नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश
चीन की एक कम्पनी ने तकनीक की दुनिया में बीते हफ़्ते-10 दिन से दुनिया में तहलका मचाया हुआ है। इस कम्पनी का नाम है ‘डीपसीक’ (शाब्दिक अर्थ- गहन खोज)। कम्पनी के मालिक का नाम है- लियांग वेनफेंग। अभी 40 साल के हैं। उनकी कम्पनी कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इन्टेलिजेंस- एआई) के क्षेत्र में ‘डीपसीक’ के नाम से नया मंच (एआई मॉडल) लेकर आई, अभी 20 जनवरी को। उस रोज चूँकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का शपथ ग्रहण समारोह था, इसलिए किसी का इस तरफ़ ध्यान नहीं गया।
अलबत्ता, सोमवार 27 जनवरी को अमेरिकी शेयर बाज़ार में तहलका मचा तो दुनिया की निगाहें ‘डीपसीक’ की गहन खोज-पड़ताल में जुट गईं। दरअस्ल, उसी दिन एआई के क्षेत्र में दुनिया की सबसे अग्रणी कही जाने वाली अमेरिकी कम्पनी ‘एनवीडिया’ को शेयरों की कीमत गिरने से उसे एक लाख करोड़ डॉलर का फटका लगा। इस कम्पनी ने एक अन्य कम्पनी ओपनएआई में निवेश किया हुआ है, जो नवम्बर-2022 में ‘चैटजीपीटी’ लेकर आई थी। उस कम्पनी के शेयरों की कीमतें भी बहुत ज़्यादा नीचे गिरीं।
सिर्फ इन्हीं दो की नहीं, माइक्राेसॉफ्ट, फेसबुक की मालिक ‘मेटा’ जैसी कम्पनियों को भी ‘डीपसीक’ की नई पहल के कारण भारी नुक़सान हुआ, ऐसी ख़बरें हैं। इसका कारण? तब तक ये पता चल गया था कि ‘डीपसीक’ ने ‘चैटजीपीटी’ जैसे एआई मॉडलों के मुक़ाबले लगभग आधी लागत में दोगुना प्रभावी, सस्ता और सुविधानजक एआई मॉडल बना लिया है। स्वाभाविक तौर पर इस घटनाक्रम से अमेरिका में हाहाकार है। यहाँ तक कि डोनाल्ड ट्रम्प को भी कहना पड़ा कि अमेरिका की कम्पनियाँ अब सचेत हो जाएँ।
तो यह हुई उस हलचल की बात, जिसके बहाने हम अपनी मूल बात कहना-समझाना चाह रहे हैं। इस मामले में पहले ग़ौर किया जाना चाहिए कि अमेरिका, चीन और ऐसे ही अन्य देशों में यह भारी प्रतिस्पर्धा आख़िर है किस बात के लिए? सिर्फ़ इसके लिए लिए भविष्य की तकनीक ‘एआई’ पर उनका क़ब्ज़ा हो। उनके एआई मॉडल इंसानी बुद्धिमत्ता के कम से कम दख़ल के साथ दुनियाभर की गतिविधियों को नियंत्रित करें। फिर वे गतिविधियाँ भले ही विशुद्ध तकनीकी हों या किन्हीं अन्य क्षेत्रों से जुड़ी हुई हों।
लिहाज़ा इसी पृष्ठभूमि में यह सवाल भी हो सकता है कि ये होड़ आख़िर कितनी ज़रूरी है? इंसानी बुद्धिमत्ता को किनारे लगाने और मशीनी बुद्धिमत्ता के जरिए सभी चीजों को नियंत्रित करने की आवश्यकता कितनी, कहाँ तक है? कहीं कोई तो सीमा तय की गई होगी। हालाँकि जानकारों की मानें तो अभी इस तरह की सीमा तय करने के बारे में किसी ने कुछ सोचा ही नही है। जबकि यह ज़रूरी है। क्यों ज़रूरी है? उसके लिए अभी हाल ही की कुछ सुर्ख़ियों पर नज़र डालकर बात को बेहतर समझा जा सकता है।
एक बड़े अख़बार में देश की जानी-मानी पत्रकार बरखा दत्त का लेख छपा है। इसमें उन्होंने बताया है कि यूट्यूब, गूगल, आदि पर जो भी सूचनाएँ, सामग्री पेश की जा रही है, वह कहने को तो स्वतंत्र है। जबकि सच्चाई यह है कि उन पर इन कम्पनियों की मशीनी बुद्धिमत्ता (एआई) का नियंत्रण है। कम्पनियाँ मशीनी बुद्धिमत्ता के ज़रिए ऐसा इंतिज़ाम करती है, जिन्हें तकनीकी भाषा में ‘अल्गोरिदम’ कहा जाता हैं। यह ‘अल्गोरिदम’ उस सामग्री को अधिक आगे बढ़ाता है, जो किसी विचार के पक्ष में हो। किसी नज़रिए या आग्रह, पूर्वाग्रह, दुराग्रह के साथ हो। दर्शक वर्ग या कहें कि जनमानस का किसी एक या दूसरी तरफ़ ध्रुवीकरण करती हो।
