नीलेश द्विवेदी, भोपाल, मध्य प्रदेश
सवाल सीधा है कि क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘भारत के पहले कार्यपालक राष्ट्रपति’ हो सकते हैं? इसका ज़वाब अगर नरेन्द्र मोदी से ही जुड़े नारे के अंदाज़ में दिया जाए तो कह सकते हैं कि ‘मोदी है, तो मुमकिन है’। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘नामुमकिन कुछ भी नहीं’। हालाँकि यहाँ कुछ लोगों के लिए सवाल हो सकता है कि ‘कार्यपालक राष्ट्रपति’ आख़िर क्या है? और नरेन्द्र मोदी के इस पद पर पहुँचने की बात कहाँ से, क्यों आई? तो इन दोनों सवालों में पहले का ज़वाब है कि ‘कार्यपालक राष्ट्रपति’, कार्यपालिका के प्रमुख होते हैं। मतलब- उनके पास सरकार के कामकाज की वैसी ही शक्तियाँ (आंशिक या पूर्ण) होती हैं, जैसी भारत में अभी नरेन्द्र मोदी के पास प्रधानमंत्री के रूप में हैं।
इस समय दुनिया में ‘कार्यपालक राष्ट्रपति’ के दो प्रमुख स्वरूप प्रचलित हैं। पहला- अमेरिकी राष्ट्रपति जैसा। वहाँ राष्ट्रपति को देश की सरकार चलाने की पूर्ण शक्तियाँ मिली हुई हैं। जबकि दूसरा- फ्रांसीसी राष्ट्रपति की तरह। वहाँ राष्ट्रपति को रक्षा नीति, विदेश नीति, न्यायिक मामलों और संविधान की व्याख्या,आदि के मामलों में विवेक से, स्वतंत्र फैसले लेने का अधिकार है। इनमें वह प्रधानमंत्री के नेतृत्त्व वाली सरकार की सलाह मानने को बाध्य नहीं हैं।
इसके बाद अब जवाब दूसरे सवाल का कि नरेंद्र मोदी के ‘कार्यपालक राष्ट्रपति’ बनने का विचार आख़िर आया कहाँ से? तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अभी दो-तीन दिनों में जो भाषण दिए, वे गौर करने लायक हैं। एक दिन पहले उन्होंने ‘वैश्विक कारोबारी सम्मेलन’ में कहा, “मैं वर्तमान पीढ़ी के साथ ही आने वाली अनेकों पीढ़ियों के प्रति भी ज़वाबदेह हूँ। मैं सिर्फ़ रोज़मर्रा की ज़िन्दगी पूरी कर के जाना नहीं चाहता। मैं आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित कर के जाना चाहता हूँ।” इसी सम्मेलन में उन्होंने कहा, “मेरे तीसरे कार्यकाल में बड़े और कड़े फ़ैसले लिए जाएँगे।”
इससे पहले संसद राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव की चर्चा का ज़वाब देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, “विकसित भारत के सपने को वर्ष 2047 तक साकार करने के लिए 20वीं सदी की सोच नहीं चलेगी।” इसी दौरान यह भी कहा था, “मेरी सरकार का तीसरा कार्यकाल अगले 1,000 वर्षों के भारत की नींव रखेगा।” शनिवार, 10 फरवरी को को संसद के जारी सत्र की अंतिम बैठक में उन्होंने इस कार्यकाल का आख़िरी भाषण देते हुए फिर कहा, “भारत के लिए अगले 25 साल बहुत मायने रखते हैं। अगले 25 वर्षों में भारत एक विकसित राष्ट्र होगा।”
इन बयानों का सीधा मतलब यही है कि मोदी के पास अगले पाँच वर्ष की नहीं, कम से कम 25 वर्षों की योजना है, जिसे लागू करने में वे किसी न किसी रूप से अपनी भागीदारी देख रहे हैं। इसमें वैसे तो कोई दिक़्क़त नहीं है क्योंकि भारत के संविधान में कोई नेता कितने कार्यकाल तक प्रधानमंत्री रह सकता है, इसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं है। यानी जब तक उसे मतदाताओं के बहुमत का समर्थन है, वह प्रधानमंत्री पद पर रह सकता है।
हालाँकि नरेन्द्र मोदी के लिहाज से एक अवरोध है या हो सकता है। वह ये कि उन्होंने ही अपनी पार्टी में अहम पदों को सँभालने के लिए 75 साल की अघोषित, अलिखित उम्र सीमा लागू कर रखी है। और कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे बीएस येद्दियुरप्पा जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो अब तक भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव में टिकट देने और मुख्यमंत्री, मंत्री जैसे पदों पर नेताओं को चुनते वक़्त इस नियम का सख़्ती से पालन भी किया है।
अब नरेन्द्र मोदी ख़ुद सितम्बर 2025 में 75 साल के हो जाएँगे। देखने लायक बात रहेगी कि वे तब क्या करेंगे? अगर वे ख़ुद प्रधानमंत्री पद पर बने रहते हैं, तो विरोधी ही नहीं, उन्हीं की पार्टी के कई नेता उन्हें निशाने पर लेने का मौक़ा चूकेंगे नहीं। और अगर वे यह पद छोड़ते हैं, तो फिर देश से जुड़ी अगले 25 वर्षों की उनकी योजना का क्या होगा? वह कैसे और कौन लागू करेगा? जैसा उन्होंने सोचा है, वैसे ही वह योजना लागू होगी या नहीं?
