संदीप नाइक, देवास, मध्य प्रदेश से, 5/2/2022
मौत की ख़बरें अब विचलित नही करतीं। रोज़ किसी न किसी के गुजर जाने की सूचना मिलती है। और ये सूचनाएँ एक आँकड़े में बदलकर दफ़न होती जा रही हैं। इन पर बोलना, सोचना और कुछ करना बेमानी लगता है। दुखद, नमन , श्रद्धांजलि या ओम शांति जैसे शब्द लिखना इतना मशीनी हो गया कि अंग्रेजी साहित्य के कवि टीएस इलियट की कविता ‘द वेस्ट लैंड’याद आती है और सब कुछ धुआँ-धुआँ होने लगता है।
आनन्द का ‘बाबू मोशाय’ हो या किसी बड़े नाटक का कलावृन्द, जो मौत के आख्यान पर बात करते हुए ख़त्म हो जाता है। श्रीकान्त हों या ‘मुझे चाँद चाहिए’ का हर्ष। ‘गुनाहों के देवता’ की नायिका सुधा हो या ‘1084 की माँ’। साहित्य के पन्नों से सभी चरित्र बारी-बारी से निकलते हैं। और फिर लगता है कि संसार में लेमार्क और डार्विन के सिद्धान्त तो हमेशा से रहे ही होंगे। अस्तित्व का संघर्ष कब नहीं रहा। आज ज़िन्दा लोगों की तुलना में सामने जल गए या महिका में गड़े हुए मृत लोगों की संख्या ज्यादा ही है। ‘आत्मा अमर है’ अगर इसे भी मानें तो वह चोला बदलकर क्यों बार-बार मरने आ रही है। साठ-सत्तर बरस की पीड़ा क्या कम है भुगतने और समझने को, जो बारम्बार लौट आती है। आपदा-विपदा हमेशा से संसार मे रहे हैं। अस्तित्व स्थापित करने के लिए लड़ाईयाँ और हार-जीत के किस्सों से दुनिया अटी पड़ी है। पर लगता है, हम उस सबको इसलिए भूल बैठे थे कि मौत को इतने भद्दे ढंग से प्रदर्शित करने और वीभत्स तरीके से व्याख्यायित करने को कुछ था नहीं। दमदार किस्म का माध्यम। और अब हम सबके हाथ मे उस्तरों की एक लम्बी श्रृंखला है। जाहिर है, भौंडेपन और नौटंकीबाज़ी में मनुष्य से बड़ा पाखंडी कोई नहीं है।
बहरहाल, मौत की सच्चाई सबके सामने है। आज नहीं तो कल, सबको आनी ही है। तो क्यों ना हम जीवित होने का- जब तक है- ख़ुश रहने का स्वाँग भरते हुए मस्त रहें। सब चिन्ताएँ छोड़कर जी लें बस, अभी इसी वक्त।
पिछले पूरे हफ़्ते कमोबेश रोज श्मशान जाकर निष्ठुर हो गया हूँ। आज भी एक जगह गया था। अब नींद में भी लगता है कि कोई फोन आएगा, वॉट्सऐप पर या एसएमएस पर सन्देश टपकेगा कि फलाँ गुजर गए। सामाजिकता के नाते कम से कम अन्तिम काँधा देने का मोह छोड़ नही पाता। क्योंकि फिर हर लाश में अपना भविष्य दिखता है।
श्मशान में जिस बेलौस और खिलन्दड़पन से लोग बातें करते हैं, वह अप्रतिम है। और अब एक आदत सी बन गई है। उन ‘रीतियों’का होना मानो जीवन की अनिवार्यता बनता जा रहा है। यह लिखना शर्मनाक है। पर इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है। जबसे बड़ा हुआ था और स्वतंत्र रूप से अन्तिम संस्कार में जाना शुरू किया, जनाज़े को कन्धा देना या किसी कब्र पर जाकर मोमबत्ती जलाना साल में दो-तीन बार होता था। पिताजी के बाद माँ, फिर भाई और फिर घर के प्रतिनिधि के रूप में हर जगह जाना पड़ता था। पर, इतना नही, जितना पिछले मार्च से गया हूँ। अब ऐसा लगने लगा है, मानो यह एक कुल मिलाकर अनिवार्य काम है, जिससे फ़ारिग होकर पुनः अपने ढर्रे पर लौटना है।
श्मशान से लेकर कब्रस्तान में जो देखता सुनता हूँ, उन तीन-चार घंटों में जो बातें होती हैं, सुनता हूँ, शामिल भी होता हूँ उस सब प्रपंच में। पर बाद में अपने से घिन आती है कि कितना नीच और घटिया हो गया हूँ। हालाँकि आज जब यह सब सोच रहा हूँ तो लग रहा है एक औसत बुद्धि वाले और बेहद सामान्य परिस्थिति में जीने वाले मनुष्य होने के नाते और क्या है मेरे बस में? यह सब करके, इतनी अन्तिम यात्राएँ निपटाकर और आम जन से बड़ी हस्तियों की मौत का तांडव और आँकड़ों को देखकर क्या भावुक बनकर सहज रहा जा सकता है हरदम, हर पल? पता नहीं, पर अब मौत का जो भी ख़ौफ़ था, वह जुदा हो गया है। सिर्फ इतना कि
“मौत तुझसे वादा है
वृहत्तर और पूर्ण स्वरूप में
एक दिन मिलूँगा जल्दी ही
और फिर कभी नही लौटूँगा।”
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 45वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ ये रहीं :
44.‘अड़सठ तीरथ इस घट भीतर’
43. ठन, ठन, ठन, ठन, ठन – थक गया हूँ और शोर बढ़ रहा है
42. अपने हिस्से न आसमान है और न धरती
41. …पर क्या इससे उकताकर जीना छोड़ देंगे?
40. अपनी लड़ाई की हार जीत हमें ही स्वर्ण अक्षरों में लिखनी है
39. हम सब बेहद तकलीफ में है ज़रूर, पर रास्ते खुल रहे हैं
38 जीवन इसी का नाम है, ख़तरों और सुरक्षित घेरे के बीच से निकलकर पार हो जाना
37. जीवन में हमें ग़लत साबित करने वाले बहुत मिलेंगे, पर हम हमेशा ग़लत नहीं होते
36 : ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं
35.: स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 : पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें!
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!
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