कानून के लम्बे हाथों की दुहाई मत दो यार…ये हमने ठाकुर को लौटा दिए हैं…!

ए. जयजीत, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 16/9/2021

बीते दिनों मध्य प्रदेश के एक शहर में 800 से भी अधिक पुलिसकर्मियों ने मार्चपास्ट किया। मक़सद अपराधियों में ख़ौफ़ पैदा करना था। इससे अपराधियों में ख़ौफ़ पैदा हुआ होगा, ऐसा माना जा सकता है। क्योंकि जिन क्षेत्रों के कस्बा निरीक्षक (टीआई), पुलिसकर्मी इत्यादि उस रैलीनुमा मार्चपास्ट में शामिल हुए, उन क्षेत्रों में उस दिन एक भी अपराध न होने की ख़बर है। वैसे, ख़बर के अलग-अलग अर्थ लगाने के लिए पाठक स्वतंत्र हैं। 

ख़ैर, वह वाक़ई बड़ा दिन था, कम से कम उस नए-नवेले रिपोर्टर के लिए। तो उसने रैली की व्यवस्था में लगे एक बड़े-से अफ़सर से बड़ी ही मासूमियत से पूछ लिया, “इतने सारे पुलिसकर्मी एक साथ क्यों? ख़ौफ़ पैदा करने के लिए तो आपका एक ‘ठुल्ला’ ही काफ़ी होता है। हमारी बस्ती में आता है तो बहू-बेटियाँ घरों के अन्दर हो जाती हैं। गली किनारे ठेले-खोमचे लगाने वाले सैल्यूट ठोकने लगते हैं। पनवाड़ी पान लिए सेवा में पहुँच जाते हैं।” कच्चे से रिपोर्टर ने अपना टुच्चा-सा अनुभव उस अफ़सर के साथ साझा किया। 

अफ़सर अनुभवी था। इसलिए नए-नवेले रिपोर्टर की इतनी बेवकूफ़ी भरी बात का भी उसने मज़ाक नहीं उड़ाया। ‘ठुल्ला’ शब्द का भी बुरा नहीं माना। बस मुस्कुरा कर कहा, “देखिए, आप जैसों की बस्तियों में ख़ौफ़ पैदा करने के लिए हमारा एक जवान तो क्या, उसका डंडा भी पहुँच जाए तो शरीफ़ लोग दंडवत हो जाते हैं। लेकिन बड़े अपराधियों में ख़ौफ़ के लिए बड़ा मार्चपास्ट जरूरी होता है। इससे उन्हें यह सन्देश मिलता है कि राज तो कानून का ही चलेगा। भले कोई भी चलाए। इससे अगले कुछ दिनों तक बड़े अपराधी, माफ़िया टाइप के सभी लोग कानून का विधिवत् पूरा सम्मान करने लगते हैं। ख़ौफ़ बिन सम्मान नहीं, आपने सुना ही होगा। और जैसे ही सम्मान कम होता है, हम फिर मार्चपास्ट निकालकर थोड़ा बहुत ख़ौफ़ भर देते हैं।” 

नए-नवेले रिपोर्टर ने दूसरा मूर्खतापूर्ण सवाल फेंका, “पूरे शहर भर के पुलिसवालों को आपने एक जगह एकत्र कर लिया है। अगर किसी दूसरी जगह पर कोई अपराध वग़ैरह हो गया तो आप क्या करेंगे? यह तो सरासर मिस-मैनेजमेंट की कैटेगरी में आता है।” 

अफ़सर, जो ऑलरेडी बहुत अनुभवी था और कई तरह की डील करते-करते इस तरह के मूर्खतापूर्ण सवालों को हैंडल करना अच्छे से सीख चुका था, ने इस बार भी इस सवाल का मज़ाक नहीं उड़ाया। पर इस बार मुस्कुराया भी नहीं। गुस्से को पीते हुए उसने बड़ी ही गम्भीरता से कहा, “क्राइम कब होता है? जब वह दर्ज़ होता है। दर्ज़ कब होता है? जब पुलिस दर्ज़ करती है। जब पुलिस ही नहीं होगी तो क्राइम दर्ज़ कौन करेगा? और जब क्राइम दर्ज़ ही नहीं होगा तो क्राइम कहाँ से हो जाएगा? अपराधों और अपराधियों के मैनेजमेंट का यह सिम्पल-सा फंडा है। हमें कोई मैनेजमेंट न सिखाएँ…।” 

बात तो बहुत सिम्पल थी। पर रिपार्टर अपने नए-नवेलेपन को लगातार एक्पोज़ कर रहा था। उसने अगला सवाल दागा जो उतना ही मूर्खतापूर्ण था, जितने पहले के दो सवाल थे, “कानून-व्यवस्था के हाथ तो बड़े लम्बे होते हैं। तो रैली निकालने की क्या ज़रूरत? बैठे-बैठे ही कानून अपने लम्बे हाथों से अपराधियों को नहीं पकड़ सकता?” 