वैसे, नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली को नज़दीक से जानने वाले यह बात मानेंगे कि वे सत्ता की सभी डाेरियाँ हमेशा अपने ही हाथ में रखते हैं। फिर वे चाहे किसी पद पर हों या न हों। उदाहरण के लिए, मोदी ने 2014 में गुजरात के मुख्यमंत्री का पद छोड़ दिया। लेकिन उसके अब तक 10 साल बीत जाने के बाद भी वहाँ की सरकार उन्हीं के इशारों पर चलती है। वहाँ जिस मुख्यमंत्री ने भी उनकी खींची लकीर से इधर-उधर होने की कोशिश की, उसे बदल दिया गया। गुजरात ही नहीं, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी शक्तिशाली तथा लोकप्रिय कहे जाने वाले मुख्यमंत्री (शिवराज सिंह चौहान और वसुन्धरा राजे) किनारे लगा दिए गए, क्योंकि वे मोदी का शक्ति सन्तुलन बिगाड़ रहे थे।
सो, इस आधार पर माना जा सकता है कि मोदी अपनी छवि को चमकाने वाला कोई आदर्श पेश करने के लिए अपनी उम्र के 75 साल पूरे होने के आस-पास प्रधानमंत्री पद शायद छोड़ दें, लेकिन सत्ता पर नियंत्रण नहीं छोड़ेंगे। ऐसे में यहाँ से उनके लिए विकल्प खुलता है, ‘भारत के कार्यपालक राष्ट्रपति’ के पद पर जाने का। और दिलचस्प बात है कि भारतीय जनता पार्टी की वैचारिकी में राष्ट्रपति शासन प्रणाली का पुरज़ोर समर्थन भी निहित है।
भाजपा की विचारधारा के बड़े प्रणेताओं में हैं पंडित दीनदयाल उपाध्याय। उन्होंने 1965 में ‘एकात्म मानववाद’ की अवधारणा पेश की, जिसमें ‘धर्म राज्य की स्थापना’ का विचार निहित है। इस सम्बन्ध में कई सामाजिक और राजनैतिक चिन्तकों का मानना है कि उपाध्याय की अवधारणा ‘राष्ट्रपति शासन प्रणाली’ की वक़ालत करती है। इसी तरह, हाल ही में ‘भारत रत्न’ सम्मान से नवाजे गए लालकृष्ण आडवाणी भी पूर्व में कई बार अपने बयानो में स्पष्ट शब्दों में कह चुके हैं, “हमारे लोकतंत्र की मूल संरचना हमें संसदीय प्रणाली से बाँधकर नहीं रखती।” अटल बिहारी वाजपेयी ने भी 1998 में प्रधानमंत्री पद रहते हुए कहा था, “हमें राष्ट्रपति शासन प्रणाली के गुण-दोष का मूल्यांकन करना चाहिए।”
इसी क्रम में एक और बात उल्लेखनीय है। ये कि जब से केन्द्र की सत्ता में भाजपा मज़बूत हुई है, उसने तेजी से अपनी विचारधारा को अमली जामा पहनाया है। पहला उदाहरण- बात 1995 की है। उस वक़्त मुम्बई में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति के दौरान लालकृष्ण आडवाणी ने अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था। देश में 1996 में लोकसभा चुनाव होने वाले थे। उसे भाजपा ने ‘राष्ट्रपति शासन प्रणाली’ में होने वाले चुनाव की तरह लड़ा और सत्ता में आई। औपचारिक घोषणा के साथ चुनाव में यह प्रयोग देश में पहली बार हुआ। उसके बाद से भाजपा ने हमेशा सरकार के मुखिया का चेहरा आगे कर के चुनाव लड़े और अधिकांश जीते भी।
फिर 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने परमाणु परीक्षण किया तो उस समय अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी तक को इसकी भनक नहीं लगी थी। इस बारे में अमेरिकी चिन्तक प्रोफेसर स्टीफन कोहेन ने बाद में कहा, “अगर उन्होंने (अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी के अफ़सरों) भाजपा का घोषणा पत्र पढ़ा होता, तो उन्हें मालूम होता कि यह सरकार सत्ता सँभालते ही परमाणु परीक्षण करेगी।” यानी, वाजपेयी के समय यह शुरुआत हो गई थी।
