टीम डायरी
दादी-नानाी के बटुए से क्या-कुछ नहीं निकलता। क़िस्से-कहानियाँ निकलते हैं। घर चलाने, रिश्ते निभाने, सेहतमन्द रहने के नुस्ख़े निकलते हैं। कभी-कभी तो बहुत ज़बर्दस्त आइडिया भी निकलते हैं। अब महाराष्ट्र की एक दादी (वहाँ आजी कहा जाता है) भीमाबाई जोधले का ही उदाहरण देख लीजिए। उनके बटुए से ‘पुस्तकों का होटल’ निकला है। इसका नाम है, ‘आज्जीचं पुस्तकांचं होटेल’ यानी दादी का पुस्तकों का होटल।
दरअस्ल, यह एक ऐसा होटल है जहाँ आने वालों को पुस्तकें पढ़ने के लिए मुफ़्त में उपलब्ध कराई जाती हैं। जब तक उनके लिए खाने-पीने का इंतिज़ाम होता है, तब वे बैठकर अपनी पसन्द की कोई भी उपलब्ध पुस्तक पढ़ सकते हैं। नासिक के नज़दीक मुम्बई-आगरा राष्ट्रीय राजमार्ग-तीन पर स्थित भाीमाबाई के होटल में तीन भाषाओं की पुस्तकें पढ़ने को मिल जाती हैं। हिन्दी, अंग्रेजी और मराठी में।
नासिक के खटवाड गाँव की रहने वाली भीमाबाई की उम्र क़रीब 75 साल है। लेकिन वे ख़ुद भी अब तक खाली समय में बड़े चाव से पुस्तकें पढ़ा करती हैं। जबकि उनकी अकादमिक शिक्षा छठवीं कक्षा तक ही हुई है। उसी दौरान उनकी शादी होने से पढ़ाई छूट गई। मगर पढ़ने का शौक़ नहीं छूटा। इसके बाद पारिवारिक हालात ऐसे बने कि उन्हें परिवार की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर लेनी पड़ी। उनके पति शराब के लती थे। इसलिए उनकी 20 एकड़ ज़मीन में से 18 एकड़ बिक गई। बाकी ज़मीन के बूते परिवार चलाना मुश्क़िल हो गया।
लिहाज़ा, भीमाबाई ने पहले एक चाय की टपरी खोली। वहीं, उन्होंने एक बार देखा कि लोग चाय का इंतिज़ार करते-करते बहुत सा वक़्त फोन पर फ़ालतू ख़र्च करते रहते हैं। बस, तभी उन्हें चाय-पान के साथ पुस्तकें रखने का विचार आया। आजी को उनके बेटे प्रवीण का साथ मिला, जिन्होंने बड़े होकर पत्रकारिता की पढ़ाई की है। साथ ही, एक छोटी प्रकाशन फर्म भी शुरू की है। तो बस, साल 2010 से ‘आज्जीचं पुस्तकांचं होटेल’ की शुरुआत हो गई महज 50 किताबों से, जिनकी संख्या आज 5,000 से अधिक हो चुकी है।
प्रवीण के मुताबिक, शुरू-शुरू में उन लोगों ने किताबें ख़रीदकर अपने इस होटल में रखीं। लेकिन अब कई लोग स्वेच्छा से किताबें दान कर जाते हैं। इस तरह उनके प्रयास में सहभागिता का दायरा भी बढ़ा है।
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