अब अफ़सर कितना भी अनुभवी क्यों न हो, उसके धैर्य की भी सीमा होती है। अफ़सर चाहता तो इस सवाल पर अपने बाल नोंच सकता था, पर उसने ठहाके लगाने का ऑप्शन चुना। अब ठहाका, वह भी एक बड़े पुलिस अफ़सर का तो ऐसा ही होता है। इसमें उस अफ़सर की कोई ग़लती नहीं। पर क्या करें? रिपोर्टर ठहरा नया-नवेला, कोई शातिर-अनुभवी अपराधी तो नहीं कि ऐसे ज़ालिम ठहाकों में वह भी ठहाके से ठहाका मिलाकर साथ दे। तो उस भयावह ठहाके से रिपोर्टर का दिल दहलकर वाइब्रेशन मोड में पहुँच गया। दो-चार मिनट में माहौल वाइब्रेशन मोड से नॉर्मल मोड में वापस आया तो रिपोर्टर का दिल भी सामान्य हुआ। उसने बड़ी मासूमियत के साथ अफ़सर की ओर देखा। इस उम्मीद के साथ कि उसे अपने उस सवाल जो बेशक मूर्खतापूर्ण था, का ज़वाब मिलेगा। लेकिन अफ़सर तो ज़वाब दे चुका था और अगले मूर्खतापूर्ण सवाल के इन्तज़ार की मुद्रा में था।  

लेकिन रिपोर्टर अब भी अपने उसी मूर्खतापूर्ण सवाल पर अटका है। “पर सर, कानून के हाथ ऑलरेडी इतने लम्बे हैं, तो पुलिस जवानों को पैर लम्बे करने की क्या जरूरत थी?” 

“देख भाई…” अफ़सर अब ‘देखिए’ से ‘देख’ पर और ‘आप’ से ‘तुम’ पर आ रहा है। संकेत साफ़ है कि मूर्खतापूर्ण सवाल कुछ ज़्यादा ही हो रहे हैं। फिर भी जो पूछा है, उसका ज़वाब वह यथासम्भव शालीनता से देने की कोशिश कर रहा है, “देश की मूल समस्या ही यही है। तुम लोगों को कानून के लम्बे-लम्बे हाथ तो नज़र आते हैं, लेकिन यह भी देखो कि वे लम्बे हाथ आपस में ही कितने उलझे हुए हैं। इसलिए बार-बार लम्बे हाथों की दुहाई मत दो यार। ये हाथ अब हमारे किसी काम के नहीं हैं। हमने ठाकुर को लौटा दिए हैं…।”  

एक शॉर्ट टर्म ठहाका। अफ़सर अनुभवी है। वह जानता है कि अपनी किसी तात्कालिक मूर्खतापूर्ण बात को किस तरह ठहाके में उड़ाया जा सकता है। 

मग़र रिपोर्टर अब भी प्रश्नवाचक मुद्रा में है। उसकी मुद्रा को देखते हुए पुलिस अफ़सर ने बात पूरी की, “इसलिए हम पैर फैलाने पर फोकस कर रहे हैं। मार्चपास्ट को उसी प्रोजेक्ट का हिस्सा मान लो, और क्या!” 

“लेकिन पुलिस के कानून वाले लम्बे हाथ तो रहे नहीं, जैसा आप कह रहे हैं। तो केवल पैर फैलाने से अपराध कैसे कम हो जाएंगे?” नए-नवेले रिपोर्टर के ऐसे सवालों का अन्तिम समय निकट ही है। 

“हमने कब कहा कि इससे अपराध कम हो जाएँगे? हम तो बस अपराधियों में ख़ौफ़ पैदा करने की बात कर रहे हैं। वही तो हमारा मक़सद है।” 

मार्च-पास्ट ख़त्म होने जा रही है। फिर ड्यूटी पर लगना है। तो अफ़सर के पास टाइम-पास का टाइम भी ख़त्म हुआ। नया-नवेला रिपोर्टर अब भी हेडलाइन की तलाश में है।
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(ए. जयजीत देश के चर्चित ख़बरी व्यंग्यकार हैं। उन्होंने #अपनीडिजिटलडायरी के आग्रह पर ख़ास तौर पर अपने व्यंग्य लेख डायरी के पाठकों के उपलब्ध कराने पर सहमति दी है। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इसके लिए पूरी डायरी टीम उनकी आभारी है।)

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