IPL-Auction

महिला-पुरुष खिलाड़ियों की नीलामी क्या ग़ुलामों की ख़रीद-फ़रोख़्त की याद नहीं दिलाती?

नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश से

इतिहास भूलने की चीज़ नहीं है। याद रखने और सबक लेने की चीज़ है। इसके बावजूद न जाने क्यों, लोग भूल जाया करते हैं। सबक तो फिर क्या ही लेंगे। इसीलिए हालात यूँ भी बनते हैं कि इतिहास की घटनाएँ अक़्सर कई बार, बार-बार ख़ुद को दोहराती रहती हैं। भले वह हमारी पसन्द का हों या न हों।

अब बहुत दूर की बात नहीं है। यही कोई दो-तीन सौ बरस पहले की तारीख़ी-गलियों में कभी गुजरकर देखिएगा। जाहिर तौर पर किताबें इसका सबसे अच्छा जरिया होंगी। तो उनके मार्फ़त जब कोई उन गलियों से गुजरने की कोशिश करेगा तो उसे क़रीब-क़रीब हर शहर की किसी न किसी गली के नुक्कड़, चौक-चौबारों पर एक बाज़ार सजा हुआ दिखाई दे जाएगा। ग़ुलामों का बाज़ार। ऐसा, जिसमें बच्चे, औरतें, मर्द सभी ख़रीदने-बेचने के लिए लाए जाते रहे। उनकी क़द-काठी, नैन-नक़्श, चमड़ी के रंग वग़ैरा से तब उनकी एक शुरुआती कीमत तय की जाया करती थी। फिर धन्नासेठ क़िस्म के लोग उस तय कीमत से ऊपर बोली लगाया करते थे। सबसे ऊँची बोली लगाने वाला ग़ुलाम बच्चे, औरत या मर्द को अपने साथ ले जाता था। घर में पालतू की तरह रखने के लिए। 

इतिहास ही बताता है कि हिन्दुस्तान की ज़मीन पर जब विदेशी हमलावरों ने पैर रखे, तो उन्हीं के साथ-साथ इंसानों को ग़ुलामों की तरह ख़रीदने-बेचने की परम्परा भी हिन्दुस्तान में आई। फिर आगे सैकड़ों बरस तक चलती रही। कहते हैं, अंग्रेजों के राज के आख़िरी दौर में यह प्रथा थोड़ी-बहुत कम हुई थी। पर यक़ीन जानिए, ऐसा सिर्फ़ कहने के लिए कहते हैं। क्योंकि इंसानों को ख़रीदने-बेचने की यह प्रथा वाक़ई ख़त्म हो चुकी होती तो आज ग़ैरकानूनी ही सही, इंसानों को ख़रीदने-बेचने का कारोबार दुनियाभर में 124 खरब रुपए (प्रतिष्ठित फोर्ब्स पत्रिका की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार) से भी अधिक का न होता। ज़ाहिर तौर पर इस ख़रीद-फ़रोख़्त में बड़ी तादाद औरतों और बच्चों की ही होती है। ख़रीद-फ़रोख़्त के बाद जिनका इस्तेमाल ग़ुलामों जैसा ही होता है। 

अलबत्ता, दलीलें देने वाले कह सकते हैं कि यह सब तो ग़ैर-कानूनी है। सही है। तो अब ज़रा कानूनन वैध कही जाने वाली इंसानों की ख़रीद-फ़रोख़्त पर नजर डाल लेते हैं। साल 2008 में हिन्दुस्तान के कुछ धन्नासेठों ने, मनोरंजन के लिए, यह कारनामा शुरू किया था। क्रिकेट खिलाड़ियों की शक़्ल वाले इंसानों की ख़रीद-फ़रोख़्त का। इनकी बाक़ायदा नीलामी की जाती है। शुरुआती कीमत तय होती है। फिर बोलियाँ लगती हैं। और जो सबसे ऊँची बोली लगाता है, उसके पास निश्चित समय के लिए वह खिलाड़ी ‘बन्धित’ (अनुबन्धित भी कह सकते हैं) हो जाता है।

अभी 2022 में ही 204 इंसानों (खिलाड़ियों) की 5.54 अरब से ज़्यादा में ख़रीद-बिक्री हुई है। इतना ही नहीं, अभी तीन-चार दिन पहले ही महिला खिलाड़ियों की पाँच टीमें बनाने के लिए भी 4,670 करोड़ रुपए की भारी-भरकम दाँव पर लगाकर नीलामी और ख़रीद-फ़रोख़्त की यही मर्यादाहीन प्रक्रिया अपनाई गई। 

और इस प्रक्रिया की हद तो तब होती है कि मीडिया के तमाम माध्यमों पर भी उतने ही अमर्यादित तरीक़े से लिखा जाता है कि फ़लाँ महिला या पुरुष (खिलाड़ी) अमुक-अमुक रकम में नीलाम हुआ या हुई। उसे इतने में ख़रीदा गया। उसे इतने में बेचा गया। उसको कोई ख़रीदार ही नहीं मिला। वह बिना बिके रह गया या रह गई। 

शर्म नहीं आती। किसी को शर्म नहीं आती, ऐसा करने में। कहने में। लिखने में। पढ़ने में। जो कथित तौर पर ज़िम्मेदार लोग कहे जाते हैं, वे आँख बन्द किए बैठे रहते हैं। पैसों की चमक-दमक ने दिमाग़ उनके भी सुन्न कर दिए हैं। इसीलिए तो वे इंसानों की ख़रीद-फ़रोख़्त, नीलामी प्रक्रिया की जगह खिलाड़ियों काे सम्मानजनक तरीके से चुनने और अनुबन्धित करने का इतने सालों बाद भी कोई विकल्प नहीं ला सके हैं।

यहाँ तक कि शब्दों के विकल्प भी नहीं है, किसी के पास। कारोबारियों के पास तो क्या ही होंगे। शासकों-प्रशासकों और ख़ुद को पढ़ने-लिखने वाला कहकर दम भरने वाले ख़बरियों के पास भी वैकल्पिक इस्तेमाल के शब्द नहीं दिखाई दिए अब तक कि कम से कम खिलाड़ियों की, इंसान के तौर पर, गरिमा तो बची रहे।

अफ़सोस! अफ़सोस की ही बात है, ये! पैसा और बाज़ार पता नहीं, हमें अफ़सोस की कितनी वज़हें देगा?

सोशल मीडिया पर शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *