रैना द्विवेदी, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 10/12/2020
अख़बारों में अक्सर ही छपने वाली छोटी-छोटी कहानियों पर हम में से कितने लोग ध्यान देते हैं? शायद ही कुछ लोग देते हों। बावज़ूद इसके कि इन कहानियों में बड़ी मर्म की बातें लिखी होती हैं। तिस पर इनके पीछे किसी न किसी का हुनर भी तो होता है। कोई ऐसा, जो अपनी पहचान, अपने रचनाधर्म के लिए छटपटा रहा होता है। हम सबके लिए बड़ी शिक्षाएँ इनमें छिपी होती हैं। अपने बच्चों को मार्गदर्शन देने का रास्ता हमें दिखाती हैं। अपने साथ किसी को सुनने, समझने-बूझने के नुस्खे हमें दे जाती हैं। और न जाने कितना-कुछ होता है, इनमें। ये कहानियाँ बोलती नहीं हैं, पर कहती बहुत-कुछ हैं।
ये तमाम बातें मुझे तब समझ आईं, जब ऐसी ही एक कहानी, मैंने बस यूँ ही पढ़ ली थी उस रोज। उसे पढ़ने के बाद मुझे लगा कि उसे अपने बच्चों काे सुनाना चाहिए। फिर लगा नहीं, बल्कि उनसे आगे भी हर उस शख्स को सुनाना चाहिए, जो अच्छा सुनना, अच्छा पढ़ना, अच्छा सीखना, अच्छा समझना चाहता है। इसीलिए मैंने #अपनीडिजिटलडायरी के जरिए उसे लोगों तक पहुँचाने का फैसला किया। यह कहानी संवेदनाओं की है। यह कहानी गाय-बछड़े और दो चादर में छिपी भावनाओं की है। यह कहानी हमारी है, हमसे आगे की भी है। सुनकर देखें, मेरी बात शायद ही झूठी लगे किसी को!
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(रैना द्विवेदी, भोपाल में रहती हैं। गृहिणी हैं। उन्होंने अपना यह लेख और ऑडियो फॉर्मेट में कहानी, व्हाट्स ऐप सन्देश के जरिए #अपनीडिजिटलडायरी को भेजी है।)
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