चेतना लक्षणो जीव:, ऐसा क्यों कहा गया है?

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 1/3/2022

मानव जीवन की जैसे-जैसे समझ विकसित होती है, वैसे-वैसे संसार और जीवन को जानने की मानव की इच्छा बलवती होने लगती है। इसके परिणाम में वह अपनी समझ अपनी बुद्धि और अपने तर्कों का प्रयोग करना शुरू कर देता है। वह तब तक नहीं रुकता जब तक उसके मन में पैदा होने वाले प्रश्न समाप्त नहीं हो जाते। हालाँकि मानव अपनी युक्तियों का प्रयोग जितना अधिक करता है, वह उतना ही अधिक उलझता प्रतीत होता है। कई दर्शन ‘नेति-नेति’ तक कह उठते हैं। और अंततः वह बाहरी समाधान के अभाव में अपने अन्दर की गहराइयों में उतरने लगता है। इस अन्तर्मन की गहराइयों की अनुभूतियों को अपने-अपने अनुभव से अभिव्यक्त करता है। 

इसी क्रम में जैन दर्शन जगत से सम्बन्धित प्रश्नों के समाधान में कहता है कि यह जगत जो हमें दिखाई दे रहा है वह जड़ और चेतन पदार्थों के संयोग का परिणाम है। चेतन से तात्पर्य है कि जिन चीजों को हम साँस लेते हुए देखते अनुभव करते हैं। चेतन पदार्थों में इस प्रकार प्रत्येक जीव आ जाता है। 

चेतन को जैन धर्म में ‘जीव’ इस परिभाषिक नाम से जाना जाता है। जबकि ‘अजीव’ वह हैं, जिनमें चेतना नहीं अर्थात् जो जीव से भिन्न हैं, वे सभी अजीव या जड़ पदार्थ हैं। प्रत्येक दर्शन में परिभाषिक शब्दों का बड़ा महत्व है। परिभाषिक शब्द की व्याख्या तो कर सकते हैं। इन्हें अपनी बोलचाल की भाषा में समझने की कोशिश कर सकते हैं। लेकिन परिभाषिक शब्दों का विकल्प शब्द या पर्याय शब्द नहीं रख सकते। 

बहरहाल, यहाँ इनमें से पहले ‘जीव’ को समझने का प्रयास करते हैं। चेतना का होना जीव का मुख्य लक्षण है। चेतना होने से लाभ क्या है? जीव सुख दुःख की अनुभूति कर सकता है। लोहा है, उसे पीटो तपाओ उसे क्या अनुभूति होगी? लोहे को कोई अनुभूति नहीं होगी। वृक्ष को काटो। वृक्ष को अनुभूति होगी। मानव से कम दुःख होगा लेकिन होगा जरूर। इसलिए यह चेतना जीव का लक्षण है। यह चेतना ही इसे अजीव अर्थात जड़ पदार्थ से अलग करती है। 

कहा भी गया है, “चेतना लक्षणो जीव:” (सर्वार्थ सिद्धि) 

जीव की परिभाषा करते हुए कहा है, “जो द्रव्य और भाव प्राणों से जीता है, जी चुका है तथा जिएगा, वह जीव है।’ इन प्राणों के आधार पर जीने के कारण इस जीव को ‘प्राणी’ भी कहते हैं। इस ‘प्राणी’ की बड़ी विचित्र अवस्था है। अर्थात् कोई इसके अस्तित्व को मानता है। कोई एकदम मना कर देता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसे ही नरक आदि विभिन्न पर्यायों में अतति अर्थात् निरंतर गमन करते रहने से ‘आत्मा” भी कहते हैं। 

दर्शनों में इस ‘आत्मा’ या ‘प्राणी’ पर बड़ा विवाद है। चार्वाक तो कह देते हैं कि जैसे गधे के सिर पर सींग नहीं दिखाई देते वैसे ही आत्मा भी दिखाई नहीं देती तो कैसे इसे मान लें? लेकिन जैन दर्शन का अपना मत है। जैन दर्शन बड़ा सुकोमल दर्शन है। अहिंसावादी दर्शन है।  इतनी रूक्षता से, इतनी कठोरता से किसी चीज का निषेध नहीं करता। वैसे तो, जैन दर्शन समन्वयवादी है। लेकिन कहीं किसी बात को न भी मानना हो, तो  बड़े प्यार से निषेध करता है।

इस दर्शन की ऐसी कुछ ख़ासियतों को जानेंगे  अगली कड़ी में। और यह भी समझेंगे कि आत्मा के अस्तित्व पर जैन आचार्य क्या कहते हैं। 

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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 47वीं कड़ी है।) 
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ… 
46. जानते हैं, जैन दर्शन में दिगम्बर रहने और वस्त्र धारण करने की परिस्थितियों के बारे में
45. अपरिग्रह : जो मिले, सब ईश्वर को समर्पित कर दो
44. महावीर स्वामी के बजट में मानव और ब्रह्मचर्य
43.सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से बाँट दो
42. सत्यव्रत कैसा हो? यह बताते हुए जैन आचार्य कहते हैं…
41. भगवान महावीर मानव के अधोपतन का कारण क्या बताते हैं?
40. सम्यक् ज्ञान : …का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात!
39. भगवान महावीर ने अपने उपदेशों में जिन तीन रत्नों की चर्चा की, वे कौन से हैं?
38. जाे जिनेन्द्र कहे गए, वे कौन लोग हैं और क्यों?
37. कब अहिंसा भी परपीड़न का कारण बनती है?
36. सोचिए कि जो हुआ, जो कहा, जो जाना, क्या वही अंतिम सत्य है
35: जो क्षमा करे वो महावीर, जो क्षमा सिखाए वो महावीर…
34 : बौद्ध अपनी ही ज़मीन से छिन्न होकर भिन्न क्यों है?
33 : मुक्ति का सबसे आसान रास्ता बुद्ध कौन सा बताते हैं?
32 : हमेशा सौम्य रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में कठोर क्यों होते हैं? 
31 : बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?
30 : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29 : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28 : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27 : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26 : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25 : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24 : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23 : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22 : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21 : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20 : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19 : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18 : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17 : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16 : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15 : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14 : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13 : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12 : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11 : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10 :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
9 : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
8 : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
7 : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
6 : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
5 : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
4 : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
3 : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
2 : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
1 : भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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