स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 24/4/2021

यह भी शुरुआत ही है। लगता है कि सब कुछ ख़त्म हो गया है। जीवन कुल चार मकानों के इर्द-गिर्द समेट कर रख लिया है मानो। पहली धुँधली स्मृति रज्जब अली खाँ वाले रोड के मकान की है। दूसरी, बजरंग पूरे में हनुमान मन्दिर के सामने वाले मकान की। तीसरी, जच्चा खाने वाले रोड के मकान की। और चौथी, इस स्थायी मकान की, जहाँ से लगता है, अब विदाई का समय करीब आ गया है। जैसे कबीर कहते हैं, “चार जना मिल माथो उठायो और बाँधी काठ की घोड़ी”।

जाने से पहले बहुत कुछ करना चाहता हूँ। बहुत कुछ कहना चाहता हूँ। बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ। बहुत कुछ पढ़ना चाहता हूँ। इन दिनों अपने आप को इस दस बाई पंद्रह के कमरे में समेट कर रख लिया है। यह मकान का सबसे ऊँचा स्थान है, जहाँ से नीरभ्र आसमान, असंख्य तारे, चहुँओर फैली पहाड़ियों की श्रृंखलाएँ स्पष्ट नजर आती हैं। भोर में शुक्र तारा देखकर अपने लिए मौत की भीख माँगकर सोने का उपक्रम करता हूँ। 

यहाँ पर मैं हूँ। कुछ किताबें हैं। चौबीसों घंटे बड़बड़ाने वाला वाला एक टीवी है। हाथ में एक चलबोला है, जो कभी भी चीख देता है और जिससे मैं दुनिया से और घर के लोगों से जुड़ता हूँ। मुझे लगता है कि यह पर्याप्त है, जो बाहरी दुनिया से जुड़ने और कटने का ज़रूरी माध्यम है। 

यूँ तो मैंने ज़िन्दगी के सफ़र में इतनी यात्राएँ की हैं, इतनी यात्राएँ कि उनका कोई हिसाब नहीं है। कमोबेश हर सातवें दिन एक नया आशियाना खोजा है, अपने सफ़र में मैंने। एक नए आसमान के नीचे रात बिताई है। एक नई सुबह का संगीत सुना है। और हर बार नई मिट्टी से वास्ता पड़ा है। चाहे वह लाल मिट्टी हो, भुरभुरी मिट्टी हो, काली मिट्टी हो, पथरीली हो, ऊसर हो, चिकनी हो या बालू रेत हो। 

हर सातवें दिन नये भँवरों के गीत सुने हैं। नए झींगुरों के सुरों में डूबकर नए जुगनूओं के साथ रात बिताई है। हर सातवें दिन नए आसमान के नीचे नया चाँद देखा है। हर सातवें दिन सूरज को नए कोण से चढ़ते और डूबते देखा है। 

अपनी नौकरियों के दौरान भी मैं लगातार बाहर रहा हूँ। दड़बेनुमा कमरों से लेकर बड़े-बड़े से हवादार मकानों में। ऐसे मकान जिनमें ख़ूब बड़े-बड़े बरामदे थे। बबूल, इमली, गुलमोहर और पीपल के पत्ते सूखते तो उड़कर सीधे घर में चले आते थे। नीलगिरी के पत्तों की सुवास घर के हर कोने में घूमती रहती थी। 

हर मकान में चूहों के बिल, चीटियों की कतारें मेरे साथ हमेशा रहीं। आँगन में फुदकने वाली रंग-बिरंगी चिड़ियाओं ने कभी अकेला नहीं रहने दिया। बरगद के पेड़ पर तोतों का समूह जब शाम ढले उड़कर आता तो लगता कि घर में मेहमान आ गए हैं। गिलहरियाँ सारा दिन फुदक-फुदककर मेरी रसोई का सामान गिराती रहती थीं। 

मैंने इन बेज़ुबान जानवरों, पक्षियों को कभी घर से बाहर नहीं किया। कभी चूहा मारने की दवाई नहीं रखी।  कभी चीटियों पर हल्दी-कुमकुम नहीं डाला। क्योंकि माँ कहती थीं, काली चीटियाँ शुभ होती हैं। इसके बावजूद 20 साल जिन घरों में मैं शहर-दर-शहर भटकता रहा, उन्हें कभी घर नहीं कह पाया। 

मेरे लिए घर की चार छवियाँ हैं, जो इस शहर में हैं। और मैं आज भी अपने इस कमरे से निकलकर उन तीन घरों में महीने में एक बार जाकर घूम आता हूँ। पुराने मोहल्लों की बसाहटें, आत्मीयता और निरपेक्षता मुझे बेहद आकर्षित करती है।

यद्यपि वे घर अब घर नहीं रहे। उनका आधारभूत ढाँचा ही बिगड़ गया है। अब कहीं दुकान है, कहीं बहुमंजिला इमारत, कहीं खाली पड़ा मैदान। उसके आसपास रहने वाले लोग अचम्भे से मुझे देखते हैं। एकाध कोई बहुत पुराना परिचित निकल आता है तो वह हाल-चाल पूछ लेता है। कहता है, कभी आ जाया करो, जब तक ज़िन्दा हो। एक कप चाय पी कर जाना। 

रज्जब अली खाँ मार्ग पर इमरान मियाँ अपनी खातून आयशा के साथ बेतकल्लुफ़ी से मिलते हैं और आयशा के हाथों बनी नमक वाली चाय पीकर जब मैं लौटता हूँ, तो अपने अन्दर से और अकेला हो जाता हूँ। बेहद अकेला। 

यह अकेले होने की त्रासदी नहीं है। बल्कि मैं तो एक ऐसे समय में उन विराट स्मृतियों को समेटने की पुरज़ोर कोशिश कर रहा हूँ, जिन्हें हम वक्त के साथ भूलते जा रहे हैं। 

मैं नहीं चाहता कि जीवन में अब तक जो भी मैंने किया है, जैसा भी जिया है उसे मैं भूल जाऊँ। मैं वक़्त के एक-एक कतरे को इतना मज़बूती से पकड़ना चाहता हूँ कि जब मेरे पिंजर से आत्मा निकले तो उसे निकलने में भी बहुत मुश्किल हो। कराह निकले और इस कराह की गूँज सदियों तक ब्रह्म नाद की तरह इस व्योम में भटकती रहें। 

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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की सातवीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 

इस श्रृंखला की पिछली कड़ियां यहाँ पढ़ी जा सकती हैं:

छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो 

पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!

चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा

तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!

दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…

पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

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