नीलेश द्विवेदी, भोपाल, मध्य प्रदेश
इस बार दिल्ली में यमुना ने त्राहिमाम् मचा दिया। सुर्ख़ियों में बताया गया कि क़रीब 45 साल बाद दिल्ली ऐसी बाढ़ में डूबी है। यमुना का पानी दिल्ली के लाल किले की सीढ़ियों से जा लगा। गोया कि अपने लिए आज़ादी की माँग कर रहा हो। हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी अदालत (सुप्रीम कोर्ट) का दरवाज़ा खटखटा आया। मानो अपने लिए इंसाफ़ की गुहार लगाई हो उसने। और दिल्ली के मुख्यमंत्री के साथ ही साथ इस राज्य और केन्द्र के तमाम बड़े मंत्रियों, नेताओं, अफ़सरों की चौखट तक भी आमद दे आया। जैसे उन्हें चुनौती, चेतावनी दे आया हो।
दिल्ली के हुक़्मरानों की नींद इतने से खुल जानी चाहिए। उनकी ख़ुशफ़हमियाँ दूर हो जानी चाहिए। ग़लतफ़हमियाँ ख़त्म हो जानी चाहिए। क्योंकि यमुना कोई आम नदी नहीं है। देश की सियासत और सत्ता जिस दिल्ली से संचालित होती है, वहाँ ये यमुना अस्ल में गंगा सहित मुल्क़ की तमाम नदियों की नुमाइंदगी किया करती है। उन्हीं नदियों की जिनके साथ बड़े से छोटे तक और ख़ास से लेकर आम तक हर कोई बस, खिलवाड़ कर रहा है। हर शख़्स अपनी-अपनी हैसियत और कैफ़ियत (नशा या सुरूर) के मुताबिक इन नदियों को बाँधने में लगा है।
देश में चौतरफ़ा कहीं भी नज़र घुमा लीजिए। कहीं-कहीं इन नदियों पर बड़े-छोटे बाँध खड़े हो रहे हैं, तो कहीं इनके हलक़ में कंक्रीट भरकर इनकी धारा रोक दी जा रही है। इनमें हर तरह की गंदगी भरकर इनकी साँसें अटकाई जा रही हैं। किसलिए? ताकि सड़कें बन सकें। पुल बन सकें। बड़ी हवेलियाँ, इमारतें तानी जा सकें। धंधे चलतें रहें। कारख़ाने दौड़ते रहें। और ऐश-ओ-आराम के तमाम दीगर इंतज़ाम किए जा सकें। इसके एवज़ में नदियाँ दम तोड़ती हों तो तोड़ें। लेकिन इंसानी साँसें तर-ओ-ताज़ा रहें, यही मंसूबा नज़र आता है सबका।
अलबत्ता, जो सियासत-दाँ हैं, उन्हें कभी-कभार अपनी सियासत की चिन्ता होती है। उसे चमकाने की गरज़ होती है। सो, वे अवाम को जोर-जोर से बताया करते हैं कि हम “गंगा को साफ कर देंगे”, “यमुना को साफ कर देंगे। वह भी ऐसा कि आपका पूरा गाँव उसमें डुबकी लगाएगा”, वग़ैरा, वग़ैरा। लेकिन होता क्या है? गंगा सूखती जाती है। यमुना गन्दे नाले में तब्दील होती जाती है। और मध्य प्रदेश के उज्जैन में क्षिप्रा जैसी नदी तो विलुप्त ही हो जाती है। उसकी जगह उसमें तीज-त्यौहारों पर दूर से खींचकर लाया गया नर्मदा का पानी बहाया जाता है।
सो, अब इस झूठ-फ़रेब से मानो नदियों का धीरज भी टूटने लगा है। हिमाचल की ब्यास, मध्य प्रदेश की नर्मदा, बेतवा, असम की ब्रह्मपुत्र, बिहार की कोसी, उत्तराखंड-उत्तर प्रदेश में गंगा। ये सब अपने रौद्र रूप से तबाही के मंज़र पैदा कर चुकी हैं। कम-ओ-बेश हर साल ही किया करती हैं। लेकिन इतने पर भी दिल्ली के हुक़्मरान नहीं चेते। लिहाज़ा, इस बार उनकी चौखट पर चहलक़दमी करने का बीड़ा यमुना ने उठाया। घूमते-टहलते आई। उन्हें उनकी हैसियत दिखाई और वापस लौट गई। लेकिन अब शायद 45 साल के लम्बे अन्तराल के लिए नहीं।
हुक़्मरान याद रखें! वह यमुना है। हिन्दू धर्मग्रन्थों के मुताबिक, सूर्य की पुत्री और यमराज की बहन। अगर आप सँभले नहीं तो वह जल्द ही फिर लौटेगी। और जिस दिन चाहेगी, तुम्हारे महलों-किलों, अटारियों-अट्टालिकाओं को बुनियादों के साथ उखाड़ डालेगी। तुम्हारे तख़्त-ओ-ताज़ समेत तुम्हारी हुकूमतों को मटियामेट कर देगी। लिहाज़ा, भलाई इसी में है कि सँभल जाएँ। यमुना और उसके जैसी तमाम नदियों के साथ छेड़खानी बन्द करें। उनके साथ धोखाधड़ी बन्द करें। याद रखें, तुम्हारी और हमारी ज़िन्दगी इनसे चल रही है। ये हमारे या तुम्हारे दम पर नहीं बहा करतीं।