भारत भवन की 41वीं वर्षगाँठ समारोह के समापन के दौरान हरिप्रसाद जी।
नीलेश द्विवेदी, भोपाल, मध्य प्रदेश से
एक क़िस्सा दिखाता हूँ। हाँ, दिखाता ही हूँ। देखिए। मध्य प्रदेश के शहर भोपाल में ‘भारत-भवन’ का अंतरंग सभागार। खचाखच भरा हुआ। यहाँ तीन-चार सौ लोग ही बैठ सकते हैं। इतनी ही जगह है। लेकिन अभी दो रोज पहले की उस सुरीली शाम के लिए पाँच-छह सौ लोग यहाँ आ जुटे हैं। कुछ भीतर। कुछ बाहर। कुछ खड़े। तो कुछ बैठे। और बैठे भी ऐसे कि जो अंग्रेजी के ‘यू’ अक्षर के आकार का मंच बना है, उससे भी लगभग सट-सटकर। वक़्त शाम के सात बजे के आस-पास का। लोग इंतिज़ार कर रहे हैं उनका, जिन्हें इस ‘यू’नुमा मंच के बीचों-बीच रखी कुर्सी पर बैठना है। मौज़ूदा दौर में हिन्दुस्तानी बाँसुरी का दूसरा नाम- पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी।
इंतिज़ार के लम्हे गुज़र चुके हैं। उद्घोषक ने उन कलाकारों से मंच पर आने की गुजारिश की है, जो पंडित जी के साथ संगत करने वाले हैं। पखावज पर भवानीशंकर जी। इन्हें किसी परिचय की ज़रूरत नहीं। बस, इतना जानिए कि खानदानी-कलाकार हैं। छह-सात साल की उम्र से पखावज इनके साथ जुड़ा हुआ है। उम्र अभी 70-75 के आस-पास कहीं ठहरी होगी। अगला नाम ओजस अढिया। मशहूर तबला-वादक। अभी 36 साल के हैं। लेकिन तबला 34 साल से बजा रहे हैं। हाँ, दो साल की उम्र से। गोया, इनका तबला इनके साथ बड़ा हुआ है। इनके बाद धानी गुन्देचा, तानपूरे पर। भोपाल के मशहूर ध्रुपद गायक भाइयों की जोड़ी में सबसे बड़े उमाकान्त जी की बेटी।
और फिर पंडित जी के साथ उनकी मशहूर होतीं दो शागिर्द- देबोप्रिया चटर्जी और वैष्णवी जोशी। ताल में गूँजती तालियों के बीच पंडित जी को सहारा देकर ले आई हैं। कुछ देर स्वागत की औपचारिकताएँ हुईं हैं। साथ ही, स्वागत-भाषण भी। बताया गया है कि बीते “साल 2022 के अप्रैल में भारत-भवन ने ‘संतूर और बाँसुरी’ की जोड़ी का कार्यक्रम का रखा था। हरि जी के साथ उनके अजीज दोस्त पंडित शिवकुमार शर्मा जी का। लेकिन शिवकुमार जी इससे पहले ही लोक छोड़ परलोक चले गए। कार्यक्रम रद्द करना पड़ा।” ये बात हरि जी को खटक गई मानो। भाषण खत्म होते ही उन्होंने सबसे पहले याद दिलाया, ‘शिव (कुमार) जी कहीं नहीं गए हैं। वे मेरे साथ रहते हैं, हमेशा। वह देखिए, सामने बैठे हैं। सुनने के लिए।” सभागार में ‘वाह, क्या बात’ सुनाई देने लगता है।
ये हरि जी का ‘पहला सुर’ है। प्रेम का। स्नेह का। दोस्ती का। फिर उतने ही प्रेम से वे सप्तक के सुरों को बुलाकर अपनी बाँसुरी पर बिठाते हैं। ‘स’, ‘ग’, ‘प’, ऊपर वाला ‘स’, ‘ग’, ‘प’। सब के सब एक-एक कर उनकी बाँसुरी पर आकर थम जाते हैं। इधर ग़ौर कीजिएगा। यही कोई 85 बरस के बुजुर्गवार हाथ काँप रहे हैं। हाथों के साथ बाँसुरी भी लगातार हिल रही है। लेकिन सुर थमे हुए हैं। वे नहीं हिलते क्योंकि हरि जी के साथ उनकी दोस्ती शिवकुमार जी से भी ज़्यादा पुरानी ठहरी है। यही कोई 70 बरस से ऊपर की। इतने पुराने, ऐसे गहरे दोस्त साथ छोड़कर जाएँ भी तो कैसे? और क्यूँ? पूरे एक-सवा घंटे तक काँपते हाथों में हिलती बाँसुरी पर पकड़ बनाए बैठे रहे सुर। हरि जी के संग, हरि जी के रंग में रंगे। राग पटदीप के छोटे आलाप और जोड़ से शुरुआत हुई है।