तो सही मायने में ‘डीपसीक’ यानि गहन-खोज या अन्वेषण की पहली ज़रूरत तो यहीं है कि ‘एआई’ से नियंत्रित वर्तमान दौर के डिजिटल मीडिया से जनमानस को दूषित, भ्रमित होने से कैसे बचाया जाए! और जनमानस दूषित कैसे होता जा रहा है, उसकी भी मिसाल देखिए। एक नहीं, दो ताज़ा प्रमाण हैं। पहला- शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली गैरसरकारी संस्था है ‘प्रथम’। उसने असर-2024 के नाम से स्कूली बच्चों की पढ़ाई लिखाई पर एक रिपोर्ट तैयार की। इसमें बताया कि वर्तमान में ‘76% स्कूली बच्चे मोबाइल फोन पर सोशल मीडिया में अपना वक़्त बर्बाद करते हैं।’ और वे देखते क्या होंगे? जैसा कि बरखा दत्त ने बताया- गूगल, फेसबुक, यू्ट्यूब, जैसे मंचों की मालिक कम्पनियों का ‘एआई’ संचालित ‘अल्गोरिदम’ जो उन्हें दिखाना चाहता है।
कैसे? इसका प्रमाण- महाराष्ट्र के नागपुर से एक 17 साल की बच्ची का मामला। उसने जिज्ञासावश एक बार गूगल पर खोजा कि मौत के बाद क्या हेाता है? पहली बार में उसे स्वाभाविक रूप से कुछ जानकारियाँ मिलीं। मगर फिर अगली बार से उसके सामने अपने आप इसी विषय से सम्बन्धित जानकारियाँ लगातार सामने आती रहीं। ‘एआई’ से संचालित ‘अल्गोरिदम’ की मदद से उपयोगकर्ताओं के लिए ऐसा बन्दोबस्त किया ही जाता है। तो कुछेक हफ़्तों तक इस तरह की तमाम जानकारियों से दो-चार होते-होते उस बच्ची का मानस ऐसा बन गया कि उसने मौत के बाद का साक्षात् अनुभव लेने के लिए आत्महत्या ही कर ली।
ऑनलाइन जुए, लॉटरी, वीडियो गेम, अश्लील सामग्री देखने, वाहियात रीलें बनाने, आदि की लत भी इसी तरह एआई संचालित ‘अल्गोरिदम’ के कारण लगती है। ऐसे मामलों का अन्त भी अक्सर मौत पर जाकर ही होता है। यह कोई छिपी बात नहीं है। सैकड़ों समाचार इस तरह के आते रहते हैं। इसलिए सही मायने में ‘डीपसीक’ अर्थात् गहन अन्वेषण की ज़रूरत यहाँ है। ख़ासतौर पर हमारे लिए यह ज़रूरत ज़्यादा है, ताकि हम बचे रहें, हमारी आने वाली पीढ़ी, हमारे बच्चे बचे रहें, हमारा समाज बचा रहे।
इसका कारण वही, जैसा पहले बताया कि ‘एआई’ को कहाँ ले जाकर रोकना है, इसकी कोई सीमा अभी किसी कम्पनी के कर्ताधर्ताओं के ख़्याल में भी नहीं आई है। बल्कि अभी तो तकनीकी सुविधा के नाम पर इसका विस्तार ही हो रहा है। ‘एआई’ का इतना विस्तार हो चुका है कि वह इंसानी दख़ल के बिना अपनी नकलें (क्लोन) बनाने लगा है। अमेरिका के कॉरनेल विश्वविद्यालय में हुए अध्ययन के अनुसार, एआई मॉडल कंप्यूटर की अपनी विशिष्ट भाषा पढ़ने-समझने में सक्षम हो गए हैं। वे उस भाषा की नकल से अपनी तकनीकी ख़ामियाँ ख़ुद सुधार रहे हैं। ठीक अपने जैसा दूसरा एआई मॉडल भी बनाने की स्थिति में आ गए हैं!!
तो मतलब क्या? यही कि ‘चैटजीपीटी’ या ‘डीपसीक’ जैसी सुविधाओं की कहीं-कहीं ज़रूरत हो सकती है। लेकिन उसकी जय-जयकार उतनी मत कीजिए, उसे सिर पर इतना मत चढ़़ाइए कि वह हमारे लिए भगवान बन जाए। उसके उपयोग की एक हद तय रखिए। याद रखिए, ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विशुद्ध व्यावसायिक तकनीकी पहलें हैं। इनके मूल में मानवीय हितों की मूल्यआधारित सोच कभी शामिल नहीं हो सकती। हमें अगर अपना हित चाहिए तो स्वयं का ‘डीपसीक’ यानि गहन अन्वेषण ख़ुद करना होगा।
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