध लग रहा था- मानो उन्होंने ख़त्म होते समय वो पा लिया, जो शायद जीकर कभी नहीं पा सकते थे। जीवन के बिछोह के बाद यह चिर शांति और पुरखुलूस सुकून किसी सुख के बरक्स नहीं ठहर सकता। सबको इस पार से गुज़रते हुए धू-धू दहकते दावानल में जाना है, पर मन में प्रेम रहेगा तो चेहरे पर सौम्यता बनी रहेगी। 

ब्लैक कॉफ़ी कड़वी ज़रूर है, पर उसमें एक सुकून है। चाहत का इशारा है और फ़लसफ़ा भी कि कड़वाहट प्रेम का समाहार है। प्रेम का उपजना सृष्‍टि में एक चमत्कार है और इसे सदैव के लिए संसार में बनाए रखना एक चुनौती। मगर मनुष्य होने के नाते हमने इसे आरम्भ से ही स्वीकार किया है। साँस लेने की ज़रूरी रस्मों की तरह निभाया है। 

हम सबको प्रेम की ज़रूरत है। यदि कोई दिलेरी से कहता है प्रेम है, तो कोई कौतूहल नहीं होना चाहिए। न ही औचक की तरह से समझने का प्रयास करना है। बल्कि इसे घटता हुए देखें, पुष्पित और पल्लवित होने दें। तभी प्रेम बचेगा और संसार भी। तभी रोज़ सूरज उगेगा और डूबेगा, ताकि संसार में चक्र चलता रहे। और साल के सबसे कम दिनों का यह मधुमास, हम सबमें प्रेम को इतना सगुणी बना दे कि फिर किसी जुलाहे को ना कहना पड़े कि ‘ढाई आख़र प्रेम का’ या ‘प्रेम गली अति सांकरी ता में दो ना समायें’। क्योंकि यह फरवरी का महीना है। दिन और रात, अपनी सीरत और सूरत बदल रहें हैं। इसलिए डूब जाओ इसमें और संसार को प्रेम से भर दो।  

कॉफ़ी इंतज़ार कर रही है, कड़वाहट और कॉफ़ी की सौंधी खुशबू फ़िज़ा में है। सारे पाउच मैंने टेबल पर सजाकर रख लिए हैं। अब सोच रहा हूँ कि रोज़ इन्हें सूँघकर, प्रेम से उबालकर और बदल-बदलकर पियूँगा। ताकि सारे अवसाद, तनाव और द्वेष मन से निकल जाएं। फिर फरवरी के आगाज़ का इंतज़ार नहीं करूँगा।  मेरे लिए, तुम्हारे लिए और हम सबके लिए, हर दिन, हर पल फरवरी हो, क्योंकि फरवरी इश्क़ का महीना है।  
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। डायरी का यह पन्‍ना उन्होंने लाड़-प्यार से हमें उपलब्‍ध कराया है। फरवरी का महीना जो है… यह डायरी के प्रेम का भी प्रतीक है। टीम डायरी उनकी आभारी है।) 

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