पखावज की संगत में जोड़ की लड़ियाँ खुल रही हैं। भवानीशंकर जी के पास मंच से सटकर गुन्देचा जी के गुरुकुल के कुछ शागिर्द बैठे हुए हैं। शायद पखावज वाले ही। बीच-बीच में भवानीशंकर जी उन्हें इशारों से नुस्खे दे रहे हैं। पखावज पर ‘धिन’ का बड़ा सा वितान कैसे रचा जाता है। इस एक ‘धिन’ का बड़ा सा चक्कर पूरा होने से पहले ही बीच में किसी छन्द को कैसे भरते हैं। और फिर आस पूरी होने से पहले अगले ‘धिन’ के साथ किस तरह माहौल को फिर उसी की गूँज से भरा जाता है। इधर, हरि जी की दोनों शागिर्द अपने गुरु के ‘पटदीप’ से लौ लेकर दीया से दीया ‘जोड़’कर एक के एक बाद एक जलाए जा रही हैं। ‘वाह, क्या बात है’, बार-बार सुनाई दे रहा है।
ये दीप प्रज्ज्वलन हुआ। अब बारी आई ‘कल्याण’ की। राग यमन-कल्याण। छोटे से आलाप के बाद झपताल की बन्दिश। तबले की संगत में। अभी तीन-चार मिनट गुजरे कि पंडित जी का ‘अगला सुर’ सुनाई देता है, “माफ़ कीजिएगा। हम 10 की जगह नौ मात्राओं में चले गए।” ये सुर है, विनय का। ‘विद्या ददाति विनयं’ का। वरना तो ओजस जी ने इस ख़ूबसूरती से वह एक मात्रा का फ़ासला भरा कि अधिकांश सुनने वालों पर अभी-अभी ही अस्लियत खुली है। बहरहाल, आगे बन्दिश भी तबले की 10 मात्राओं के साथ चल पड़ी है। और कुछेक देर बाद ही 16 मात्राओं के साथ-साथ। तीन ताल। तीन वाद्य। पाँच कलाकार। बाँसुरियों को अब तबला और पखावज दोनों संगत दे रहे हैं। हर मन ‘यमन’। हर कोना ‘कल्याण’। सुनने वाले अभी सुर-ताल में गहरा गोता लगा ही रहे हैं कि पंडित जी उन्हें पहाड़ पर चढ़ा देते हैं। ‘पहाड़ी’ शुरू हो गया है अब। ‘दादरा’ के संग।
‘पहाड़ी’ पर चढ़ते-चढ़ते कानों में बाँसुरी, तबला, पखावज के साथ मंजीरे के सुर भी सुनाई देने लगे हैं। ये कमाल भवानीशंकर जी का है। जो महसूस कर पा रहे हैं, उन्हें लग रहा है कि बस, अब कुछ देर में ‘पहाड़ी’ पर ही मन्दिर की आरती की धुन सुनाई देने वाली है। और लीजिए सच में, आरती शुरू हो चुकी है, ‘ओम जय जगदीश हरे। स्वामी जय जगदीश हरे। भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करे।’ बाँसुरियों के साथ तबला, तबले के साथ पखावज, पखावज के साथ मंजीरा और मंजीरे के साथ तालियाँ। सब सुरमय, तालमय। भक्तिमय, कल्याणमय। देखते-सुनते वक्त डेढ़ घंटे से ऊपर का बीत चुका है। किसी के कान नहीं थके। किसी का मन नहीं भरा। लेकिन लिहाज रखना ही होता है। वक्त का भी। उम्र का भी। सुरों को भी पंडित जी के साथ कुछ आराम की जरूरत है। लिहाजा, वे अपनी सुरीली स्मृतियाँ छोड़कर ठहर गए हैं। सिर्फ तालियाँ सुनाई दे रही हैं। ये ‘भारत भवन’ की 41वीं वर्षगाँठ के समारोह का समापन है।
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वाह! क्या बात… वाक़ई दृश्य दिखाई देता है। लगता है हम पढ़ने वाले भी वहीं बैठे सुन रहे हैं। मज़ा आ गया।