इससे आगे 2014 तथा 2019 में नरेन्द्र मोदी भी उसी अन्दाज़ में आगे आए। प्रधानमंत्री बने और फिर उन्होंने भी बीते 10 साल में चुन-चुनकर भाजपा और आरएसएस की वैचारिकी के बिन्दुओं को लागू किया। जैसे- नोटबन्दी लागू करना, राम मन्दिर का निर्माण, धारा-370 को निष्क्रिय करना (श्यामा प्रसाद मुखर्जी के ‘एक विधान, एक निशान, एक प्रधान’ विचार से प्रेरित), डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर यानी प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (दीनदयाल उपाध्याय के ‘अंत्योदय’ से प्रेरित), आत्मनिर्भर भारत आदि। नरेन्द्र मोदी इससे आगे के लिए भी लगातार संकेत दे रहे हैं।
मसलन- ‘एक देश, एक चुनाव’ की व्यवस्था लागू करने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में समिति बन चुकी है। इस विचार का बीज आरएसएस के दूसरे प्रमुख माधव सदाशिव गोलवलकर (गुरुजी) के साहित्य में देखा जा सकता है। इसी तरह, केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने शनिवार, 10 फरवरी को कहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव से पहले नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लागू हो जाएगा। जबकि इसी सात फरवरी को ही उत्तराखंड की भाजपा सरकार समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को राज्य में लागू कर चुकी है। और, बीते महीने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी ने भारतीय संविधान की मूल प्रस्तावना का विशेष उल्लेख किया, जिसमें ‘धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी’ शब्द नहीं हैं। ये शब्द इन्दिरा गाँधी के कार्यकाल में 1976 में संविधान की प्रस्तावना शामिल किए गए थे।
तो क्या अब भाजपा संविधान में आमूल-चूल बदलाव कर सकती है? इसके ज़वाब के लिए भाजपा-आरएसएस से ही जुड़े नेताओं के बयानों पर गौर कीजिए। आरएसएस से जुड़ा संगठन है, ‘राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन’। इसके प्रमुख हैं- केएन गोविन्दाचार्य, संघ के पूर्व प्रचारक। ख़बर है कि यह संगठन भारतीय संविधान के पुनर्लेखन के काम में लगा है। उन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘संविधान में भारतीयता का तत्त्व समाहित करने के लिए’। ऐसे ही, भाजपा के वरिष्ठ नेता शांता कुमार, जो केन्द्रीय मंत्री रहे और हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री भी। उन्होंने साल 2017 में ‘राष्ट्रपति शासन प्रणाली’ का समर्थन करते हुए संविधान में आवश्यक बदलाव किए जाने की बात की थी।
उस वक़्त शांता कुमार ने गौर करने लायक एक और बात की थी कि पूरी तरह अमेरिका जैसी राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू हो या न हो, पर किसी न किसी रूप में ‘कार्यपालक राष्ट्रपति’ की व्यवस्था भारत में अवश्य होनी चाहिए। क्योंकि वही व्यवस्था भारत के लोकतांत्रिक ढाँचे के सर्वथा अनुरूप होगी।
तो अब इन सन्दर्भों, प्रसंगों को ध्यान में रखते हुए अनुमान लगाइए कि ‘क्या नरेन्द्र मोदी ‘भारत के पहले कार्यपालक राष्ट्रपति’ हो सकते हैं? और क्या वे फ्रांस के राष्ट्रपति जैसा पद सँभालेंगे? वैसे, वर्ष 2027 में भारत के अगले राष्ट्रपति के चुनाव के समय तक इन तमाम प्रश्नों के ज़वाब मिल ही जाने हैं।
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(नोट : इस लेख में ऊपर जहाँ-जहाँ भी अंडरलाइन्स हैं, वे सन्दर्भ के तौर पर लिए गए दस्तावेज की लिंक्स हैं। विस्तृत जानकारी और यहाँ दी गई जानकारियों की पुष्टि के लिए उन लिंक्स को खोलकर पढ़ा जा सकता है।)