सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से बाँट दो

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 25/1/2022

धन कमाने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति प्रायः अपने पक्ष में यह कहता है कि ‘सर्वे गुणाः काञ्चनम् आश्रयन्ति’ यानि सभी गुण धन के आश्रय से ही फलते-फूलते हैं। इसीलिए हर कोई करोड़पति बनना चाहता है। लेकिन कैसे बनना है? यह प्रश्न दिमाग में आते ही उत्तर भी आता है, कैसे भी। यह ‘कैसे भी’ आश्चर्यजनक उत्तर है। क्योंकि इसमें मार्ग क्या हो, इसका महत्त्व नहीं रह जाता। रह जाता है, केवल धन कमाकर ‘धनपशु’ बन जाना। 

भारतीय ऋषि धन अर्जित करने को मना नहीं करते। वे तो कहते हैं, खूब कमाओ, सौ हाथों से कमाओ (शत हस्त समाहर:)। लेकिन आगे ऋषि अद्भुत बात कह देते हैंl देखिए, ईशावास्योपनिषद् के पहले मंत्र में ऋषि क्या कहते हैं, “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌” अर्थात्  भोग कीजिए लेकिन त्याग करते हुए और किसी के धन पर गिद्ध जैसी दृष्टि मत रखिए। यहाँ दृष्टि का विशेषण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। ‘गृध:’ मतलब गिद्ध जैसी दृष्टि। किसी की वस्तु पर, किसी की किसी भी चीज पर गिद्ध की तरह नजर नहीं होनी चाहिए। दूसरों के धन पर मिट्टी के ढेले के समान दृष्टि रहनी चाहिए। 

यही भारतीय ऋषि की मानवीय होने की परिभाषा है। वह कार्य करने पर पाबन्दियाँ नहीं लगाते। वह तो सदैव क्रियाशील रहने के लिए कहते हैं। साथ ही सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं। वह प्रेरणा किस ओर हो? जिसमें व्यक्ति का, समाज का, राष्ट्र का हित हो। वस्तुत: भारतीय ऋषि क्रान्तिकारी हैं। वह समाज हित, राष्ट्र हित के सामने सभी हितों को बलिदान करने को आतुर हैं। मात्र अपने लिए धन-अर्जन मानव को धनपशु में बदल देगा। मानव को अपने तक सीमित कर देता है। इसीलिए ऋषि धनार्जन की दिशा को सन्मार्ग की ओर मोड़ने का उपक्रम करते हैं। और कहते हैं, “सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से बाँट दो (सहस्र हस्त संकिर:)।”

इसी भारतीय मनीषा के विचार को विकसित करते हुए महावीर स्वामी अपने महाव्रतों में ‘अस्तेय’ को मुख्य रूप से शामिल करते हैं। अस्तेय का अर्थ है, बिना दिए किसी अन्य की वस्तु को ग्रहण न करना। लेकिन अस्तेय का सामान्य अर्थ से आगे व्यापक अर्थ है – मात्र चोरी न करना ही नहीं अपितु मन, वचन और कर्म से किसी दूसरे की सम्पत्ति को चुराने का भाव भी न रखना। 

अस्तेय स्वयं में आर्थिक पवित्रता की अवधारणा का आधार है। साथ ही नि:स्पृह होकर, निर्लिप्त होकर रहने का आदेश भी है। वास्तव में धन वही अपना है, जो स्वयं के श्रम से अर्जित किया जाए। जैन आचार्य कहते हैं, “अनादानमदत्तस्यास्तेयव्रतमुदीरितम्।” अर्थात् बिना दिए हुए किसी वस्तु को न लेना अस्तेय व्रत है। महावीर स्वामी के विचार का धरातल कितना उदात्त है। 

इसीलिए इसका मतलब सिर्फ़ ये नहीं रह जाता कि धन की चोरी नहीं करनी है। बल्कि अपने मन, वचन तथा कर्म से भी किसी और की संपत्ति को, वस्तु को, हक को हासिल करने का विचार और भाव भी मन में न लाना ही अस्तेय हैं। अपने परिश्रम तथा हक से प्राप्त किया गया धन ही आपका है। लेकिन हक जमाकर, छीना हुआ या धोखे से हड़पा हुआ कुछ भी आपका नहीं है। यह बात केवल धन तक सीमित नहीं है, अपितु ऐसा विचार करना भी निकृष्ट कार्य है।

कुरल काव्य (परिच्छेद 12/3) में आचार्य लिखते हैं, “अन्यायप्रभवं वित्तं मा गृहाण कदाचन वरमस्तु तदादाने लाभंवास्तु दूषणम्” तात्पर्य यह है कि अन्याय से उत्पन्न धन को कभी ग्रहण न करो। भले ही उससे लाभ के अतिरिक्त अन्य वस्तु की संभावना न हो अर्थात् उससे केवल लाभ होना निश्चित हो। अस्तेय की अवधारणा कितनी व्यापक और सुन्दर है कि व्यक्ति अपने आचरण से ही नहीं बल्कि अपने मानसिक स्तर पर भी उच्च आदर्श धारण करता है। जैसे ही हम अस्तेय पालन की तरफ कदम बढ़ाते हैं, वैसे ही हम प्राणी मात्र के प्रति मानवीय हो उठते हैं। हमारा अन्य से वैर समाप्त हो जाता है। और बन्धुत्व का भाव हृदय में जग जाता है। हम जैन, जिनेन्द्र हो उठते हैं।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 43वीं कड़ी है।) 
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ… 
42. सत्यव्रत कैसा हो? यह बताते हुए जैन आचार्य कहते हैं…
41. भगवान महावीर मानव के अधोपतन का कारण क्या बताते हैं?
40. सम्यक् ज्ञान : …का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात!
39. भगवान महावीर ने अपने उपदेशों में जिन तीन रत्नों की चर्चा की, वे कौन से हैं?
38. जाे जिनेन्द्र कहे गए, वे कौन लोग हैं और क्यों?
37. कब अहिंसा भी परपीड़न का कारण बनती है?
36. सोचिए कि जो हुआ, जो कहा, जो जाना, क्या वही अंतिम सत्य है
35: जो क्षमा करे वो महावीर, जो क्षमा सिखाए वो महावीर…
34 : बौद्ध अपनी ही ज़मीन से छिन्न होकर भिन्न क्यों है?
33 : मुक्ति का सबसे आसान रास्ता बुद्ध कौन सा बताते हैं?
32 : हमेशा सौम्य रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में कठोर क्यों होते हैं? 
31 : बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?
30 : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29 : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28 : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27 : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26 : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25 : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24 : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23 : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22 : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21 : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20 : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19 : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18 : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17 : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16 : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15 : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14 : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13 : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12 : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11 : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10 :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
9 : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
8 : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
7 : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
6 : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
5 : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
4 : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
3 : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
2 : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
1 : भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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